Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

अयोध्या विवाद: सियासत की वेदी और आस्था की आहुति

अयोध्या विवाद: सियासत की वेदी और आस्था की आहुति

Wednesday November 28, 2018 , 9 min Read

मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम की नगरी अयोध्या पुन: एक बार राजनीति के घेरे में हैं। घंटे, घड़ियाल, शंख, आरती और आराधना में रत रहने वाला संत समाज फिर एक बार खबरिया चैनलों की सुर्खियां बटोर रहा है।

सांकेतिक तस्वीर (तस्वीर साभार- सोशल मीडिया)

सांकेतिक तस्वीर (तस्वीर साभार- सोशल मीडिया)


आश्वासन तो दीपावली के समय भी दिया जा रहा था कि मुख्यमंत्री कुछ बड़ी घोषणा करेंगे। पूरे सूबे की निगाहें लगी हुई थीं। सियासत से इतर सिर्फ राम से जुड़ाव रखने वाले कार्यकर्ता के मन में कुछ-कुछ अरमान आकार लेने लगे थे। किंतु हुआ क्या? 

मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम की नगरी अयोध्या पुन: एक बार राजनीति के घेरे में हैं। घंटे, घड़ियाल, शंख, आरती और आराधना में रत रहने वाला संत समाज फिर एक बार खबरिया चैनलों की सुर्खियां बटोर रहा है। जो शिवसेना कल तक भाजपा की हमकदम-हमख्याल थी वही आज सवाल कर रही है कि साढ़े चार साल तो गुजर चुके हैं आखिर मंदिर निर्माण कब शुरू होगा। लेकिन सवाल शिवसेना से भी है कि चुनाव के 6 माह पूर्व ही क्यों उसको राम मंदिर के प्रति मोह उत्पन्न हुआ। आखिर अभी तक किस मजबूरी ने उसे खामोश कर रखा था।

सवाल यह भी है कि जब राम मंदिर के निर्माण की तिथि का ऐलान होना नहीं था तो विश्व हिंदू परिषद द्वारा धर्म सभा आयोजित करने का मकसद क्या था? दीगर है कि सरकार द्वारा ऐसा कोई वायदा भी नहीं किया गया था। मंदिर निर्माण के लिये सरकार से आर-पार की लड़ाई वाला कोई संकल्प था नहीं! फिर क्या सिर्फ न्यायपालिका को जन उत्कंठा से अवगत कराना ही एक मात्र कारण था! या फिर एक बार आस्था के आंगन में फरेब का घुंघरू बांध कर सियासत, चुनावी रक्स कर रही थी।

यह तो स्पष्ट है कि राम मंदिर निर्माण से जनता का भावनात्मक जुड़ाव बढ़ा ही है कम नहीं पड़ा है। 1992 में सरयू तट पर जमे कारसेवकों के लहू के धब्बे भले ही वक्त की धाराओं में धूमिल हो गये हों लेकिन सरयू की बहती धाराओं में उभरता अक्स आज भी राम मंदिर निर्माण का सवाल पूछ रहा है। बस किरदार बदल गये हैं। जो सवाल पहले भाजपा पूछती थी वही सवाल अब जनता भाजपा से पूछ रही है।

बीजेपी की इन दुविधाओं को शिवसेना खूब भुना रही है। बीजेपी को कठघरे में खड़ा करते हुए वो पूछ रही है कि राम मंदिर बनाने की नीयत वास्तव में है तो अध्यादेश क्यों नहीं ला रहे? निर्माण शुरू करने की तारीख क्यों नहीं बता रहे? यह श्रीराम का प्रताप है या भाजपा की दुविधाओं पर प्रहार कर सियासी बढ़त हासिल करने की जुस्तजू कि शिव सेना के सांसद संजय राउत कहते हैं जब 15 मिनट में मस्जिद ढहाई थी तो कानून बनाने में कितना समय लगता है। वह यहीं नहीं थमे बल्कि बाबरी ध्वंस का श्रेय भी शिव सैनिकों को देने से नहीं चूकते हुये कहते हैं कि यदि शिव सैनिकों ने मस्जिद न ढहाई न होती तो आज राम मंदिर पर कोई बात ही नहीं हो रही होती।

यह बढ़त बनाने की चाहत ही है कि कभी उत्तर भारतीयों पर हमलावर रहने वाली शिव सेना उत्तर भारत के ह्वदय स्थान अयोध्या में कार्यक्रम करने को मजबूर हुई। दरअसल शिवसेना भी जानती है कि उसका उत्कर्ष काल भी राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़ा रहा है। राम नाम की नाव पर सवारी करने वाली भाजपा ने शिवसेना के गढ़ महाराष्ट्र में सेंध करते हुये पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बना ली, जिसने शिवसेना को जमीन खिसकने का अहसास करा कर पुन: राम की शरण में जाने के लिये विवश किया। इसी कारण धर्म सभा के माध्यम से सरयू की बहती अविरल धाराओं में राम जन्मभूमि मुद्दे के प्रति 1992 और 2018 के कालखंड के मध्य उत्पन्न हुये अंतर को समझने की कोशिश करती अनेक सियासी जमाते दिखीं।

