#AcidAttack: शरीर ही तो झुलसा, रूह में जान अभी बाकी
नूर पर ज्वालामुखी: 3
"एसिड अटैक पर सरकार ने कानून बना दिए हैं लेकिन बाजार में कोई भी आसानी से तेज़ाब हासिल कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश भी अपराधियों के लिए कोई मायने नहीं रखते। ऐसे में आज सख्ती से इस दिशा में पहल की जरूरत है। तेजाब पीड़ित महिलाएं स्वयं भी सांगठिनक स्तर पर एकजुट हो रही हैं।"
पूरी दुनिया में लड़कियों और औरतों पर एसिड अटैक जैसी भयानकतम वारदातों के साथ एक गंभीर प्रश्न कानून व्यवस्था के साथ बाजार का भी जुड़ा हुआ है। किसी भी पीड़ित के मन में ये सवाल पैदा होना लाज़िमी है कि क्या तेज़ाब जैसी संवेदनशील वस्तु की बिक्री और उपलब्धता बाजार में अन्य सामानों की तरह होनी चाहिए? इसका जवाब और व्यवस्था से जुड़े प्रश्नों की अनदेखी और बाजार में आसानी से तेज़ाब की उपलब्धता भी ऐसी घटनाओं के रोकथाम में सबसे पहले आड़े आ रही है। आइए पहले, रूह कंपा देनी वाले ऐसे जघन्यतम कृत्य पर कवयित्री इंदु रिंकी वर्मा की कुछ पंक्तियों से गुजरते हैं।
वह लिखती हैं- 'शरीर ही तो झुलसा है, रूह में जान अब भी बाकी है, हिम्मत से लड़ूंगी ज़िन्दगी की लड़ाई, आत्मसम्मान मेरा अब भी बाकी है, मिटाई है लाली होठों की मेरी, पर होठों की मुस्कान अब भी बाकी है, काली हूं मैं, मैं दुर्गा भी हूं, हौसलों में उड़ान अब भी बाकी है, बदसूरत बनाया मुझको तो तूने, बदसीरत है तू ये बात भी सांची है, जलेगा सवालों से पल पल तू मेरे, हर सवाल में तेज़ाब अब भी बाकी है।' यह रचना तेज़ाब पीड़ित लड़कियों का दुख-दर्द शिद्दत से महसूस करा जाती है।
सरकार ने नियम कानून तो बना दिए हैं कि एसिड खरीदने वालों को अब पहचान पत्र दिखाना होता है, एसिड बेचने वाले दुकानदार उनका नाम पता दर्ज करते हैं, यह सब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद शुरू हुआ है. लेकिन अटैक का सिलसिला थमा नहीं है। वैसे हमारे देश में एसिड हमलों को रोकने के लिए स्टॉप एसिड अटैक अभियान चलता रहा है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट आदेश दे चुका है कि सरकार एसिड कारोबार को नियमों में बांधे। मगर लोग हैं कि, इसका इस्तेमाल घर की नालियों और शौचालयों की सफाई में कर रहे हैं। इसके अलावा औद्योगिक प्रतिष्ठानों में इसे इस्तेमाल किया जा रहा है।
रंगाई, कांच, बैटरी बनाने और इसी तरह के दूसरे कई उद्योगों में इसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। ऐसे में अगर एसिड काउंटर से न बेचा जाए तो भी ऐसे बहुत सारे रास्ते खुले हए हैं, जहां से एसिड आम लोगों तक आसानी से पहुंच जा रहा है। और शहरों की तो बात छोड़िए, देश की राजधानी दिल्ली में भी बिना नियम कानून के एसिड बिक रहा है। तेजाब बेचने वाले के पास केवल तेजाब खरीदने वाले व्यक्ति, फर्म या फैक्ट्री संचालक का रिकॉर्ड होता है लेकिन तेजाब खरीदने के बाद उसका इस्तेमाल किस काम के लिए हुआ और उस काम पर कितना तेजाब खर्च हुआ, इसका न तो कोई रिकॉर्ड होता है, न ही ऐसा रिकॉर्ड मेनटेन करने के कोई नियम है।
ऐसे में सवाल उठता है कि कोर्ट के निर्देश भी कितने कारगर, कितने काम के रहे हैं? वर्ष 2005 की बात है, तेज़ाब पीड़ित लक्ष्मी की तरफ से दायर याचिका पर कोर्ट ने दिशा निर्देश जारी किए थे। इतना ही नहीं, इसके बाद वर्ष 2012 में एसिड हमले को भारत की दंड संहिता में अलग से दर्ज कर दिया गया। पीड़ित महिलाओं का कहना है कि सरकार की इसमें दिलचस्पी नहीं है। वह इस तरह के मुद्दों के प्रति उतनी संवेदनशील नहीं है। बांग्लादेश की सरकार ने खुद ही पहल कर एसिड की बिक्री के नियम कानून बनाए हैं।
