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कभी रेत, ईंट और सीमेंट ढोने वाला मज़दूर अब है 20 कंपनियों का मालिक

पिता बंधुवा मज़दूर थे और माँ तम्बाकू की फैक्ट्री में दिहाड़ी पर करती थीं काम ...भूख से पेट में लगने वाली आग आज भी है उनको याद ...मधुसूदन राव ने मेहनत के बल पर लिखी है कामयाबी की गज़ब कहानी ... 'मैन, मटीरीअल और मनी' के सही इस्तेमाल से बने सफल उद्यमी ...अपनी कंपनियों के ज़रिये हज़ारों लोगों को दे चुके हैं रोज़गार ... गाँवों से गरीबी मिटाने का है लक्ष्य ताकि कोई दूसरा उनकी तरह थपेड़े ना खाये। 

कभी रेत, ईंट और सीमेंट ढोने वाला मज़दूर अब है 20 कंपनियों का मालिक

Monday May 09, 2016 , 19 min Read

बचपन में एक बालक बहुत हैरान-परेशान रहता। उसके माँ-बाप हर दिन 18 घंटे काम करते। दिन-रात मेहनत-मजदूरी करने के बाद भी कई बार माँ-बाप अपने बच्चों को भर-पेट खाना नहीं खिला पाते। माँ-बाप के किसी दिन काम पर न जाने का मतलब होता कि उस दिन सारा परिवार भूखा ही रहेगा। घर में कुल 10 लोग थे। माता-पिता और 8 बच्चे, जिनमें ये बालक भी एक था। 8 भाई-बहनों में इस बालक मधुसूदन का नंबर पाँचवाँ था। आठों भाई-बहन हमेशा फटे-पुराने और दाग़दार कपड़े पहने रहते। नंगे पाँव ही हर जगह जाते। ये बच्चे सपने तो देखते, लेकिन कार, बंगला, शापिंग मॉल के नहीं, बल्कि उनका सपना होता-भरपेट भोजन, पहनने को अच्छे कपडे और पाँव में बार-बार कांटें न चुभें इसलिए चप्पलें मिल जाएँ बस। दूसरों के लिए अच्छे कपड़े,चप्पल ये सब मामूली चीज़ें हो सकती थीं, लेकिन उन 8 बच्चों के लिए ये ऐसी चीज़ें थी, जो उस वक़्त शायद उनके नसीब में ही नहीं लिखी गयीं थीं। 

आलम ये था कि सारा परिवार यानी सभी 10 लोग गाँव में एक छोटी झोपड़ी में रहते। बालक को समझ नहीं आता कि जब गाँव के काफी लोग अच्छे और पक्के मकानों में रहते हैं, उसका परिवार आखिर झोपड़ी में क्यों रहता है? बालक इस बात को लेकर भी हैरान रहता कि उसके माँ-बाप आखिर करते क्या हैं ? वे कहाँ जाते हैं?इस हैरानी की वजह ये थी कि हर दिन सुबह उसकी नींद खुलने से पहले ही उसके माँ-बाप कही चले जाते। वे जब तक लौटकर आते बहुत देर हो गयी होती और बालक थक-हारकर सो जाता। अमूमन हर दिन ऐसे ही होता। बालक कभी-कबार ही अपने माता-पिता को देख पाता। जैसे-जैसे बालक बड़ा होने लगा उसे कई चीज़ें और बातें समझ आने लगीं। उसे इल्म हुआ कि उसका परिवार ग़रीब है और एक बेहद पिछड़ी जाति से है। वो ये बात भी समझ गया कि उसके पिता एक ज़मींदार के पास बंधुआ मज़दूर हैं। दिहाड़ी पर काम करते हैं। उसकी माँ हर दिन तम्बाकू की फैक्ट्री में जाकर काम करती है और उसे भी दिहाड़ी ही मिलती है । घर-परिवार चलाने के लिये बड़ी बहन को भी माँ के साथ काम पर जाने के मजबूर होना पड़ता है।

