'कोहबर' की मदद से बिहार की उषा झा ने बनाया 300 से ज्यादा औरतों को आत्मनिर्भर
"पेटल्स क्राफ्ट" की संस्थापक उषा झा की अपनी पहचान बनाने की कोशिश ने सैकड़ों महिलाओं को वित्तीय सशक्तीकरण के लिए प्रेरित किया है। बिहार में 'कोहबर' में बनाई जाने वाली लोककला की मदद से आर्थिक रूप से स्वावलम्बी हो रही हैं महिलाएं।
1990 के दशक में, जब उषा झा ने पटना में ‘मधुबनी हस्तशिल्प’ पर आधारित उद्यम 'पेटल्स क्राफ्ट' लॉन्च करने का फैसला किया, तब एक सवाल उनसे बार-बार पूछा गया था, कि 'क्या ज़रूरत है?' हालांकि वे इस बात से कभी निराश नहीं हुईं। अपनी स्वयं की पहचान बनाने से लेकर 300 से अधिक महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने तक, उषा ने एक लंबा सफर तय किया। यात्रा आसान तो नहीं रही, लेकिन संतोषजनक जरूर रही और यही संतोष उन्हें आगे बढ़ने की हिम्मत देता है।
उषा ने थोड़े से शिल्पकारों के साथ अपने काम की शुरुआत की थी, जिनमें से दो तो उनके घर से काम करती थीं, जबकि शेष अन्य मिथिलांचल में रह कर काम करती थीं। महिला कलाकारों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती रही और आज 300 से अधिक प्रशिक्षित स्वतंत्र महिलाएं उनके साथ काम करती हैं।
बिहार-नेपाल सीमा पर स्थित एक गांव से आने वाली उषा झा ने अपने स्कूल की पढाई कहने-सुनने को जिला मुख्यालय शहर पूर्णिया में की है और उनकी शादी कक्षा 10 उत्तीर्ण करने के पहले ही हो गई थी। शादी के बाद, वे पटना आ गईं, लेकिन उन्होंने अपनी पढाई जारी रखी। निजी ट्यूशन के माध्यम से, पत्राचार पाठ्यक्रम और सरकारी स्कूल से उन्होंने मास्टर डिग्री प्राप्त करने में सफलता हासिल की। उषा कहती हैं, कि 'कहीं गहरे, मेरे अंतर मन में उद्यमशीलता का एक सपना था। मैं स्वयं अपने और दूसरों के लिए कुछ करना चाहती थी। मेरे जीवन में सब कुछ था। बच्चे, सहयोग करने वाला एक प्यारा परिवार, फिर भी मुझे लगता था कि मेरी अपनी कोई पहचान नहीं है। अपने होने का बोध नहीं था।' अपनी स्वयं की पहचान बनाने से लेकर 300 से अधिक महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने तक, उषा ने एक लंबा सफर तय किया है। हालांकि ये यात्रा इतनी भी आसान नहीं रही, लेकिन संतोषजनक जरूर रही और यही संतोष उषा को आगे बढ़ने की हिम्मत देता है।
अपनी स्वयं की पहचान बनाने की इच्छा और ज़िन्दगी में खुद को आगे बढ़ाने का जुनून उषा को हमेशा संचालित रखता है। 1991 में जब उनके बच्चे बड़े हो गये और उनके पास अधिक खाली समय था, तब उन्होंने कुछ करने का फ़ैसला किया और उस मिथिला कला को अपने भविष्य-निर्माण का धार बनाया, जिससे कि वे बचपन से ही परिचित थीं।
मिथिला कला बिहार के मिथलांचल क्षेत्र की लोक कला है और 'रामायण' तथा 'महाभारत' में इसका उल्लेख मिलता है। इसकी उत्पत्ति 'कोहबर' से हुई है। कोहबर एक ऐसे कमरे को कहा जाता है, जहां मैथली शादी के दौरान रस्में और रीति-रिवाज किये जाते हैं और उस कमरे की दीवारों पर देवी-देवताओं और अन्य शुभ प्रतीकों की छवियों को चित्रित किया जाता हैं।
