पुणे का यह चायवाला हर महीने कर रहा 12 लाख की कमाई
चाय बेचकर ये चार्टर्ड अकाउंटेंट कमा रहा है लाखों...
पुणे शहर में अगर किसी चाय दुकानदार की कमाई हर महीने बारह लाख रुपए है तो यह कोई चौंकने वाली बात नहीं, बस धंधे के हुनर का कमाल है। देश में ऐसे तमाम चाय दुकानदार आयकर दाता हो गए हैं। चाय बेंचकर कोई देश का प्रधानमंत्री हो सकता है तो जान लेना चाहिए कि चुस्कियों में कितना दम है।
चाय की चुस्कियां अब पुराने जमाने की बात नहीं रहीं। चाय बेचने की बात अब राजनीतिक तिलस्म में भी समा चुकी है। भाजपा ने नरेंद्र मोदी को जब प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया था, उन्हें एक चायवाले के रूप में प्रचारित किया गया था।
चाय पिलाने के धंधे की बरक्कत पर वैसे तो आए दिन तरह तरह की खबरें आती रहती हैं, मसलन, गया में एक महिला चाय दुकानदार ने 500 और 1000 के नोटबन्दी के फैसले से खुश होकर दिन भर लोगों को फ्री चाय पिलाई, झारखंड के एक चाय विक्रेता का जल्द ही एलबम रिलीज होने जा रहा, लेकिन जब चाय बेचने की बात देश के प्रधानमंत्री से जुड़ जाती है अथवा किसी चाय वाले की मासिक कमाई 12 लाख रुपए होने की बात चलती है अथवा टी-पॉट के सीओ चार्टर्ड अकाउंटेंट रॉबिन झा की चर्चा होती है, जिनके कारोबार की श्रृंखला दिल्ली समेत पूरे एनसीआर में फैली हुई है तो ऐसी बातों को यूं ही अनसुना नहीं किया जा सकता है।
आइए, सबसे पहले पुणे के 'येवले टी हाउस' वाले चाय विक्रेता नवनाथ येवले की दास्तान जानते हैं। नवनाथ के पुणे शहर में की तीन टी स्टॉल हैं। इन पर करीब तीन दर्जन लोग काम करते हैं। वह बताते हैं कि हमारे टी हाउस लोगों को रोजगार देने लगे हैं। हमारा बिजनेस बढ़ता जा रहा है, जिससे हमे काफी खुशी है। हम जल्द ही येवले टी हाउस को इंटरनेशनल ब्रांड बनाने जा रहे हैं। येवले को अपनी इस चाय की दुकानदारी से हर महीने बारह लाख रुपए की आमदनी हो जाती है। दिल्ली के चार्टर्ड अकाउंटेंट रॉबिन झा ने तो अपने दो अन्य चार्टर्ड अकाउंटेंट दोस्तों के साथ मिलकर सन् 1913 में अपनी नौकरी से बीस लाख रुपए जुटाकर दिल्ली के मालवीय नगर मुख्य बाजार से ये कारोबार शुरू किया था।
वह 2020 तक 10 बड़े शहरों में चाय बेचने के धंधे का विस्तार करना चाहते हैं। दरअसल, कारोबार कोई भी हो, अगर आप उसे जमाने की जरूरतों के हिसाब से शुरू करते हैं, उसमें कमाई होनी ही होनी है। चाय की दुकान भी नए अंदाज में मुनाफेदार स्टार्टअप हो सकती है। गौर करिए कि आजकल बड़े-बड़े शौपिंग मॉल खुल रहे हैं। उनके अंदर बड़ी-बड़ी दुकानों में भीड़ लगी रहती है। कम्पटीशन के इस दौर में अपने ग्राहकों को खुश करना दुकानदारों के लिए अनिवार्य हो गया है। अब ग्राहकों के आराम के लिए एयर-कंडीशंड शो रूम्स, चाय-पानी, बिक्री की बेहतर व्यवस्थाएं, आकर्षक डिस्प्ले लुभाने लगे हैं। ग्राहकों को इसकी आदत सी हो गई है।
कोई चाय की दुकान खोलता है तो उसे भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि दिन भर बैठ कर यह जोड़-घटाना करता रहे कि वह किस तरह की चाय, किस रेट पर देता है, उसके साथ कभी कभी उसे विशेष पैकेज भी समय-समय पर देने के बारे में विचार करना होगा ताकि ज्यादा से ज्यादा कस्टमर दुकान पर पधारें। वह अपने टी-स्टॉल को ‘फिक्स्ड प्राईस शॉप’ में भी तब्दील कर सकता है। तकनीकी साधनों के उपयोग से वह अपने धंधे को और अधिक सुव्यवस्थित कर सकता है। मसलन, आजकल इलेक्ट्रोनिक वेइयिंग मशीन और कैश ड्राववेर जैसे संसाधन जरूरी हो चले हैं। रिटेल सॉफ्टवेर आपके अकॉउन्ट्स, बिक्री आदि को फटाफट रेकॉर्ड कर देता है। इसके माध्यम से बही-खाते फटाफट लिखे जा सकते हैं, और अपने ग्राहकों को अधिक समय दे सकते हैं।
चाय की चुस्कियां अब पुराने जमाने की बात नहीं रहीं। चाय बेचने की बात अब राजनीतिक तिलस्म में भी समा चुकी है। भाजपा ने नरेंद्र मोदी को जब प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया था, उन्हें एक चायवाले के रूप में प्रचारित किया गया था। वह आज भी खुद को चायवाला कहने से परहेज नहीं करते हैं। वह बताना चाहते हैं कि हमारे देश में चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री भी हो सकता है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में 'चायवाला' शब्द जब गूंजा तो मीडिया पता करने में जुट गया कि ये क्या माजरा है, इसकी हकीकत क्या है, क्या नरेंद्र मोदी सचमुच कभी रेलवे स्टेशन पर चाय बेंचा करते थे?
