मनोहर श्याम जोशी को पढ़ना-सुनना बार-बार
साहित्य और पत्रकारिता की बहुमुखी प्रतिभा के धनी मनोहर श्याम जोशी...
लेखन की ऐसी विरली ही दास्तान हो सकती है कि कोई रचनाकार जिंदगी कम पड़ जाने से अपनी कई कृतियां अधूरी छोड़ जाए। हिन्दी के पाठकों के लिए रचनात्मक अधूरेपन का यह दुखद वृत्तांत मनोहर श्याम जोशी की बार-बार याद दिलाता रहेगा। अपने सृजन-समय में जिंदगी के अंतिम क्षणों तक रचनारत रहे हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार, व्यंग्यकार, पत्रकार, पटकथा लेखक, संपादक, स्तंभ-लेखक मनोहर श्याम जोशी की आज बारहवीं (30 मार्च) पुण्यतिथि है।
मनोहर श्याम जोशी हमारे वक्त के एक ऐसी साहित्यिक शख़्सियत रहे हैं, जिनकी प्रतिभा का विस्तार साहित्य, पत्रकारिता, टेलीविजन से सिनेमा जगत तक रहा है। जोशी को आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध गद्यकार, उपन्यासकार, व्यंग्यकार, पत्रकार, दूरदर्शन धारावाहिक लेखक, विचारक, फ़िल्म पट-कथा लेखक, उच्च कोटि का संपादक, कुशल प्रवक्ता तथा स्तंभ-लेखक माना जाता रहा है।
अपने सृजन-समय में जिंदगी के अंतिम क्षणों तक रचनारत रहे हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार, व्यंग्यकार, पत्रकार, पटकथा लेखक, संपादक, स्तंभ-लेखक मनोहर श्याम जोशी की आज (30 मार्च) पुण्यतिथि है। लेखन की ऐसी विरली ही दास्तान हो सकती है कि कोई रचनाकार जिंदगी कम पड़ जाने से अपनी कई कृतियां अधूरी छोड़ जाए। हिन्दी के पाठकों के लिए रचनात्मक अधूरेपन का यह दुखद वृत्तांत मनोहर श्याम जोशी की बार-बार याद दिलाता रहेगा कि उनकी आखिरी दो किताबें कभी पढ़ने को नहीं मिल पाएंगी। इनमें से एक है 'कपीश जी' और दूसरी कंबोडिया की पृष्ठभूमि पर लिखी जाती रही पुस्तक। इन दोनों किताबों को लिखते-लिखते उनके जीवन की डोर टूट गई या कहिए कि लेखक की कलम की स्याही सूख गई।
उनके सृजन की सांवादिक विशिष्टता हमे हिंदी साहित्य के अलग तरह के अनुभवों तक ले जाती है। किसी लेखक की पुस्तकों का संकलन देखकर ही इसलिए भी उसकी श्रेष्ठता और विशिष्टता का पता चलता है कि पुस्तकें आदमी की सच्ची दोस्त होती हैं। पुस्तकों में ही पुस्तकों के बारे में जो लिखा है, वह भी उल्लेखनीय और विचारोत्तेजक होता है। टोनी मोरिसन लिखता है- 'कोई ऐसी पुस्तक, जो आप दिल से पढ़ना चाहते हैं, लेकिन जो लिखी न गई हो, तो आपको चाहिए कि आप ही इसे जरूर लिखें।' किसी ने कहीं लिखा है कि अगर कोई यह मानता है कि यह जीवन उसे सिर्फ एक बार ही मिला है तो यह जानिए कि वह पढ़ना नहीं जानता। वास्तव में अगर किताबें न हों तो बहुत से कार्य तो हमारे अधूरे ही रह जाएँगे। ज्ञान, मनोरंजन और अनुभवों की संवाहक पुस्तकें यूँ ही नहीं पथ का सबसे विश्वसनीय राही हो जाती हैं। उनके पन्नों पर जीवन का हर अर्थपूर्ण अनुभव सहेज लिया जाता है।