उषा झा याद करते हुए बताती हैं, कि 'पहले परिवारों में जब कोई शादी होती, तो सबसे पहले 'कोहबर' की दीवारों की रंगाई की जाती थी। आज शादी की तैयारी हॉल की बुकिंग और मेन्यू चुनने से शुरू होती है। उन दिनों की शुरुआत कोहबर से होती थी।' इस सहज प्रतिभा का उपयोग करते हुए उन्होंने मिथिलांचल कला (जिसे मधुबनी कला भी कहा जाता है) का निर्माण शुरू किया और इस प्रकार दीवारों से उतर कर ये कला साड़ियों, कपड़ों और कागज पर जीवंत हो उठी। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहती हैं, 'उन दिनों मैंने सोचा भी नहीं था, कि दीवारों पर उकेरी जाने वाली ये कला कमाई और परिवार चलाने का माध्यम बन सकती है, लेकिन आने वाले वर्षों में ये रोजगार का साधन बन गई।' उषा झा की इसी सोच ने जन्म दिया पेटल्स क्राफ्ट को।
उषा झा का एक छोटा सा कदम जो एक विशाल छलांग बन गया
'पेटल्स क्राफ्ट' की शुरुआत 1991 में उषा झा के घर पटना के बोरिंग रोड से हुई, जहाँ से वे आज भी काम करती हैं। कलाकारों के लिए समर्पित एक कमरे से शुरू हुआ उनका काम अब पूरे घर में फ़ैल चुका है। रग्स पर करीने से रखे फ़ोल्डर्स, साड़ी, स्टॉल्स ग्राहकों के लिए तैयार रहते हैं। उषा जी कहती हैं, 'आज हमने आधुनिक मांगों को पूरा किया है और बैग, लैंप, साड़ी और घरेलू सामान सहित लगभग 50 विभिन्न उत्पादों पर मधुबनी पेंटिंग की है।' वे हमें एक नैपकिन होल्डर दिखाती हैं, जो उनके अमेरिकी और यूरोपीय ग्राहकों में खासा पसंद किया जाता है।
2008 में उषा झा ने गांवों में किये जा रहे अपने काम को औपचारिक रूप दिया तथा उन्होंने अपने गैर सरकारी संगठन, ‘मिथिला विकास केन्द्र’ का रजिस्ट्रेशन करवाया।
उनके भिन्न-भिन्न ग्राहकों में, दौरे पर आये सरकारी और गणमान्य व्यक्तियों से लेकर दुनिया के विभिन्न देशों से आये पर्यटक भी शामिल हैं।योरस्टोरी से हुई बातचीत के दौरान उषा झा के फोन की घण्टी लगातार बजती रहती है, उन्हें अॉर्डर मिलते रहते हैं और साथ ही एक युवा महिला लगातार काम के बारे में उनसे मार्गदर्शन भी लेती रहती है। हमेशा से ऐसा नहीं था। उषा ने थोड़े से शिल्पकारों के साथ अपने काम की शुरुआत की थी, जिनमें से दो तो उनके घर से काम करती थीं, जबकि शेष अन्य मिथिलांचल में रह कर काम करती थीं। महिला कलाकारों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती रही और आज 300 से अधिक प्रशिक्षित स्वतंत्र महिलाएं उनके साथ काम करती हैं। 2008 में उषा झा ने गांवों में किये जा रहे अपने काम को औपचारिक रूप दिया तथा उन्होंने अपने गैर सरकारी संगठन, ‘मिथिला विकास केन्द्र’ का पंजीकरण करवाया। उषा कहती हैं, 'इसके माध्यम से हम महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाते हैं। महिलाएं अपना घर चलाने में सक्षम हैं। हम उनके बच्चों के लिए शिक्षा भी उपलब्ध कराते हैं और उनके स्वास्थ्य के मुद्दे पर उन्हें जानकारी देते है। हम स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हैं और महिलाओं को होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में उनके बीच जागरूकता फैलाने का काम भी करते हैं।'