इस बालक को जब स्कूल भेजा गया, तब उसे ये भी पता चला कि उसके माता-पिता अशिक्षित हैं। एक भाई को छोड़कर दूसरे सारे भाई-बहन भी पढ़ना-लिखना नहीं जानते। बड़ी मुश्किल से माँ-बाप ने अपने दो बच्चों को स्कूल भिजवाना शुरू किया था । घर-परिवार में ग़रीबी कुछ इस तरह से हावी थी कि दिन-भर में बस एक बार खाना खा कर ही बच्चे खुश हो जाते थे। बालक को सबसे चौंकाने वाली बात तो थी कि गांववाले उसके घरवालों के साथ बहुत ही घिनौना व्यवहार करते। घुँटनों के बल पर ज़मीन पर बैठकर, दोनों हाथ फैलाने पर ही कोई इन्हें पीने के लिए पानी देता। गांववालों के तय किये नियमों के मुताबिक इस बालक के परिवार में कोई भी घुटनों के नीचे तक धोती नहीं पहन सकता था। औरतों के जैकेट पहनने पर पाबंदी थी। परिवार वाले जहाँ मर्ज़ी चाहे वजह उठ-बैठ भी नहीं सकते थे। इस बालक और उसके परिवार में से किसी की परछाई पड़ जाने पर गाँव के कुछ लोग उसे अपशकुन मानते और ऐसा होने पर उस शख्स को सजा देते।

ऐसे हालात में जब बालक स्कूल जाकर पढ़ने लगा तो पढ़ते-लिखते उसे अहसास होने लगा कि उसे अपने परिवार को ग़रीबी और बंधुआ मजदूरी से बाहर लाने के लिए इस कदर पढ़ना होगा कि उसे अच्छी नौकरी मिले और वो उसके गाँव से बहुत दूर और वो भी किसी बड़े शहर में।लड़के ने स्कूल में बहुत मेहनत की। जमकर पढ़ाई-लिखाई की। टीचरों ने जैसा कहा वैसे ही किया। पहले दसवीं और फिर बारहवीं की परीक्षा पास की। बारहवीं के बाद एंट्रेंस एग्जाम पास कर पॉलिटेक्निक कॉलेज में दाखिला लिया। डिप्लोमा पूरा किया। वही बालक अब जवान हो चुका था। पढ़ा-लिखा भी था, इस वजह से परिवार की सारी उम्मीदें उसी पर आ टिकीं, लेकिन डिप्लोमा करने के बाद जब नौकरी नहीं मिली तो अपने माँ -बाप की तरह ही मजदूरी की। शहर में वॉचमैन का काम किया। फिर एक दिन बड़ा फैसला लिया। फैसला था उद्यमी और कारोबारी बनने का। सपना पूरा करने के लिए युवक ने खूब मेहनत की। दिन-रात एक किया। लोगों की मान-मनुहार की। दर-दर ठोकरें खाईं, लेकिन हार नहीं मानी। आखिरकार एक दिन गाँव के एक ग़रीब दलित परिवार में जन्मा ये युवक कारोबारी बन गया। उसने साल-दर-साल अपने कारोबार को बढ़ाया। आज यही शख्स 20 कंपनियों का मालिक है। उसने हज़ारों लोगों को रोज़गार का मौका दिया है। उसकी गिनती अब देश के अनोखे और कामयाब उद्यमियों में होने लगी है । वो कईयों का रोल मॉडल बन चुका है। जिस शख्सियत की बातें अभी तक आपने पढ़ी हैं उसका नाम मन्नम् मधुसूदन राव है। मधुसूदन राव एमएमआर ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज़ के संस्थापक और निदेशक है और इन्होंने टेलीकॉम, आईटी, इलेक्ट्रिकल, मैकेनिकल, फ़ूड प्रोसेसिंग जैसे कई क्षेत्रों में अपनी कंपनियां खोली हैं और हर कंपनी अच्छा काम करते हुए मुनाफा कमा रही है।