उनका अध्ययन कर पाठक का आने वाला कल और भी खूबसूरत हो जाता है। हिंदी की प्रचलित सभी विधाओं उपन्यास, कहानी, कविता, व्यंग्य, निबंध, पटकथा, संस्मरण में सिद्धहस्त मनोहर श्याम जोशी की औपन्यासिक कृतियों 'कुरु-कुरु स्वाहा', 'कसप', 'हरिया हरक्युलिस की हैरानी', 'ट-टा प्रोफ़ेसर', 'क्याप', 'हमज़ाद', 'कौन हूँ मैं' आदि को पढ़ते हुए अथवा दूरदर्शन के छोटे पर्दे पर उनके लोकप्रिय पटकथा-संसार 'बुनियाद', 'हम लोग', 'कक्का जी कहिन', 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने', 'हमराही', 'ज़मीन आसमान', 'गाथा', 'हे राम', 'पापा कहते हैं', 'अप्पू राजा' आदि की शब्द-ध्वनियों से गुजरते हुए मानो समूचा शब्द-समय हमारे संज्ञान में सिमट आता है।
मनोहर श्याम जोशी को पढ़ते हुए पाठक क्यों उनके शब्दों में अपनी सुध-बुध खो बैठता है, ख्यात लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' पर उनकी इन पंक्तियों की लयदारी और बेबाकी से सहज ही समझा जा सकता है- 'सामान्य हिंदी साहित्यकार के सामने अज्ञेय कुछ ऐसा ही जँचा जैसा उच्च मध्यवर्ग निम्न मध्यवर्ग की तुलना में दीखता है। उससे सामान्य हिंदी साहित्यकारों को कुछ वैसी ही ईर्ष्या हुई जैसी निम्न मध्यवर्ग को उच्च मध्यवर्ग से होती आई है। पंचों की राय से अज्ञेय हिंदी साहित्य जगत का सर्वाधिक अप्रिय व्यक्ति है। इस भावना को महज ईर्ष्या पर आधारित समझना य समझ सकना मुश्किल है। मानना ही पड़ता है कि अज्ञेय को दोस्त न बनाने में, और प्रकारांतर से, दुश्मन बनाने में माहिरी हासिल है। उसे तापक से मिलना, गले में हाथ डाले घूमना, भगवान! गुरू! कौ बेटा! जैसे संबोधन कहना, कुछ भी तो नहीं आता। अपने में, अपने तक रहने में, वह अंग्रेजों को भी मात करता है। न वह किसी का व्यक्तिगत सुख-दुख जानना चाहता है और न वह किसी को अपना व्यक्तिगत सुख-दुख बताता है। इसीलिए पीठ पीछे बुराई करने में प्रवीण हिंदी लेखकों को इसमें भी रचनात्मक मुश्किल आती रही है। उसके व्यक्तिगत जीवन में कोई खास पेंच रहा हो, ऐसा भी नहीं। विवाह, तलाक और एक लंबे अंतराल के बाद पुनर्विवाह। इतनी-सी बात को लेकर वह चटखारे पैदा किए और लिए गए हैं कि हिंदी साहित्यकारों की कल्पनाशीलता की दाद देनी पड़ती है।' मनोहर श्याम जोशी एक ओर तो हिंदी लेखकों की संदिग्ध अभिरुचि को रेखांकित करने से परहेज नहीं करते हैं, दूसरी ओर वह अज्ञेय के गुण-अवगुण दोनों को चिन्हित करने से कत्तई नहीं चूकते हैं, देखिए इस तरह - 'अज्ञेय को राजनीतिक बदनामी भी काफी मिली है। प्रतिक्रियावादियों की हिंदी में कोई कमी नहीं, लेकिन अमरीकी एजेंट अज्ञेय को ही कहा गया है। मुझे एक प्रगतिशील आलोचक ने विस्तार से यह समझाया था कि अज्ञेय को 'प्रतीक' के प्रकाशन के लिए कितनी अमरीकी सहायता मिलती है। जब 'प्रतीक' बंद हो गया तो शायद इन आलोचक महोदय का यही अनुमान रहा होगा कि अमरीकी खजाना खाली हो गया है। साहित्यिक दृष्टि से भी अज्ञेय को बराबर गलत समझा और समझाया गया है। कहीं गलती से उसने इलियट की कुछ पंक्तियाँ अपने लेख में उद्धृत कर दीं, तब से उसे इलियट कहा जाने लगा और इलियट को 'इडियट' का पर्याय ठहराया जाने लगा। कोई भी पढ़ा-लिखा आदमी यह देख सकता है कि अगर अज्ञेय पर किन्हीं पाश्चात्य लेखकों का प्रभाव है तो डी.एच. लारेंस और ब्राउनिंग का! लारेंस का प्रभाव अज्ञेय की लेखनी ही नहीं दाढ़ी भी घोषित करती है, लेकिन और पढ़नेवाले लोग हैं कहाँ?'
