गरीब दिव्यांगों को कृत्रिम अंग बांटने के लिए स्कूली बच्चों ने जुटाए 40 लाख रुपये
गरीब दिव्यांगों को मुफ्त में कृत्रिम अंग यानी आर्टिफीशियल लिंब प्रदान करने के लिए मुंबई के प्रतिष्ठित बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल ने 'बैक ऑन देयर फीट' नाम का एक अभियान शुरू किया है। जिसके तहत स्कूल के बच्चों ने 40 लाख रुपये जुटा लिए हैं।
"मेरे लिए यह सोचना काफी मुश्किल था कि कृत्रिम अंग के बिना दिव्यांग लोगों की जिंदगी कैसे बसर होती है। फिर हमने क्राउडफंडिंग के जरिए ऐसे लोगों की मदद करने के बारे में सोचा: 14 वर्षीय मालविका"
दुनिया की दस फीसदी आबादी किसी न किसी तरह की दिव्यांगता से प्रभावित है। चौंकाने वाली बात ये है कि भारत में दुनियाभर के दिव्यांगों की 15 प्रतिशत आबादी रहती है। जहां भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक देश के 2.68 करोड़ लोग दिव्यांग हैं, वहीं वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 8 करोड़ लोग दिव्यांग हैं। सबसे गंभीर बात तो ये है कि भारत में दिव्यांगों की सबसे ज्यादा यानी 80 फीसदी आबादी गांवों में रहती है और इस वजह से उनकी जिंदगी और भी ज्यादा मुश्किलों में गुजरती है। दिव्यांगों की जिंदगी आसान बनाने वाले कई सारे उपकरण विकसित कर लिए गए हैं, लेकिन ये उत्पाद इतने महंगे होते हैं कि निर्धन लोग इन्हें खरीदने के बारे में सोचते तक नहीं।
इस स्थिति को बदलने और गरीब दिव्यांगों को मुफ्त में कृत्रिम अंग यानी आर्टिफीशियल लिंब प्रदान करने के लिए मुंबई के प्रतिष्ठित बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल ने 'बैक ऑन देयर फीट' नाम का एक अभियान शुरू किया है। जिसके तहत स्कूल के बच्चों ने 40 लाख रुपये जुटा लिए हैं। इन पैसों से महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित इलाके विदर्भ में दिव्यांगों को कृत्रिम अंग प्रदान किए जाएंगे। पैसे इकट्ठे करने के लिए एनजीओ फ्रीडम ट्रस्ट की मदद से 9वीं से लेकर 12वीं क्लास तक के करीब 165 बच्चों ने यह अभियान शुरू किया और सिर्फ सात दिनों के भीतर 42 लाख रुपये के करीब जुटा लिए।
9वीं कक्षा की स्टूडेंट मालविका ने 20,000 रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा था लेकिन उसने अब तक 45 हजार रुपये जुटा लिए हैं। वह इस अभियान के बारे में बताते हुए कहती हैं, 'ये जो पैसे मैं अपने दोस्तों और साथियों के साथ मिलकर जुटा रही हूं, इसके माध्यम से हम उन लोगों को कृत्रिम पैर दिलाएंगे जो दुर्घटना, बीमारी या किसी अन्य वजह से अपने पैर गंवा चुके हैं। हमने विदर्भ वर्धा, यवतमाल और चंदरपुर जैसे जिलों में इन अंगों को बांटने का फैसला लिया है।'
14 वर्षीय मालविका कहती हैं, 'इन अंगों के माध्यम से वे फिर से अपने पैरों के सहारे चल सकेंगे। इससे उनकी जिंदगी में कुछ बदलाव आएगा।' एक प्रॉस्थेटिक पैर की कीमत लगभग 10,000 रुपये होती है। इसमें कैंप और फिटिंग करने की लागत भी जुड़ी है। मालविका ने कहा, 'हमारे स्कूल में एक प्रोग्राम था जहां हम फ्रीडम ट्रस्ट के लोगों से मिले। उन्होंने हमें क्राउडफंडिंग के बारे में बताया जिसके जरिए किसी अच्छे काम के लिए पैसे जुटाए जा सकते हैं। फिर हमें उन्होंने अपने 'वॉक अगेन' प्रोग्राम के बारे में बताया। मेरे लिए यह सोचना काफी मुश्किल था कि कृत्रिम अंग के बिना दिव्यांग लोगों की जिंदगी कैसे बसर होती है। फिर हमने सोचा कि क्राउडफंडिंग के जरिए ऐसे लोगों की मदद करने के बारे में सोचा।'
ये पैर विदर्भ में गरीबी से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में वितरित किए जाएंगे। मालविका ने कहा, 'दूसरों की मदद करने में मुझे काफी खुशी महसूस होती है। हम आज तक विदर्भ क्षेत्र को भयंकर सूखे की वजह से जानते आए हैं। लेकिन अब हम खुद वहां कुछ अच्छा करने वाले हैं। इस अभियान से वहां के दिव्यांगों को फायदा होगा। इसकी मदद से कई लोग काम करने के काबिल बन सकेंगे।'
इस अभियान के पीछे फ्रीडम ट्रस्ट और फ्यूल अ ड्रीम नाम की संस्थाओं का भी हाथ रहा। क्राउडफंडिंग प्लेटफॉर्म 'फ्यूलअड्रीम' फाउंडर रंगनाथ ने टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए कहा कि क्राउडफंडिंग से कहानी बेहतर बताई जा सकती है और सोशल मीडिया से इसका असर बेहतर होता है। 1.47 लाख रुपए इकट्ठे कर लेने वाली 16 वर्षीय मरयम मोजयां बताती हैं कि उन्होंने यह काम इसलिए किया क्योंकि इससे उन्हें खुशी मिलती है। अभियान को कोऑर्डेनिट करने वाली NGO फ्रीडम के डॉ सुब्रमण्यम युवा बच्चों की इस मुहिम से बेहद खुश हैं। वह कहते हैं कि इस मदद का असर बच्चों की सोच से कहीं ज्यादा होगा। उन्होंने बताया कि उनके कैंप्स में आने वाले लोग अब अपने पैरों पर चलकर वापस जाया करेंगे।
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