उन्हें सुप्रीम कोर्ट के दखल की जरूरत नहीं पड़ी लेकिन भारत में ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि कोर्ट ने दखल देकर सरकार को बुलाया एक बार नहीं तीन बार। एक पीड़िता ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने तीन लाख रुपये की रकम मुआवजे के तौर पर रखी है, जो बहुत छोटी रकम है। डॉक्टरों के मुताबिक सर्जरी के लिए 35 से 40 लाख रुपए की जरूरत होती है। सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर महिलाएं मांग कर रही हैं कि उनके मामले फास्ट ट्रैक कोर्ट में निपटाए जाएं। वे पुनर्वास के साथ ही सरकारी नौकरी भी चाहती हैं। पूरी तरह से विकलांगता या आंखों की रोशनी चले जाने पर वह पेंशन चाहती हैं।
उनका खास जोर लोगों की सोच बदलने पर भी है। इसे नुक्कड़ नाटकों, सोशल मीडिया, रैलियों के माध्यम से सार्थक किया जा सकता है। साथ ही, एसिड हमले की शिकार महिलाएं भी यह महसूस करें कि अभी जिंदगी में बहुत कुछ बचा हुआ है। एसिड हमले में बची लड़कियों की साहस और सामाजिक उपहास से उपजी कहानियों की दिल्ली में कुछ वक्त पहले प्रदर्शनी लगाई गई थी। इसके अलावा 'प्रिया की शक्ति' नाम की कॉमिक बुक से भी सामाजिक सरोकारों को जगाया जा रहा है।
एक दशक से अधिक का समय हो गया, वाराणसी की प्रज्ञा सिंह को शादी के डेढ़ हफ्ते बाद तेज़ाब से नहला दिया गया था। घटना के समय वह वाराणसी से दिल्ली जा रही थीं। आज वह तेजाब पीड़ित लड़कियों के लिए उम्मीद की किरण बन चुकी हैं। अब तक वह ऐसी सैकड़ों महिलाओं की मदद कर चुकी हैं। उनमें से लगभग तीन सौ तेजाब पीड़ितों की वह मुफ्त में सर्जरी करवाने के साथ ही उनको कानूनी और आर्थिक मदद करवा चुकी हैं।
प्रज्ञा बताती हैं- 'शादी के 12 दिन बाद जब उन पर एसिड अटैक हुआ, वह तेईस साल की थीं। ट्रेन में सो रही थीं, तभी उनके पूर्व प्रेमी ने प्रतिशोध में उनके चेहरे और शरीर पर तेजाब फेंक दिया। वह कई सप्ताह तक गहन चिकित्सा कक्ष में पड़ी रहीं। आज वह बेंगलुरू में अपने पति और दो बेटियों के साथ रह रही हैं। तेजाब पीड़ित लड़कियों की जिंदगी में खुशहाली लाने के लिए वह 2013 से 'अतिजीवन फाउंडेशन' के माध्यम से सक्रिय हैं। तेजाब से जले मरीजों को गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सुविधा प्रदान कराने के लिए उन्होंने देशभर में 15 निजी अस्पतालों से समझौता किया है। इन अस्पतालों का संचालन निजी दान पर होता है और वहां सर्जरी का खर्च वहन करने से लाचार महिलाओं पर होने वाले खर्च भी अस्पताल की ओर से किया जाता है।
आज एसिड अटैक की वजह से तमाम लड़कियों और महिलाओं की जान जा चुकी है। उनकी ज़िंदगी बर्बाद हो चुकी है। बहुत सारी लड़कियां और महिलाएं आज बद से बदतर हालात में जीवन यापन करने को मजबूर हैं। एसिड अटैक पर न्यायपालिका के साथ-साथ सरकार को अब ऐसे कुछ सख्त क़ानून बनाने चाहिए, जो इस देश के साथ-साथ दुनिया के लिए एक ट्रेंड सेटर साबित हो। साथ ही ऐसा कोई कानूनी प्रावधान भी होना चाहिए, जिसमें एसिड हमलों की शिकार महिला को सभी तरह की सुरक्षा और सुविधाएं सुनिश्चित हो जाएं, जैसे कि पीड़िता को मुफ्त इलाज के साथ साथ सरकारी नौकरी और सामजिक सुरक्षा के लिए 'एसिड अटैक विक्टिम डेवलपमेंट फंड' या फिर 'एसिड अटैक विक्टिम डेवलपमेंट सोसाइटी' आदि संस्थाओं का गठन भी हो। इस तरह के कदम ऐसे हमलो से मुकाबले में कारगर हो सकते हैं।
यह भी पढ़ें: इमरान हाशमी के बेटे अयान को मिली कैंसर से मुक्ति, कैंसर से लड़ने वालों को दिया हौसला