मनोहर श्याम जोशी का हिंदी के किसी बड़े लेखक के बारे में इतनी स्पष्टता लिखना और उसे असंख्य पाठकों द्वारा पढ़े जाना, इन दो स्थितियों के बीच मन स्थिर रखते हुए गुलज़ार साहब की यह कविता हमें बार-बार 'कुरु-कुरु स्वाहा', 'कसप', 'हरिया हरक्युलिस की हैरानी' से बरबस गुजरने के लिए उकसाने लगती है -
किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो कदरें वो सुनाती थी कि जिनके
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फ़ाज़
जिनपर अब कोई मानी नहीं उगते
जबां पर जो ज़ायका आता था जो सफ़ा पलटने का
अब ऊँगली क्लिक करने से बस झपकी गुजरती है
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, वो कट गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे!!
मनोहर श्याम जोशी जब अज्ञेय को लिखते हैं, उनके नाम तक का मीठे-मीठे चीरफाड़ भी कर डालते हैं - 'सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' नाम तो नाम उपनाम सुबहान अल्लाह! आप कहेंगे कि भला नाम-उपनाम में धरा क्या है? जरा सुनिए - मुंशी प्रेमचंद - एक निहायत ही दबे-ढके, सीधे-सादे शख्स की तसवीर सामने आती है न? निराला - यही शब्द सुनकर मन में अवधूत जगता है कि नहीं? और वे तमाम नंदन, कुमार और लाल युक्त नाम, उन्हें सुनकर, सच कहिए, मूड कतई सूरदास हुआ जाता है कि नहीं? तो जरा फिर सुनिए - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'! देखो अपने, इसे सुनने की दो ही प्रतिक्रियाएँ होती हैं, या तो आप आस्तीनें चढ़ाकर पूछते हैं, 'क्या कहा?' या आप मरी सी आवाज में एक गिलास ढंडे पानी की माँग कर बैठते हैं। तो क्या ताज्जुब जो इस नाम ने हिंदी साहित्य जगत में सबसे ज्यादा उन्मेष, सबसे ज्यादा हीन-भावना जगाई है। यहाँ बतौर सांत्वना, 'नाम बड़े और दर्शन छोटे' वाला मामला भी नहीं है। यह नहीं कि कहा मनोहर श्याम और एक उजबक सामने ला खड़ा किया। अज्ञेय जब आपके सम्मुख प्रगट होता है तो आप देखते हैं कि उसका व्यक्तित्व भी नाम के अनुरूप गरिमावान है। ऊँचा कद, चौड़ा सीना, फ्रायडवाद की याद ताजा कराने वाले घने काले रोएँ, यदा-कदा बाहर-दाढ़ी, खिलाड़ी-सा बदन, शिकारी-सी चाल! इस पर तुर्रा यह कि आप इस व्यक्तित्व को किसी भी लिबास में लपेट दीजिए, वह प्रभावप्रद प्रतीत होता है। एक बार नई दिल्ली में जींस-जाकिट धारी और स्कूटर-सवार वात्स्यायन को देखा था और खुदा झूठ न बुलवाए, वह क्षण खासा चेतन रहा था। कुल मिलाकर यह व्यक्तित्व ऐसा है कि देखते ही अहेतुक विशेषणवादी काव्य आप ही आप फूटता चला जाए। मगर जब यह व्यक्तित्व बोलना शुरू करता है तो दुखद आश्चर्य के साथ, आप दिनकर जी को विदा करके पंत जी को न्यौता देते हैं। भगवान की दी हुई तमाम अक्खड़ सजधज के बावजूद अज्ञेय में कुछ ऐसा है जो निहायत ही नाजुक है - उसकी आवाज, सुनहरे फ्रेम के पीछे से झाँकती हुई उसकी शांत-क्लांत आँखें और होठों की कोर से ठोढ़ी की ओर बढ़ती हुई दो थकीहारी-सी रेखाएँ। अज्ञेय की आवाज में गए तत्व काफी है। लहजा भी खास है - लययुक्त और विराम-चिह्न-पूर्ण।'
रचने वालों को रचते हुए जोशी जी ने ऐसे कई संस्मरण लिखे हैं, जिनका तथ्यपूर्ण लालित्य, उनमें घुला जीवन का टटकेपन और शब्द-माधुरी पुनः-पुनः उनमें बने रहने के लिए आज भी अभिप्रेरित करती रहती है। वह साहित्य ही नहीं, दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, वीकेंड रिव्यू के एक प्रभावी संपादक के रूप में हिंदी-अंग्रेजी पत्रकारिता में भी अपनी अलग पहचान छोड़ गए हैं।
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