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7 मई, 2016 को एक बेहद अंतरंग बातचीत के दौरान मधुसूदन राव ने अपनी जीवन की कई सारी महत्वपूर्ण घटनाओं के बार में बताया। अपमान और संघर्ष के बाद कामयाबी की अपनी कहानी के कई दिलचस्प किस्से सुनाए।

मधुसूदन राव का जन्म आँध्रप्रदेश के प्रकाशम जिले में हुआ। तहसील का नाम कन्दुकुरु और गाँव का नाम पलकुरु है। पिता का नाम पेरय्या और माँ का नाम रामुलम्मा है।

तरह-तरह की कठिनाइयों, परेशानियों, अपमान के घूँट, ग़रीबी के थपेड़ों से भरे अपने बचपन की यादें ताज़ा करते हुए मधुसूदन राव ने कहा,"जब मैं छोटा था तब अपने माँ-बाप को देख ही नहीं पाता था। वो दोनों तड़के काम पर चले जाते और रात को घर लौटते थे। वो जब घर पर होते तो मैं सो रहा होता। उन दिनों मुझे माँ-बाप का प्यार नहीं मिला।" उन्होंने बताया, 

"मेरे पिता बंधुवा मज़दूर थे। सालों से वे एक ज़मींदार के पास काम करते आ रहे थे। मुझे बताया गया कि मेरे दादा और परदादा भी ज़मींदारों के यहाँ बंधुवा मज़दूरी ही करते थे। जमींदार के यहाँ उन्हें 18 घंटे काम करना पड़ता। उन दिनों ज़मींदारों के खेतों, उनके जानवरों की देख-भाल, घर की सफाई जैसे काम मेरे पिता जैसे बंधुवा मज़दूर ही किया करते थे। ज़मींदार बस आदेश देते थे। काम सारे मजदूर करते थे। काम पर गए तो पैसा मिलता था वरना नहीं। चूँकि घर में आठ बच्चे थे, इन सब का पेट भरने के लिए माँ को भी मजदूरी के लिए जाना पड़ा। हालात ऐसे ख़राब थे कि बड़ी बहन को छोटी उम्र में ही माँ से साथ जाकर तम्बाकू की फैक्ट्री में मज़दूरी करने पडी। मेरी माँ और बहन 12 किलोमीटर दूर पैदल चलकर तम्बाकू की फैक्ट्री जातीं और घंटों मेहनत करने के बाद वापस पैदल ही घर लौटती थी। इतनी मेहनत करने के बाद भी हमें कई बार भूखा रहना पड़ता था।"

भूख की वजह से पेट की जलन और कमज़ोरी की वजह से शरीर के अलग-अलग हिस्सों में दर्द मधुसूदन राव को अब भी याद है। उनकी ज़िंदगी में बदलाव उस समय आना शुरू हुआ जब उन्हें पढ़ाई-लिखाई के लिए स्कूल भेजा गया। मजबूर और ग़रीब मजदूर माँ-बाप ने फ़ैसला किया था कि वे अपनी 8 संतानों में से दो को ज़रूर स्कूल भेजेंगे। मधुसूदन राव से पहले उनके बड़े भाई माधव को स्कूल भेजा गया। फिर स्कूल के लिए मधुसूदन राव को चुना गया। दोनों भाई - माधव और मधुसूदन सरकारी स्कूल जाने लगे। दोनों ने खूब मन लगाकर पढ़ाई-लिखाई की। मधुसूदन ने हमेशा इम्तेहान में अच्छे नंबर लाये। धीरे-धीरे बदलाव का दौर शुरू हो चुका था।


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मधुसूदन राव ने बताया कि उन दिनों गाँव के पास ही के एक सरकारी सोशल वेलफेयर हॉस्टल के वार्डन लक्ष्मी नरसय्या की वजह से उनकी ज़िंदगी में एक नया मोड़ आया। लक्ष्मी नरसय्या ने मधुसूदन के पिता को एक बात के लिए मना लिया कि मधुसूदन का दाखिला हॉस्टल में कर दिया जाय। चूँकि हॉस्टल में मुफ्त में रहने, खाने-पीने की सुविधा थी सो पिता मान गए। बड़े भाई माधव की तरह ही मधुसूदन का दाखिला भी हॉस्टल में हो गया। 