कोई फौज की फरमाइश कर खुद को खैरख्वाह साबित करने की जुगत में लगा। कुल मिलाकर शिव सेना द्वारा 'पहले मंदिर, फिर सरकारÓ के ऐलान, वीएचपी के राम मंदिर निर्माण पर शीघ्र कानून लाने के आश्वासन और वजूद के संकट से जूझ रही सियासी जमात द्वारा फौज की दरख्वास्त ने सियासी हलकों में जो राजनीतिक सरगर्मी पैदा कर दी है वह 2019 के समर से पहले कम नहीं होने वाली। दरअसल सरगर्मी तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फैजाबाद का नाम अयोध्या करके उत्पन्न कर दी थी। किंतु उस समय भी कार्यकर्ताओं के मध्य से एक ही आवाज आ रही थी कि योगी जी बस इक काम करो, मंदिर का निर्माण करो।

कुछ ऐसी ही रवानी उस वक्त भी दिखी जब 25 नवंबर की सुबह बड़े भक्तमाल की बगिया में धर्मसभा का हिस्सा बनने पहुंचे युवाओं की जुबान पर विश्व हिंदू परिषद के परंपरागत नारे 'रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे' की जगह शिव सेना का नारा 'हर हिंदू की यही पुकार, पहले मंदिर फिर सरकार' ज्यादा चढ़ा दिखा। क्या शिव सेना ने इस नारे के माध्यम से वीएचपी(भाजपा) के युवा कार्यकर्ताओं के मन को छू लिया है? शनिवार 24 नवंबर को अयोध्या पहुंचे शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने केंद्र सरकार को ही कठघरे में खड़ा करके पूछ लिया कि तारीख बताएं कि कब शुरू होगा राम मंदिर का निर्माण? विश्व हिंदू परिषद की धर्मसभा के एक दिन पहले ही उनका यह सवाल असल में हर अयोध्यावासी के दिल की बात और युवाओं का सवाल था।

ऐसा नहीं है कि विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित धर्म सभा निरर्थक रही। दरअसल वीएचपी ने धर्म सभा के माध्यम से अनेक उदेश्यों का संधान किया है। एक तो नई चुनौती के रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर रहे प्रवीण तोगड़ियाा के राजनीतिक वजूद पर कुठाराघात हुआ। कभी विहिप के अध्यक्ष व स्टार प्रचारक रहे प्रïवीण तोगड़िया अपने नये संगठन अंतर्राष्ट्रीय हिंदू मंच के माध्यम स्वयं की खोयी हुई जमीन को पाने हेतु बड़े बेचैन थे। अनेक साधु-संतों और कार्यकर्ताओं से सम्पर्क कर विहिप अशक्त करने की कूट रचना करने की कोशिश उनके द्वारा की जा रही थी। अयोध्या में विराट प्रदर्शन कर विहिप, संतों- कार्यकर्ताओं और सियासी जमातों के मध्य यह संदेश देने में सफल रही कि किसी स्टार के जाने के बाद संगठन के त्वरा और तेवर में कोई कमी नहीं आई है।

दूसरा, इतिहास गवाह है कि प्रत्येक आंदोलन युवा धमनियों के सहारे ही उत्कर्ष को प्राप्त हुआ है। 1992 के राम मंदिर आंदोलन में भी यह ऐतिहासिक तथ्य, सत्य साबित हुआ था। करीब 30 वर्ष से चल रहे मंदिर आंदोलन के पुरोधा अब बुजुर्ग होने लगे हैं। इस आयोजन के जरिये युवाओं पर फोकस किया गया था। 1992 से 2018 के मध्य जन्मी पीढ़ी अब युवा हो चुकी है जिसे राम मंदिर आंदोलन के विषय में कुछ कहानियों के अलावा कुछ ज्ञात नहीं है। अत: उसे संकल्पित कार्यकर्ता के स्वरूप में त्वरा और तेवर प्रदान करने के प्रयास में भी धर्म सभा सफल हुई है।

सभा में उमड़े नौजवानों की ओर इशारा करते हुए विहिप उपाध्यक्ष चंपत राय और कई संतों ने कहा कि लोग आंखें फाड़कर देख लें कि यहां आये लोगों में 95 फीसद युवा तरुणाई है। जवाब में युवाओं के बीच से जयश्रीराम के जयकारे गूंजे। तीसरा, एससी/एसटी कानून में संशोधन के पश्चात सवर्ण हिंदुओं के मध्य से भाजपा विरोध के स्वर से गूंज रहे हैं। यह विरोध विपक्षी दलों को श्वास प्रदान कर रहा है किंतु धर्म सभा में एकत्रित भीड़ के माध्यम से विहिप यह दिखाने में सफल रही है कि असंतोष होने के बावजूद कार्यकर्ता अभी विमुख नहीं हुआ है। लेकिन यह स्थिति कब तक रहेगी? दम तोड़ते आश्वासनों और बरगलाते वादों की बुनियाद पर कार्यकर्ताओं को बांधे रखना कब तक संभव हो सकेगा?

