चिकनकारी के उजाले में बदरंग चिकन कसीदाकारों की दुनिया
शहर-ए-लखनऊ में चिकनकारी की स्थिति और कारीगरों की स्थिति पर प्रकाश डालती प्रणय विक्रम सिंह की एक रिपोर्ट।
नजाकत और नफासतका का शहर लखनऊ अपने चिकनकारी के नायाब शिल्प के लिये कसीदाकारी की दुनिया में खास मुकाम रखता है। देश और दुनिया के वस्त्र बाजारों में लखनवी चिकन कुछ यूं है जैसे हजार मनकों के दरम्यान हीरा। महीन कपड़े पर सुई-धागे से विभिन्न टांकों द्वारा की गई हाथ की कारीगरी लखनऊ की चिकन कला कहलाती है। अपनी विशिष्टता के कारण ही ये कला सैंकड़ों वर्षों से अपनी लोकप्रियता बरकरार रखे हुए है। ज्ञात हो कि चिकनकारी की ये कला सोलहवीं सदी में नूरजहां हिंदुस्तान में लेकर आई थीं।
लखनऊ में चिकनकारी का कारोबार सालाना करीब 4 हजार करोड़ रुपये का है। करीब 20 हजार लोग इस कारोबार से जुड़े हैं। लखनऊ हर साल अपने एक्सपोर्ट से 2 अरब रुपये से ज्यादा विदेशी मुद्रा कमाकर देता है। लेकिन चिकनकारी की शोहरत के उजालों के पीछे है, चिकन कसीदाकारों की एक बदरंग दुनिया। क्या आपको मालूम है, कि कपड़ों में अपने हाथों के हुनर से कसीदाकारी के रंग भरने वाले चिकन कारीगरों की खुद की दुनिया कितनी बदरंग है?
चिकन के धुले वस्त्र करीब 40 डिग्री तापमान पर सुखाए जाते हैं। कटाई, सिलाई, रंगाई, कढ़ाई, धुलाई और सुखाने के बाद चिकन के वस्त्र इस तरह गठरी में भर कर रिक्शे पर लाद कर वर्कशॉप में ले जाए जाते हैं, जहां इनकी बेहतरीन पैकिंग कर इन्हें विदेश भी भेजा जाता है। कभी चिकन का बाजार लखनऊ का चौक ही हुआ करता था, लेकिन अब पूरे लखनऊ में चिकन के शोरूम खुल गए हैं जहां ये कपड़े सजा कर रखे जाते हैं।
यदि कोई ब्रश और रंगों के सहारे चित्रकारी करे तो इसमें नई बात क्या हुई! लेकिन अगर ब्रश की जगह एक महीन सुई हो और रंगों का काम कच्चे सूत के धागों से लिया जा रहा हो और कैनवास की जगह हो महीन कपड़ा, तो ऐसी चित्रकारी को अनूठी ही कहा जाएगा। चिकनकारी में सुई धागे के अलावा यदि कुछ और प्रयोग होता है तो वह है आंखों की रोशनी और एक उच्चस्तरीय कलात्मकता का बोध। सुई धागों से जन्मे टांकों और जालियों का एक विस्तृत, जटिल किन्तु मोहक संसार है। लगभग 40 प्रकार के टांके और जालियां होते हैं जैसे- मुर्री, फनदा, कांटा, तेपची, पंखड़ी, लौंग जंजीरा, राहत तथा बंगला जाली, मुंदराजी जाजी, सिद्दौर जाली, बुलबुल चश्म जाली, बखिया आदि। सबसे मुश्किल और कीमती टांका है नुकीली मुर्री। इन तरह-तरह के नाम के टांकों और जालियों की रचना का एक निश्चित विधान है और उनकी निजी विशिष्टताएं हैं। गर्मी के मौसम में सूती कपड़े पर चिकन का खिला-खिला काम आंखों को ठंडक देता है। चिकन की मांग आधुनिक फैशन जगत में भी बढ़ती जा रही है। डिजाइनर इसे पोशाकों पर बनवाना पसंद करते हैं फिर चाहे वह ऐश्वर्या राय के लिए कोई पोशाक हो या मिलान या मेलबर्न में किसी फैशन वीक के लिए।