हॉस्टल के दिनों की बातें सुनाते हुए मधुसूदन बोले,

"हॉस्टल में मेरे लिए सब कुछ अच्छा था। दिन में तीन बार भरपेट भोजन मिलता था। भोजन ख़राब होता था, लेकिन मैं किसी तरह खा लेता। भोजन के सिवाय कोई शिकायत नहीं रही। हॉस्टल ने वार्डन लक्ष्मी नरसय्या और एक टीचर जे.के. ने मेरी बहुत मदद की। वे हमेशा हौसलाअफजाई करते। अव्वल नंबरों से पास होने के लिए लगातार प्रोत्साहित करते। मैंने कभी भी उन्हें निराश नहीं किया। मैं हमेशा क्लास में टॉप 5 में एक होता। कभी सेकेंड रैंक तो कभी थर्ड। "

सोशल वेलफेयर हॉस्टल से ही मधुसूदन ने 12वीं की परीक्षा पास कर ली। बड़े भाई माधव ने बीटेक का कोर्स चुना था। मधुसूदन भी बीटेक ही करना चाहते थे। लेकिन, भाई और कुछ दूसरे लोगों ने पॉलिटेक्निक करने की सलाह दी थी। इस सलाह के पीछे भी एक ख़ास वजह थी। उन दिनों लोगों की ये धारणा थी कि किसी और कोर्स से मिले न मिले, पॉलिटेक्निक कोर्स करने पर नौकरी ज़रूर मिलेगी। मधुसूदन को भी भाई की सलाह और दलील पर यकीन हो गया। उन्होंने फिर एंट्रेंस लिखा और क्वालीफाई कर तिरुपति के श्री वेंकटेश्वरा विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। मधुसूदन ने 2 साल तिरुपति और एक साल ओंगोल में पढ़ाई कर पॉलिटेक्निक डिप्लोमा हासिल कर लिया।

जैसे ही मधुसूदन को डिप्लोमा का सर्टिफिकेट मिल गया, घर-परिवार वालों की उम्मीदें बढ़ गयीं। माता-पिता,भाई-बहनों को लगा कि अब मधुसूदन को अच्छी नौकरी मिल जाएगी और उसकी आमदनी से घर की ग़रीबी हमेशा के लिए दूर चली जाएगी।


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मधुसूदन पर जल्द से जल्द नौकरी हासिल करने और तनख्वा परिवार को देने का दबाव बढ़ गया। नौकरी के लिए मधुसूदन ने कई जगह अर्ज़ियाँ दी। दर-दर जाकर नौकरी माँगी और कई जगह नौकरी की तलाश की। कई कोशिशों के बाद भी मधुसूदन को नौकरी नहीं मिली। वे फिर से उदास और ग़मगीन हो गए। माता-पिता,भाई-बहनों की उम्मीदें भी दम तोड़ने लगी थीं। 

ये पूछे जाने पर कि पॉलिटेक्निक के बाद भी उन्हें नौकरी क्यों नहीं मिली, मधुसूदन ने कहा," मैं जहाँ कहीं भी जाता लोग रेफ़रन्स पूछते। मेरे पास कोई रेफ़रन्स नहीं था। ग्रामीण इलाके से होने की वजह से भी मुझे कई बार रिजेक्ट कर दिया गया था। कई बार तो मुझे इस वजह से नौकरी नहीं दी गयी क्योंकि मेरे परिवार में ज्यादातर लोग अशिक्षित थे। "