मंच से अत्यंत वरिष्ठ और ज्ञानी संत स्वामी रामभद्राचार्य ने कहा कि राम जन्मभूमि के आंदोलन से मैं 1984 से जुड़ा हुआ हूं। केंद्र सरकार 6 दिसम्बर को ही कुछ करना चाहती थी पर आचार संहिता के वजह से ऐसा नहीं कर पा रही है। मोदी धोखा नहीं देंगे। 11 दिसम्बर के बाद राम मंदिर के लिए कोई न कोई निर्णय होगा। उन्होंने कहा कि 23 नवम्बर को प्रधानमंत्री के बाद जो वरिष्ठ मंत्री होते हैं उन्होंने मुझसे दस मिनट तक बात की और भरोसा दिलाया कि संत समाज को जा कर कह दीजिए कि थोड़ा और सब्र कर लें जल्द कुछ होगा। लेकिन इस बात की हैसियत सिर्फ एक आश्वासन भर है।

विदित हो कि आश्वासन तो दीपावली के समय भी दिया जा रहा था कि मुख्यमंत्री कुछ बड़ी घोषणा करेंगे। पूरे सूबे की निगाहें लगी हुई थीं। सियासत से इतर सिर्फ राम से जुड़ाव रखने वाले कार्यकर्ता के मन में कुछ-कुछ अरमान आकार लेने लगे थे। किंतु हुआ क्या? फैजाबाद का नाम बदल कर अयोध्या कर दिया और प्रभु श्री राम की एक विशाल मूर्ति लगवाने के ऐलान कर दिया। जिसकी प्रतीक्षा थी उसका कोई जिक्र नहीं। नाम का भी अपना महत्व है। उसे महत्वहीन नहीं करार दिया जा सकता है। नाम में तो संस्कृतियां, सभ्यताएं समाहित होती हैं। नाम परिवर्तन से अयोध्या की गरिमा पुन: स्थापित हुई है। सांस्कृतिक-धार्मिक पुर्नस्थापना के विश्व में और भी उदाहरण हैं।

वर्ष 711 में स्पेन पर विजय के उपरांत अब्दुलरहमान द्वारा कोरडोबा में सेंट विसेंट चर्च पर मस्जिदे कुर्तबा बनवाई गई और स्पेन का नाम बदल कर एंडलूसिया कर दिया गया। जब वहां पुन: ईसाइयों का अधिपत्य हुआ तो वर्ष 1236 में वह मस्जिद वापस चर्च में परिवर्तित कर दी गई। एंडलूसिया फिर स्पेन हो गया। मंदिरों के ध्वंस के तमाम उदाहरण भारत में भी हैं, लेकिन मस्जिदे वापस कभी मंदिरों में परिवर्तित नहीं हुईं। लेकिन तलब जिस शय की हो आरजू भी उसी की रहती है। राम मंदिर निर्माण ही बहुसंख्यक भारतीयों की सामूहिक चेतना को संतुष्ट कर सकता है।

अब मोदी सरकार अध्याधेष लाने से क्यों पीछे हट रही है, यह सवाल संघ परिवार को बेचैन करने वाला है। दीगर है कि 2014 और उसके बाद की विजय में भाजपा ने मण्डल राजनीति के सहारे विजय और विस्तार पाया है। पिछले 4 वर्षों में कोई 22 राज्यों की सत्ता तक पहुंचने का श्रेय राम मंदिर अभियान को नहीं दिया जा सकता। 2014 और उसके बाद बीजेपी की राजनीति विकास, पारदर्शिता और परिवर्तन के नारे पर केंद्रित रही। 2019 के आम चुनावों में विजय के लिए उसे यह नारे कई कारणों से तारणहार नहीं लग रहे। लिहाजा फिर उसे कमंडल थामना पड़ रहा है। लेकिन क्या भाजपा थामेगी कमंडल? अब इसका उत्तर तो 06 दिसम्बर के बाद ही ज्ञात होगा। लेकिन भाजपा को यह जान लेना चाहिये कि इंतजार से बड़ी कोई आजमाइश नहीं होती है। और आजमाने पर कोई अपना नहीं रहता।

यह भी पढ़ें: तकनीक के जरिये पारदर्शिता लाने का जीता जागता उदाहरण बना स्टार्टअप 'ब्रिज इंपैक्ट'