एक दुर्लभ पांडुलिपि का अंतर्ध्यान
एक दुर्लभ पांडुलिपी की दास्तां, जो प्रकाशित होने से रह गई...
उस पांडुलिपि में हिंदी के अनेकशः प्रसिद्ध कवि-साहित्यकारों (प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, महाप्राण निराला, नंददुलारे वाजपेयी, सुमित्रानंदन पंत आदि) के जयशंकर प्रसाद से हुए पत्राचार की मूल प्रतियां थीं। उन्हीं में एक ऐसा लंबा पत्र उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का था, जो उन्होंने बंबई (मुंबई) की फिल्मी कोलाहल में अपनी किस्मत आजमाने के बाद लौटकर बड़े दुखी मन से सविस्तार जयशंकर प्रसाद को लिखा था। काश, वह पांडुलिपि प्रकाशित होकर हिंदी पाठकों तक पहुंच सकी होती। जाने वह कहां अंतर्ध्यान हो गई...!
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कभी-कभी कोई-कोई पश्चाताप जीवन भर पीछा करता रहता है। एक ऐसा ही वाकया मेरे भी अतीत का हिस्सा रहा है। दरअसल, एक दिन एक अभिन्न मित्र 'पिंक' को सराहते हुए मुझे भी सिनेमाहाल खींच ले गए। लौटते समय आगरा का 'वह वाकया' स्मृतियों में घुमड़ने लगा। साहित्य और सिनेमा पर दिमाग दौड़ते-दौड़ते पहुंच गया मुंशी प्रेमचंद से जुड़े एक पांडुलिपि प्रकरण पर...
"उन दिनो मैं 'आज' अखबार आगरा में कार्यरत था। वहां के कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी पीठ में एक प्रोफेसर थे त्रिवेदीजी। उनके आकस्मिक देहावसान के बाद उनके चार बच्चों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया। उम्र में सबसे बड़ी बेटी थी। मृत्यु के बाद नेपाल में कार्यरत रहे एक प्रोफेसर की निगाह त्रिवेदीजी के अथाह संग्रहालय पर जा टिकी। वह त्रिवेदीजी की बेटी से संग्रहालय की समस्त पुस्तकें, पांडुलिपियां आदि खरीद ले जाना चाहते थे। संग्रहालय में दुर्लभ पांडुलिपियां थीं।
एक व्यक्ति त्रिवेदीजी के बेटे को नौकरी लगवाने के लिए 'आज' अखबार के कार्यालय ले आया। उसे प्रशिक्षित करने के लिए मेरे हवाले कर दिया गया। उसने एक दिन बताया कि उसकी बहन पापा की सारी किताबें बेचने वाली है। फिर पूरा वाकया विस्तार से पता चला। अगले दिन मैं उसके घर गया। उस घरेलू संग्रहालय में एक दुर्लभ पांडुलिपि मिली। त्रिवेदीजी की बेटी ने बताया कि पापा को इसे कविवर जयशंकर प्रसाद ने टाइप करवाकर प्रकाशित कराने के लिए दिया था। आग्रहकर वह पांडुलिपि मैं इस उद्देश्य से ले आया कि अगर कहीं नेपाल वाले प्रोफेसर इसे ले गये तो इस दुर्लभ सामग्री का जाने क्या हाल हो। मैंने वह पांडुलिपि आगरा विश्वविद्यालय के एक मित्र प्रोफेसर को देखने के लिए दी और उन्होंने उसे कुलपति को दिखाने के बहाने लापता कर दिया।
लंबे समय तक लौटाने का आग्रह करता रहा, पर मिली नहीं। अब तो वह प्रोफेसर भी इस दुनिया में नहीं रहे। उस पांडुलिपि में हिंदी के अनेकशः शीर्ष साहित्यकारों (प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, निरालाजी, नंददुलारे वाजपेयी, पंत आदि) के जयशंकर प्रसाद से हुए पत्राचार की मूल प्रतियां थीं। उसी में एक लंबा पत्र उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का था, जो उन्होंने बंबई (मुंबई) की फिल्मी दुनिया से लौटने के बाद जयशंकर प्रसाद को सविस्तार लिखा था।
काश, वह पांडुलिपि प्रकाशित होकर हिंदी पाठकों को पहुंच सकी होती। उसके गुम हो जाने का वह दुख आज तक टीसता रहता है। पूरा संग्रह शोधार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी था, जो प्रकाशित होने से रह गया।"