जीवन के सबसे कठोर दिनों में उन दिनों को शुमार करते हुए मधुसूदन ने कहा,

"मैं चुप नहीं बैठ सकता था। मेरी पढ़ाई के लिए सभी ने बहुत तकलीफें झेलीं थी। त्याग किये थे। माँ-बाप,भाई-बहन सबको यही लगता था कि डिग्री हासिलकर मैं नौकरी करूँगा। रुपये कमाऊँगा। मुझ पर ही आकर उनकी उम्मीदें टिकी थीं। मैं उन्हें निराश भी नहीं कर सकता था। ऐसी हालत में मैंने कुछ भी करके रुपये कमाने का फैसला लिया। "

मधुसूदन का फैसला था कि वो अपने दूसरे भाई-बहनों की तरह ही मजदूरी करेंगे । उनका एक भाई हैदराबाद में मिस्री का काम करता था। मधुसूदन ने अपनी भाई के यहाँ ही मजदूरी करनी शुरू दी। भवनों और बंगलों के निर्माण के लिए मिट्टी और पत्थर ढोए। दीवारों पर पानी डाला। हर वो काम किया, जो निर्माणकर्मी करते हैं।

चूँकि मजदूरी ज्यादा नहीं मिलती थी, मधुसूदन ने दूसरे काम भी ढूंढने शुरू कर दिए। मधुसूदन ने बताया, "दिन में मजदूरी करने पर मुझे पचास रुपये मिलते थे। जब मुझे पता चला कि रात में काम करने पर एक सौ बीस रुपये मिलते हैं, तब मैंने रात में भी काम करना शुरू कर दिया। मैंने वॉचमैन की तरह भी काम किया। अलग-अलग जगह मजदूरी की और वॉचमैन बना। "

इरादे नेक थे और ईमानदारी से पूरी ताकत लगाकर काम करते थे इसी वजह से शायद ज़िंदगी ने उन्हें एक और बढ़िया मौका दिया।

जीवन के एक अनछुए पहलू और अभी तक अनकही बड़ी महत्वपूर्ण घटना की जानकारी देते हुए मधुसूदन ने कहा, " एक दिन मैं टेलीफोन का एक खम्भा गाढ़ने के लिए खुदाई कर रहा था। एक इंजीनियर मेरी तरफ आया और उसने पूछा क्या तुम पढ़े लिखे हो। मैंने जवाब में कहा - हाँ, मैंने पॉलिटेक्निक किया हुआ है। इस जवाब के बाद उस इंजीनियर ने कहा कि तुम्हारे काम करने के तरीक़े को देखकर ही मैं समझ गया था कि तुम पढ़े-लिखे हो। कोई दूसरा मजदूर होता तो इस तरह सलीके से नाप लेकर खुदाई नहीं करता। मैंने सिर्फ तुम्हें ही देखा है, जिसने नाप लिया और साइंटिफिक तरीके से खुदाई की ।"

तारीफ करने के बाद उस इंजीनियर ने मधुसूदन से पूछा, " नौकरी करोगे?"

ये सवाल सुनते ही मधुसूदन खुशी से बेकाबू हो गए। मधुसूदन उस इंजीनियर से गिड़गिड़ाने लगे। कहने लगे,"मुझे नौकरी की सख्त ज़रुरत है। मेरा परिवार मुझसे उम्मीदें लगाए बैठा है। मैं बस नौकरी के इंतज़ार में हूँ।"

मधुसूदन की मान-मनुहार का फायदा उन्हें मिला। वो इंजीनियर उन्हें अपने दफ्तर ले गया। मधुसूदन का इंटरव्यू शुरू हुआ। एक तरफ इंटरव्यू जहाँ चल रहा था, वहीं दूसरी तरफ एक बड़े ठेकेदार और उपठेकेदार के बीच एक ठेके को लेकर बहस चल रही थी। उपठेकेदार ज्यादा रकम मांग रहा था। ये देखकर मधुसूदन ने बड़े ठेकेदार से वो ठेका उन्हें दे देने की गुज़ारिश की। मधुसूदन ने बड़े ठेकेदार को भरोसा दिलाया कि वो मजदूरों से काम लेने के मामले में एक्सपर्ट है और उसका सार परिवार ठेके और मजदूरी का ही काम करता है। पहले तो उस बड़े ठेकेदार ने मधुसूदन से अपने इंटरव्यू पर ध्यान देने को कहा, लेकिन जब उस उपठेकेदार से उसकी बात नहीं बनी तब उसने मधुसूदन को वो ठेका दे दिया।