खोजबीन करते पत्रकार पहुंच गए गुजरात के मेहसाणा ज़िले के वडनगर गांव। इससे पहले चर्चा फैल चुकी थी कि यहीं के रेलवे स्टेशन पर चाय बेचते थे। उस समय उनकी उम्र छह साल थी। मौके पर जब पता चला कि नरेंद्र मोदी का जन्म तो 1950 में हुआ था और वडनगर में 1973 में ट्रेन चली और 20 की उम्र में वह घर छोड़ चुके थे यानी जिस उम्र में चाय बेचने की बात की जाती है, उस समय तो वडनगर में कोई ट्रेन ही नहीं वहां आती थी। जब और मेहनत से छानबीन हुई तो पता चला कि वडनगर में 1973 से बहुत पहले ट्रेनों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी। अप्रैल 2007 में वडनगर ब्लॉगस्पॉट डॉट पर बताया गया था कि 1907 तक वडनगर में रेलवे स्टेशन भी बन चुका था, रेल आ गई थी। उसकी तस्वीरें भी उपलब्ध हैं।
एक अन्य शोध सामग्री से पता चला कि 1887 तक मेहसाणा ज़िले के कई हिस्सों मेहसाणा से वडनगर और वडनगर से खेरालू लाइन तक रेलवे लाइनें बिछाई जा चुकी थीं। इसी वडनगर स्टेशन पर नरेंद्र मोदी बचपन में चाय बेचते थे। अब इस सम्बंध में एक और ताजा जानकारी मिली है कि इस स्टेशन को केंद्र सरकार नया रूप देने जा रही है। इसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाएगा। वडनगर रेलवे स्टेशन के जिस प्लैटफॉर्म पर अपने पिता के साथ नरेंद्र मोदी चाय बेंचते थे, उसे दुनिया के नक्शे पर लाने की व्यापक परियोजना के तहत चाय की इस दुकान को पर्यटन केंद्र में तब्दील किया जाएगा। केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा के नेतृत्व में हाल ही में संस्कृति और पर्यटन मंत्रालय और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारी इस जगह का दौरा भी कर चुके हैं।
तो बात हो रही थी, चाय की दुनकान से अकूत कमाई की। पुणे में येवले टी हाउस को इंटरनेश्नल ब्रांड बनाने का नवनाथ येवले का सपना सिर्फ सपना नहीं है, उसकी कामयाबी बेरोजगारी से लस्त-पस्त आज के युवाओं को एक नई राह सुझाती है। हमारे देश में चाय तो चाय, रद्दी खरीद के धंधे में भी बरक्कत है। रद्दी खरीदने वालों को हर कोई उनके तराजुओं की चालाकी के कारण संदेह की नजर से देखता है। कोई युवा यदि अपने शहर के लोगों को, या सिर्फ अपने मोहल्ले वालों को ही यह यकीन दिला सके कि वह तोल में घालमेल नहीं करेगा, तो वह भी सुनियोजित, सुव्यवस्थित तरीके से इस काम के बूते अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है।
रुपया तो उड़ रहा है, धंधे भी तमाम हैं, बस करामाती होने की जरूरत है। कानपुर शहर में मोती झील के निकट एक चाय की मशहूर दुकान हुआ करती थी। मोती चाय वाले को सिर्फ कानपुर शहर ही नहीं, पूरे परिक्षेत्र के लोग जानते हैं। वहां बड़े-बड़े अधिकारियों का चाय पीने के लिए तांता लगा रहता था। किसी अधिकारी से दुकानदार की रार हो गई। छापा पड़ा तो पता चला कि इसकी तो लाखों रुपए महीने की कमाई है। तब से वह शहर का एक बड़ा आयकर दाता हो गया। तो ये है चाय की चुस्कियों का कमाल, बस उस समझ की दरकार है कि पीने वालों को आप किस तरह अपनी दुकानदारी की कला से मुग्ध कर लेते हैं।
नवनाथ येवले या मोती की तरह प्रायः हर महानगर में कोई न कोई चाय की मशहूर दुकान मिल जाएगी, जैसेकि बेंगलुरू में इनफिनी टी स्टॉल, कोलकाता में डोली टी-शॉप, कोच्चि में टी-पॉट कैफे, दिल्ली के नॉर्थ कैंपस में सुदामा टी स्टॉल आदि। आपको एक ऐसी चंडीगढ़ की दुकान की बात बताते हैं। इंजीनियर पंकज शर्मा और व्यवसायी आशीष का स्टार्टअप चायबब्बल। दोनो लोग पहले विदेश में नौकरी करते थे। उसे छोड़कर चंडीगढ़ में तरह तरह की फ्लेवर वाली चाय बेचने लगे। दुकान चल पड़ी। अब तो नवंबर 2016 में शुरू हुई उनकी दुकान 'चायबब्बल' पर कांगड़ा और असम के अलावा नेपाल, श्रीलंका और जापान की भी चाय पीने को मिल जाती है।
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