उषा झा द्वारा प्रशिक्षित कई महिलाओं ने उन्हें छोड़ कर अपना काम भी शुरू कर लिया है और अब कई महिलों को पटना में भी प्रशिक्षित किया जा रहा है। लेकिन पूरी तरह से देखें तो प्रगति थोड़ी धीमी है। वे कहती हैं, 'मैंने जब शुरुआत की थी तब ऑनलाइन विक्रय की कोई अवधारणा नहीं थी। उन दिनों में हमें पूरे देश में और यहाँ तक कि विदेशों में भी यात्रा कर के स्टॉल लगाने पड़ते थे। मुझे अपने उत्पाद को बेचने के लिए बड़े पैमाने पर यात्रा करनी पड़ती थी।'
उषा झा आज की तारीख में पटना का एक बड़ा नाम बन गई हैं। विभिन्न वेबसाइट्स के माध्यम से वे अपने उत्पाद ऑनलाइन बेचती हैं, फिर भी उनका कहना है, कि 'आज भी हमारी ज्यादातर बिक्री एक दूसरे से बातचीत के माध्यम से ही होती है।' प्रौद्योगिकी ने उन्हें गाँव के कलाकारों के साथ संवाद करने में सबसे बड़ी मदद की है। व्हाट्सएप ने कस्टमाइजेशन की सभी समस्यायों को समाप्त कर दिया है।
जब पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने बिहार का दौरा किया, तो उन्हें 14 फीट लंबी एक पेंटिंग भेंट की गई थी, जो आज भी राष्ट्रपति भवन की शोभा बढ़ा रही है। इस पर वो गर्व से कहती हैं, 'वो पेंटिंग हमारे द्वारा ही दी गई थी। एक और दिलचस्प वाकया (जो स्वीडन से आये एक पर्यटक के बारे में है। जिसने टैक्सी चालक को, उसे पटना के किसी आर्ट गैलरी या संग्रहालय में ले जाने के लिए कहा था) सुनाते हुए वे कहती हैं, कि 'ड्राइवर को पता ही नहीं था कि आर्ट गैलरी क्या होती हैं, इसलिए वो उस पर्यटक को पेटल्स क्राफ्ट ले कर आ गया।' आगे वे कहती हैं 'हो सकता है कि वह एक आर्ट गैलरी नहीं खोज सका हो, लेकिन उसे हमारा शिल्प बहुत पसंद आया और वह हमारी कला देख कर बहुत खुश हुआ। उसने अपने परिवार के लिए बहुत सारे उपहार खरीदे।'
पेटल्स क्राफ्ट के अलावा उषा झा ने इन तमाम सालों में और भी अन्य भूमिकाएं निभाई हैं, जैसे पटना में एक कॉलेज के अतिथि व्याख्याता के रूप में शिक्षण, पिछले 17 सालों से बिहार महिला उद्योग संघ के सचिव का पद संभालने के साथ ही वे अनेक जरूरतमंद महिलाओं के संबल का आधार भी रही हैं। वे सभी महिलाएं जिन्होंने अपने शुरुआती दिनों में उषा से प्रशिक्षिण लिया वे अब अगुआ के रूप में उभरी हैं और जो महिलाएं अभी इस क्षेत्र में नई हैं वे अपने भविष्य में उजाले की एक नई किरण को भर रही हैं।
आने वाले दिनों में उषा झा बिहार-नेपाल सीमा के पास गांवों और कस्बों में अधिक से अधिक प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित करना चाहती हैं, जहां उन्हें लगता है कि सरकार अभी तक पहुंचने में सफल नहीं हो पायी है। वे कहती हैं, 'ये एक महत्वाकांक्षी परियोजना है और मैं अधिक से अधिक महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने के लिए इन केंद्रों की स्थापना करना चाहती हूँ।' अपनी बात को खत्म करते हुए अंत में वे दूसरों को सिर्फ ये संदेश देना चाहती हैं, कि 'यदि मैं ये कर सकती हूँ तो आप भी कर सकते हैं।'
उषा झा का वीडियो यहां देखें...
-तन्वी दुबे
अनुवाद: प्रकाश भूषण सिंह