ठेका तो मिल गया, लेकिन मधुसूदन के पास मजदूरों को एडवांस देकर उन्हें जुटाने और काम शुरू करवाने के लिए ज़रूरी पांच हज़ार रुपये भी नहीं थे। मधुसूदन ने अपने भाई-बहनों से मदद माँगी। उस मदद को बेशकीमती और उनकी ज़िंदगी में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाला बताते हुए मधुसूदन से कहा," मेरी एक बहन ने मुझे नौ सौ रुपये दिए। यही रकम लेकर मैं मजदूरों के पास गया और उन्हें मेरे लिए काम करने को मनाया। नौ सौ रुपयों से काम शुरू हो गया। मुझे पहले ही दिन बीस हज़ार रुपये की आमदनी हुई। मेरे दिन बदल गए। "

इसके बाद मधुसूदन ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। काम से खुश होकर बड़े ठेकेदार ने मधुसूदन को एक लाख रुपये अड्वान्स भी दिए। फिर आगे उन्हें एक के बाद एक नए ठेके मिलते गए। जब उनके हाथ में एक लाख रुपये आ गए तो उन्होंने अपने गाँव की ओर रुख किया।

गाँव लौटने की उस घटना की यादें ताज़ा करते हुए मधुसूदन ने कहा, 

"नौकरी नहीं थी। रुपये नहीं थे। क्या मुँह लेकर मैं गाँव जाता। शर्म के मारे मैं दो साल तक गाँव नहीं गया था। जब मेरे पास एक लाख रुपये आ गए तब मैंने गाँव वापस जाने का फैसला लिया। इससे पहले मैंने कभी भी एक लाख रुपये नहीं देखे थे। मैं बहुत खुश था। जब मैं गाँव गया और माँ-बाप को एक लाख रुपये दिए तो वो हैरान रह गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। सभी ने आश्चर्य से पूछा - आखिर इतना पैसा आया कहाँ से ? तूने क्या किया ? कहाँ से लाया इतना सारा पैसा ?"


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ये रकम मधुसूदन के घरवालों के लिए काफी काम आयी। इसी रकम की वजह से उनकी एक बहन की शादी हो पायी। बहन की शादी कराने के बाद जब वे दुबारा हैदराबाद लौटे तब फिर मन लगाकर काम करने में जुट गए। ठेके मिलते चले गए, कमाई बढ़ती चली गयी।

अब सब कुछ बदलने लगा था। गरीबी दूर हो गयी थी। लगातार तरक्की हो रही थी। लेकिन, इसी बीच एक ऐसी घटना हुई जिससे मधुसूदन फिर खाली हाथ हो गए। इस घटना ने उन्हें पूरी तरह से हिलाकर रख दिया। सारी कमाई एक झटके में चली गयी।

उस घटना का उल्लेख करते हुए मधुसूदन ने कहा, "मैंने जिन लोगों पर भरोसा किया था उन्हीं लोगों ने मुझे धोखा दिया। मुझसे विश्वासघात किया। पीठ में छुरा भोंपा। मैंने कुछ साथियों के कहने पर उनके साथ मिलकर एक कंपनी शुरू की थी। कंपनी ने काम भी अच्छा ही किया, लेकिन मेरे साथियों ने ऐसा धोखा दिया कि मेरी सारी कमाई ख़त्म हो गयी। "

मधुसूदन ने साथियों के विश्वासघात की इस घटना की ज्यादा जानकारी नहीं दी लेकिन ये ज़रूर कहा कि ये भी उनके जीवन का एक बड़ा सबक था। उन्होंने कहा, "अच्छा ही हुआ जो ये घटना हुई। इस घटना ने मुझे और भी समझदार बनाया और इसके बाद ही मैं बहुत ही तेज़ी से आगे बढ़ा। "