चिकन वस्त्रों को तैयार करने में रंगरेज का भी कम योगदान नहीं होता, क्योंकि पक्के रंग चढ़ाना उसी की जिम्मेदारी होती है, वो भी इस तरह कि चिकनकारी के धागे का रंग फीका न पडऩे पाए। हाथ से कारीगरी के कारण कपड़ा मैला भी दिखने लगता है। तैयार चिकन के वस्त्रों की लखनऊ की गोमती नदी में इस तरह धुलाई होती है। धुलाई के बाद गोमती नदी के किनारे ऐतिहासिक पक्के पुल के नीचे का ये दृश्य हमेशा से लुभावना रहा है। चिकन के धुले वस्त्र करीब 40 डिग्री तापमान पर सुखाए जाते हैं। कटाई, सिलाई, रंगाई, कढ़ाई, धुलाई और सुखाने के बाद चिकन के वस्त्र इस तरह गठरी में भर कर रिक्शे पर लाद कर वर्कशॉप में ले जाए जाते हैं, जहां इनकी बेहतरीन पैकिंग कर इन्हें विदेश भी भेजा जाता है। कभी चिकन का बाजार लखनऊ का चौक ही हुआ करता था, लेकिन अब पूरे लखनऊ में चिकन के शोरूम खुल गए हैं जहां ये कपड़े सजा कर रखे जाते हैं। इन दिनों टीवी सीरियल्स में चिकनकारी के इस्तेमाल ने इसके चाहने वालों में इजाफा कर दिया है। अनारकली तो सबकी पसंदीदा है ही अब लॉन्ग कुर्तियों का क्रेज भी खूब देखने को मिल रहा है। जॉर्जेट, रेशम और चंदेरी सिल्क का काम काफी पसंद किया जा रहा है। यहां चिकनकारी के सूट आपको 500 रुपये से लेकर 3500 रुपये की रेंज में और लॉन्ग कुर्तियां 250 रुपये से लेकर 3000 रुपये तक में मिल जाएंगे।
चिकनकारी की चमकदार खूबसूरती के पीछे है एक बेरंग दुनिया
कपड़ों में अपने हाथों के हुनर से कसीदाकारी के रंग भरने वाले चिकन कारीगरों की खुद की दुनिया बदरंग है। महीनों चार-पांच घंटे की कड़ी मेहनत के बाद इन्हें इतना भी पारिश्रमिक नहीं मिल पाता जिससे इनके परिवार का गुजारा हो सके। चिकनकारी से जुड़ी सैकड़ों महिलाएं एजेंटों के रहमोकरम पर निर्भर हैं। इनके हुनर से एजेंट तो मालामाल हो रहे हैं वहीं इनके हिस्से में चंद रुपयों का पारिश्रमिक ही आता है।
चिकन कारोबारी नए-नए डिजाइन लेकर बाजार में उतर रहा है। कपड़े ही नहीं बल्कि बैग, पर्स और जूतियों भी खूब पसंद किए जा रहे हैं। लखनऊ आने वाला कोई भी शख्स चिकन के सामान की खरीदारी करना नहीं भूलता। लखनऊ की इस खास पहचान के दीवाने भारत, पाकिस्तान और अरब देशों में ही नहीं बल्कि जापान और यूरोप में भी हैं। यहां के कारीगरों ने भी पश्चिमी देशों के अपने कद्रदानों के लिए इंडो-वेस्टर्न स्टाइल ईजाद की है। चिकनकारी की बढ़ती मांग को देखते हुए कई बड़ी ई-कॉमर्स कंपनियां भी इसमें दिलचस्पी दिखा रही हैं। लेकिन चिकनकारी की शोहरत के उजालों के पीछे बदरंग है चिकन कसीदाकारों की एक दुनिया। कपड़ों में अपने हाथों के हुनर से कसीदाकारी के रंग भरने वाले चिकन कारीगरों की खुद की दुनिया बदरंग है। महीनों चार-पांच घंटे की कड़ी मेहनत के बाद इन्हें इतना भी पारिश्रमिक नहीं मिल पाता, जिससे इनके परिवार का गुजारा हो सके। चिकनकारी से जुड़ी सैकड़ों महिलाएं एजेंटों के रहमोकरम पर निर्भर हैं। इनके हुनर से एजेंट तो मालामाल हो रहे हैं वहीं इनके हिस्से