हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
वो क्या जाने खिलौने, गुब्बारे, चॉकलेट, गुड़िया-गुड्डों, झूलों की दुनिया कैसी होती है। वे तो बीड़ी के अधजले टुकड़े जैसी जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हैं।
"मासूम पटाखे बनाते हैं। कालीन बुनते हैं। वेल्डिंग करते हैं। ताले और बीड़ी बनाते हैं। खेत-खलिहानों में खटते हैं। कोयले और पत्थर की खदानों से लेकर सीमेंट फैक्ट्रियों तक उनकी गुलामी की दुनिया है। इतना ही नहीं, कूड़ा बीनते हैं। गंदी थैलियाँ चुनते हैं, भट्ठों पर ईंट ढोकर परिवार का पेट पालते हैं। इन्हें न लोरियां नसीब होती हैं, न खिलौने। फिर उनके बालदिवस में शामिल होने या स्कूल जाने की तो बात ही क्या..."
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"बच्चे काम पर जा रहे हैं, सुबह-सुबह, हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह, भयानक है, इसे विवरण की तरह लिखा जाना चाहिए, काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?.... तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में?... दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजते हुए बच्चे, बहुत छोटे- छोटे बच्चे काम पर जा रहे हैं..."
एक बाल मजदूर सामने खड़े डॉक्टर से सवाल करता है, 'क्या ऐसी कोई दवा है, जिससे भूख न लगे।' कोई क्या जवाब दे सकता है। ऐसे ही कठिन सवालों से सामना कराते हैं कवि राजेश जोशी के शब्द - 'बच्चे काम पर जा रहे हैं, सुबह-सुबह, हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह, भयानक है, इसे विवरण की तरह लिखा जाना, लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह, काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?.... तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में?... दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजते हुए बच्चे, बहुत छोटे- छोटे बच्चे काम पर जा रहे हैं।' आज विश्व बालश्रम निषेध दिवस है तो जेहन में हजार सवाल उठते-उबलते हैं कि हमारे समय में आबादी के एक बड़े हिस्से के बच्चे आखिर कैसे हालात में जी रहे हैं। उनके अभावों की दुनिया आखिर कितनी खुरदरी, बेगानी और मासूम बचपन के लिए नृशंस और असहनीय। उन्हें इस हालात में क्यों रखना चाहते हैं हमारे समय के भले लोग। जैसे कोई कवि इन बच्चों को बार-बार आगाह कर रहा हो कि 'रुको बच्चों, रुको, सड़क पार करने से पहले रुको, तेज रफ़्तार से जाती इन गाड़ियों को गुज़र जाने दो...क्योंकि इन्हें कहीं पहुँचना है।'
मुख्यधारा के हाशिये पर फेक दिए गए गरीब-वंचित परिवारों के लगभग पांच करोड़ बच्चों में लगभग 19 प्रतिशत घरेलू नौकर हैं, बाकी 80 प्रतिशत असंगठित एवं कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। कैसी जहालत है कि तमाम ऐसे बच्चे भी हैं, उनके मजलूम मां-बाप मामूली पैसों में उन्हें उन ठेकेदारों के हाथ बेच देते हैं, जो उन्हें होटलों, कोठियों, कारखानों में घोर मशक्कत करने के लिए हांक देते हैं और कोई पारिश्रमिक दिए बिना उन बच्चों को पेट-आधा-पेट खाना खिलाकर हाड़तोड़ 18-18 घंटे तक मजदूरी कराई जाती है और उन मासूमों को पीटते हैं।
"वो मासूम पटाखे बनाते हैं। कालीन बुनते हैं। वेल्डिंग करते हैं। ताले और बीड़ी बनाते हैं। खेत-खलिहानों में खटते हैं। कोयले और पत्थर की खदानों से लेकर सीमेंट फैक्ट्रियों तक उनकी गुलामी की दुनिया है। इतना ही नहीं, कूड़ा बीनते हैं। गंदी थैलियाँ चुनते हैं, भट्ठों पर ईंट ढोकर परिवार का पेट पालते हैं। इन्हें न लोरियां नसीब होती हैं, न खिलौने। फिर उनके बालदिवस में शामिल होने या स्कूल जाने की तो बात ही क्या।"
उन बालश्रमिक बच्चे-बच्चियों की जिंदगी में झांकिए तो पता चलता है, कि बेल्डिंग से किसी की आंख चली गई, किसी को टीबी, कैंसर हो गया तो किसी की जिंदगी में यौन शोषण का जहर फैल गया है। उनकी दूर देशों तक तस्करी हो रही है। और फिर उनसे मादक पदार्थों की तस्करी भी कराई जा रही है। नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी भारत में बाल श्रम विधेयक को बच्चों के लिए खोया हुआ अवसर बताते हैं। वह कहते हैं, बालश्रम मानवता के खिलाफ सबसे घृणित अपराध है। कालेधन का सबसे बड़ा स्रोत है। शायद बच्चे वोटर नहीं हैं, इसलिए इनके मुद्दों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। आज तक किसी भी धर्मगुरु ने बालश्रम, बाल तस्करी अथवा बंधुआ मजदूरी पर मुंह नहीं खोला है। उम्मीद थी, नेता अपने वोटों से कहीं ज़्यादा स्वतंत्रता और बचपन को अहमियत देंगे लेकिन हकीकत तो कुछ और ही है।
"रोना नहीं रोना, चुप हो जा मेरे सोना, नींदिया रानी आयेगी, सपनों में दूध पिलाएगी, मम्मी पापा आयेंगे ढेर खिलौने लाएंगे, सो जा मेरे मुन्ना राजा, तेरे पालने में खिलौने जड़ाऊँ...." इस तरह के मीठे शब्द सुनने के लिए आज देश के करोड़ों बाल श्रमिकों के मन तरस जाते हैं। वो क्या जाने खिलौने, गुब्बारे, चॉकलेट, गुड़िया-गुड्डों, झूलों की दुनिया कैसी होती है। वे तो बीड़ी के अधजले टुकड़े जैसी जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हैं। जिस वक्त हमारे देश के नेता-अफसर बाल श्रम निषेध दिवस पर भाषण दे रहे होते हैं, उसी वक्त तमाम बच्चे ट्रैफिक और चौराहों पर भीख मांग रहे होते हैं। इनकी दुनिया खोल में सिमट कर रह गई है, बस काम, काम और काम।