इस विश्वासघात की मार मधुसूदन पर कुछ इस तरह से पडी थी कि उन्होंने ठेके और कारोबार का काम छोड़कर नौकरी करने में ही अपनी भलाई समझी। मधुसुधन ने एक इंजीनियरिंग संस्था में नौकरी करनी शुरू कर दी। यहीं नौकरी करते समय मधुसदन ने शादी भी कर ली।

दिलचस्प बात ये है कि मधुसूदन की पत्नी पद्मलता और उनकी बहनों को ये बात मालूम थी कि मधुसूदन के साथ कारोबार में धोखा किया गया है। इसी वजह से पत्नी ने मधुसूदन के सामने ये शर्त रखी कि वे फिर कभी कारोबार नहीं करेंगे और सिर्फ नौकरी ही करेंगे। मधुसूदन शर्त मान गए, लेकिन उनका मन कारोबार की तरफ ही खींचा चला जा रहा था। उन्हें लगता था कि उनमें एक कामयाब उद्यमी बनने के सारे गुण हैं और ये गुण नौकरी करने में बेकार जा रहे हैं।

मधुसूदन ने पत्नी को बताये बगैर एक कंपनी शुरू कर दी। कंपनी को ठेके मिलने लगे और काम चल पड़ा। इसी बीच एक दिन पत्नी ने घर पर आयी एक चिट्टी पढ़ ली ,जिससे उन्हें पता चल गया कि मधुसूदन फिर से कारोबार करने लगे हैं। नाखुश और नाराज़ पत्नी ने मधुसूदन से कई सारे सवाल किये। अपना गुस्सा ज़ाहिर किया। कारोबार बंद कर नौकरी पर ध्यान देने को कहा लेकिन, मधुसूदन ने अपनी पत्नी को ये कहकर समझाया, "मेरी तनख्वाह 21 हज़ार रुपये है। तुम्हारी तनख्वा भी करीब 15 हज़ार रुपये है. और घर में हर महीना 30 से 32 हज़ार रुपये ही आते हैं। तुम मुझे कारोबार करने की छूट दो तो मैं तुम्हें हर महीने कम से कम तीन लाख रुपये दूंगा। यानी पूरे साल में हम दोनों की तनख्वा का कुल जमा मैं तुम्हें सिर्फ एक महीने में दूंगा। फिर क्या था मेरी बात मान ली गयीं। "

अपनी पत्नी की तारीफ़ में मधुसूदन ने कहा," हर बार मुझे मेरी पत्नी से मदद मिली। उनका साथ मेरे लिए बहुत ही फायदेमंद और खुशहाली भरा रहा है। वो मेरी ताकत हैं। "


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इसके बाद मधुसूदन ने अपनी कामयाबी की कहानी को जिस तरह से आगे बढ़ाया और विस्तार दिया वो एक अद्भुत मिसाल है। मधुसूदन ने एक के बाद एक करते हुए अब 20 कंपनियों की स्थापना की। आईटी से लेकर फ़ूड प्रोसेसिंग तक अब उनकी कंपनियों की धाक है। मधुसूदन राव अपनी कामयाबी की वजह से अब भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों में प्रसिद्ध हो गए हैं। वे दलित इंडियन चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स की आँध्रप्रदेश शाखा के अध्यक्ष भी हैं।

ये पूछे जाने पर कि वे बीस कंपनियों को अकेले ही कैसे सम्भाल रहें हैं , मधुसूदन ने कहा, " मैं अकेला थोड़े ही हूँ। मेरा पूरा परिवार मेरे साथ है। मेरे भाई मेरी मदद करते हैं। परिवार के दूसरे सदस्य भी कंपनी का काम करते हैं। वे सभी अलग-अलग ज़िम्मेदारी सम्भाले हुए हैं। मैंने हर वर्टिकल में एक्सपर्ट्स को हेड बनाया है। सभी अपना- अपना काम बखूबी कर रहे हैं। मैं हर दिन हर कम्पनी के हेड से बात करता हूँ। मेरी कोशिश मौकों की तलाश में रहती है। जहाँ मौका है उसका फायदा उठाने की पूरी कोशिश करता हूँ। मेरे लिए टाइम मैनेजमेंट कोई बड़ी बात नहीं है। "