में चंद रुपयों का पारिश्रमिक ही आता है। इनके स्वावलंबन एवं आर्थिक समृद्धि की योजनाएं भी फिलहाल इनसे कोसों दूर हैं। इन महिलाओं को कढ़ाई के लिए कपड़े बिचौलिए उपलब्ध कराते हैं। डिजाइन के अनुसार ही कढ़ाई का पारिश्रमिक भी बिचौलिए ही तय करते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर महिलाएं बिचौलियों द्वारा तय राशि पर ही काम करने को विवश हैं। जिससे महीनों की मेहनत के बदले पांच-छह सौ रुपये तक ही इन्हें नसीब हो पाते हैं।
चिकनकारी से जुड़ी मोहान कस्बे की कमला देवी बताती हैं, कि घरेलू कार्यों से फुर्सत के समय में कुछ आमदनी के उद्देश्य से कपड़ों पर चिकन की कढ़ाई का काम काफी दिनों से कर रही हैं। प्रतिदिन चार से पांच घंटे काम करने पर एक लेडीज सूट की कढ़ाई करीब एक माह में पूरी होती है। जिसके मेहनताने के रूप में केवल चार से पांच सौ रुपये ही मिल पाते हैं।
कसीदाकारी करने वाली एक और रेशमा बताती हैं, कि इस समय जिस सूट की कढ़ाई कर रही है उसका काम 20 से 25 दिन में पूरा होगा और मेहनताने के रूप में केवल पौने तीन सौ रुपये ही मिलेंगे। कढ़ाई का काम एजेंटों के माध्यम से ही मिलता है। डिजाइन के अनुसार दाम भी वही तय करते हैं। महंगे दामों पर बिकने वाले इन सूटों के बदले महिलाओं को चंद रुपये ही मेहनताने के मिलते हैं जिससे परिवार का खर्चा भी मुश्किल से ही चल पाता है।
चिकन की कढ़ाई के बाद उसे धोबी घाट पर धोने के लिए लाया जाता है। शमशाद ने बताया, कि चिकन के कपड़े धोने के लिए कोई प्लांट भी नहीं है। गोमती में ही धोना पड़ता है। कास्टिक, सोडा और तेजाब से कपड़े की धुलाई होती है। ऐसे में हाथ की त्वचा ही गल गई है। खाना तक नहीं खा पाते हैं।
कमला एवं रेशमा जैसी कई गांवों की सैकड़ों अल्पसंख्यक महिलाएं भी अपने कढ़ाई के हुनर से कपड़ों में कसीदाकारी के रंग भर रही है परंतु आर्थिक रूप से कमजोर इन महिलाओं को स्वावलंबन एवं स्वरोजगार की योजनाओं का लाभ न मिलने से इनकी दुनिया फिलहाल बदरंग ही है।
अव्यवस्थित कारोबार
लखनऊ के साथ चिकन कारोबार से आसपास के सैकड़ों गांव भी जुड़े हुए हैं। चिकन पर कारीगारी, धुलाई, रंगाई-कढ़ाई का 80 प्रतिशत काम इन्हीं ग्रामीण इलाकों में ही होता है। इनमें महिलाओं की संख्या अधिक है। चिकन का कारोबार काफी अव्यवस्थित है। यहां तक बहुत से कारीगरों का बैंक खाता भी नहीं है। तुरंत फायदे के चक्कर में चिकनकारी से जुड़े कई एनजीओ भी मशीनी काम को तवज्जो देने लगे हैं और देश भर में फैले स्टोरों में मशीनी एंब्रायडी से बने चिकन को ही बेच रहे हैं।
चिकनकारी में हुए है समय के साथ बदलाव