मधुसूदन ने आगे कहा , 

"मेरे माता-पिता ही मेरी प्रेरणा हैं। मैंने उन्हें हर दिन 18 घंटे काम करते देखा हैं। मैं भी उन्हीं की तरह हर दिन 18 घंटे काम करता हूँ। मेरी कंपनियों में काम करने वाले सभी कर्मचारी भी मन लगाकर काम करते हैं। कोई ये नहीं कहता कि मैं बस इतने घंटे ही काम करूँगा। सब लक्ष्य पूरा होने तक आराम नहीं करते"

अपने माता-पिता को ही अपना आदर्श और प्रेरणा का स्त्रोत बताते हुए मधुसूदन राव ने कहा," मैं जब तक जिन्दा हूँ मेरे माता-पिता ही मेरे लिए आदर्श रहेंगे। मैं जब कभी किसी समस्या से घिर जाता हूँ तो माता-पिता को ही याद करता हूँ। मुझे अहसास होता है कि मेरी समस्या मेरे माता-पिता की समस्याओं से बड़ी हो ही नहीं सकती । उन्होंने जो तकलीफें झेलीं है, उनकी तुलना में मेरी तकलीफें कुछ भी नहीं हैं। "

उनकी कामयाबी के मन्त्र के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में मधुसूदन ने कहा, 

"मैन, मटीरीअल और मनी (आदमी, सामान और मुद्रा ) ...ये तीन आपके पास हैं और आप इनका सही इस्तेमाल कर रहे हैं तो आपको कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता। मैंने इन तीनों के मैनेजमेंट में पूरा ध्यान दिया और इसी वजह से कामयाब रहा।"

जब मधुसूदन से ये पूछा गया कि इतनी कामयाबियों के बाद अब उनका सबसे बड़ा सपना और मुख्य लक्ष्य क्या है?

मधुसूदन ने कहा, " अगले पांच-छह सालों में मैं ग्रामीण-इलाकों के युवाओं को ऐसी ट्रेनिंग देना चाहता हूँ, जिससे उन्हें नौकरी हासिल करने, उद्यमी बनने में आसानी हो। ग्रामीण इलाके से आने की वजह से मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि गाँव के युवाओं और विद्यार्थियों की क्या समस्या है। ग्रामीण इलाकों के युवा कम्युनिकेशन में काफी कमज़ोर हैं। उनमें कौशल विकास की ज़रुरत है। मैंने ठान ली है कि मैं अगले 5 सालों में ग्रामीण इलाकों से आने वाले कम से कम पांच हज़ार युवाओं को या तो उद्यमी बनाउँगा या फिर उन्हें अच्छी नौकरी पाने के काबिल बनाऊंगा। "

विश्वास से लबालब मधुसूदन राव ने आगे कहा, 

"मैं नहीं चाहता की अगली पीढ़ी भी मेरी तरह ही कष्ट झेले। मैं चाहता हूँ कि गाँवों से ग़रीबी हमेशा के लिए दूर हो। मैं जानता हूँ कि परिवार में अगर एक भी आदमी नौकरी पर लग जाये तो पूरा परिवार खुशहाल हो जाता है। मेरे परिवार में भी ऐसे ही हुआ। मैं कुछ बन गया तो मेरे परिवार के सभी लोग संपन्न हो गए । हम सब झोपड़ी में रहते थे। आज हम सबसे पास पक्के मकान हैं। मेरे परिवार में इस समय 65 लोग हैं और सभी काम पर लगे हुए हैं। मैं यही चाहता हूँ कि सभी युवाओं को रोज़गार मिले। कोई भी ग़रीब न रहे।"


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