समय के साथ चिकनकारी में तेजी से परिवर्तन हुआ है इंडो-वेस्टर्न से लेकर बारीक कढ़ाई तक चिकनकारी में काफी हद तक तब्दीली आई है। मलमल के कपड़े पर सूत के धागे से होने वाली कढ़ाई और उससे बदलने वाला कुर्तों का लखनवी अंदाज, कभी चिकनकारी बस इतने तक ही सीमित हुआ करती थी। मगर अब वक्त बदल गया है। पूरी दुनिया में लखनऊ की खास पहचान बनी चिकन की पोशाकें अब पाश्चात्य डिजाइनों में भी खूब फब रही हैं। स्कर्ट, से लेकर अनेक डिजाइनों के टॉप में चिकन का देसी अंदाज तो नहीं दिखता मगर इसकी खूबसूरती कहीं से भी कम होती नहीं नजर आती है। चिकनकारी की बढ़ती डिमान्ड को देखते हुए बड़ी इ-कॉमर्स कम्पनियों ने भी इसमें दिलचस्पी दिखा रही है। आज के ट्रेंड्स को ध्यान में रखते हुए यहा के कारीगरों ने भी पश्चिमी देशों की तरह इंडो-वेस्टर्न स्टाइल ईजाद किये हैं। चौक इलाके में स्थित श्री बालाजी चिकन इंडस्ट्रीज के संचालक प्रमोद श्रीवास्तव बताते हैं,
'पहले मलमल, आर्गंडी और लोन कपड़े पर ही चिकनकारी होती थी। मगर आज के लोगों की पसंद को ख्याल में रखते हुए जोर्जेट, शिफान, कॉटन और डोरिया कोटा कपड़े पर भी की जाने लगी है। पहले जहां केवल फूल और पट्टी की डिजाइनिंग होती थीं वहां भी अब फैंसी डिजाइन बनने लगे हैं।'
मशहूर सेवा चिकन इंडस्ट्रीज के संचालक केके रस्तोगी का कहना है,
'आज कल की युवाओं के लिए चिकनकारी में इंडो-वेस्टर्न के साथ-साथ फ्यूजन भी लाया जा रहा है। उसके अलावा फैंसी में अन्य वैरायटी के कपड़ों पर चिकनकारी की सेल भी काफी अच्छी होती है। इसकी रेंज 700 से लेकर 1000 तक है जिसे लोग आज कल ज्यादा पसन्द कर रहे हैं।'
लखनवी चिकन पर भी 'ड्रैगन' की छाया
अपनी नफासत के लिए पूरी दुनिया में मशहूर लखनवी चिकनकारी पर अब 'ड्रैगन' का साया मंडरा रहा है। लखनऊ के चिकन उत्पादों के मुकाबले करीब 30 प्रतिशत सस्ते चीनी चिकन उत्पाद इस उद्योग के असंगठित क्षेत्र से जुड़े करीब 5 लाख कारीगरों की रोजी-रोटी के लिए खतरा बनते जा रहे हैं।
उद्योग मण्डल 'एसोचैम' द्वारा चिकनकारी उद्योग को लेकर कराए गए ताजा अध्ययन में कहा गया है, कि कुशल कारीगरों की कमी और जागरूकता के अभाव का बुरा असर लखनऊ के चिकनकारी उद्योग पर पड़ रहा है। हालात ये हैं, कि दस्तकारी द्वारा उत्पादित कुल चिकन के केवल 5 प्रतिशत हिस्से के कपड़े ही निर्यात किए जा रहे हैं, बाकी को घरेलू बाजार में ही किसी तरह खपाया जा रहा है। एसोचैम के आर्थिक अनुसंधान ब्यूरो द्वारा कराए गए इस अध्ययन के मुताबिक 'मशीन से बनाए जाने वाले चीनी चिकन के कपड़े लखनवी चिकन उद्योग को चुनौती दे रहे हैं। चीनी चिकन के मुकाबले दस्तकारों द्वारा बनाए जाने वाले चिकन के कपड़ों की सुपुर्दगी में अक्सर वक्त की पाबंदी नहीं हो पाती, क्योंकि ज्यादातर कारीगर लखनऊ के आस-पास के गांवों में रहते हैं। इसके अलावा चीनी चिकन लखनवी चिकन के मुकाबले करीब 30 प्रतिशत सस्ता भी होता है।'
अध्ययन के मुताबिक, लखनऊ का चिकनकारी उद्योग काफी बिखरा हुआ है और बाजार तथा निर्यात के बारे में पर्याप्त जानकारी ना होने, सुअवसरों और कीमतों की जानकारी की कमी, कच्चे माल की कमी और फैक्ट्री में निर्मित उत्पादों से मिल रही प्रतिस्पर्धा से मुकाबले के लिए पर्याप्त वित्तीय सहायता की कमी इस बिखराव के मुख्य कारण हैं।