आज़ादी से भी पहले शुरू हुए इन तीनों देसी ब्रांड्स की शानदार कहानी!
इन ब्रांड्स ने आज़ादी की लड़ाइयां देखीं, अंदरूनी उतार-चढ़ाव भी देखे और देश के साथ-साथ बढ़ते गए, फलते-फूलते गए. आज हम ऐसे ही तीन ब्रांड्स की बात करेंगे जिन्होंने देश के साथ लम्बा सफ़र तय किया है.
देश की आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ मनाते हुए अक्सर उन ब्रांड्स की भी याद ताज़ा हो जाती है जो आज़ादी के पहले शुरू हुए और आज भी अपना विश्वास लोगों के बीच बनाए हुए हैं. ये तीन ब्रांड्स बदलते वक़्त के साथ मॉडर्न हुए लेकिन ऐतिहासिक भी हैं. इन ब्रांड्स ने आज़ादी की लड़ाइयां देखीं, अंदरूनी उतार-चढ़ाव भी देखे और देश के साथ-साथ बढ़ते गए, फलते-फूलते गए. आज हम ऐसे ही तीन ब्रांड्स की बात करेंगे जिन्होंने देश के साथ लम्बा सफ़र तय किया है.
डाबर
डाबर की शुरुआत साल 1884 में कलकत्ता (अब कोलकाता) के एक आयुर्वेद के डॉक्टर डॉ एस के बर्मन ने की थी. नाम को एक बार फिर से पढ़िए: डॉ एस के बर्मन का ‘डा’ और बर्मन का 'बर' जोड़ दीजिये और आपको मिल जाएगा भारत के एक अति प्रिय घरेलू ब्रांड का नाम 'डाबर'. वह ब्रांड जिसने भारत में हेल्थ केयर बिजनेस की नींव रखी.
यह वह दौर था जब कलकत्ता देश की राजधानी हुआ करती थी. आज़ादी की ज़मीन धीरे-धीरे तैयार हो रही थी. नरेन्द्रनाथ दत्त अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा लेकर स्वामी विवेकानंद बन चुके थे. ठीक एक साल बाद, 1885 में इन्डियन नेशनल कांग्रेस पार्टी गठित होनी थी.
डॉक्टर साहब आयुर्वेद की मदद से हैजा और मलेरिया में कारगर साबित होने वाली दवाइयां भी बनाते थे. धीरे-धीरे कई और जड़ी बूटियों को प्रयोग में लाकर अन्य प्रकार की दवाइयां बनाने लगे जो इतनी लोकप्रिय हो गईं कि 1896 में उन्हें एक फैक्ट्री तैयार करनी पड़ी. इस वक़्त तक स्वामी विवेकानंद कलकत्ता से सफ़र तय कर अमेरिका पहुंच चुके थे, और 1893 में अमेरिका के शिकागो में अपना भाषण भी दे चुके थे. 1896 में ही विवेकानंद ब्रिटेन में मैक्स मुलर से मिले, जिन्होंने उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस की पहली बायोग्राफी लिखी थी.
देश अपनी आज़ादी की तरफ धीरे-धीरे बढ़ रहा था और डाबर भी धीरे-धीरे सफलता की ऊंचाइयां छूने की तरफ बढ़ रहा था. लेकिन 1907 में डॉ एस के बर्मन की मृत्यु हो गई. डाबर की ज़िम्मेदारी उनकी अगली पीढ़ी के हाथों में आई जिन्होंने इस कंपनी को और बड़ा बनाया. नतीजतन कलकत्ता की तंग गलियों में शुरू हुआ डाबर का सफर 1972 में दिल्ली के साहिबाबाद की विशाल फैक्ट्री, रिसर्च और डेवलपमेंट सेंटर तक पहुंच चुका था. आज के समय में बर्मन परिवार की टोटल नेट वर्थ 11.8 बिलियन डॉलर हो गई है.
मैसूर सैंडल सोप
मैसूर शाही परिवारों का शहर रहा है और शीतल चन्दन का भी. क्योंकि उस समय मैसूर में पूरी दुनिया में सर्वाधिक चंदन का उत्पादन होता था.
भारत ब्रिटिश हुकूमत की गिरफ्त में था, और दुनिया विश्व युद्ध की गिरफ्त में थी. अब युद्ध में शीतलता भरे चन्दन का क्या काम? लिहाज़ा, विश्व युद्ध के दौरान चन्दन का व्यापार थम गया और मैसूर से चंदन की लकड़ियों का विदेश जाना बंद हो गया. ऐसे में मैसूर में लगातार चंदन की लकड़ियों का ढेर लग रहा था. जिसे देख 1916 में मैसूर के शासक कृष्ण राजा वोडियार चतुर्थ और उनके दीवान मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया ने चंदन की लकड़ी से तेल निकालने वाली मशीनों का आयात किया और फिर एक कारखाना स्थापित किया.
पहला ख्याल तेल के उपयोग का था पर इसकी खपत होगी या नहीं, यह कहना उनके लिए मुश्किल था. इसी बीच उनके ही महल के कर्मचारियों ने अपने महाराज के नहाने की दिनचर्या में चंदन के तेल का उपयोग करना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे तेल साबुन में बदला गया. इसी दौरान उन्हें ख्याल आया कि जो साबुन वह खुद अपने लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, वह जनता भी तो कर सकती है ! ख्याल अच्छा था, सो इस पर काम शुरू किया गया. महाराज के दीवान मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया ने बॉम्बे (आज मुंबई) के तकनीकी विशेषज्ञों को आमंत्रित किया और भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) के परिसर में साबुन बनाने के प्रयोग की व्यवस्था की गई.
साबुन बाज़ार में आया. लोगों ने हाथों-हाथ इसे खरीद लिया. लोग आज भी यही मानते हैं कि मैसूर सैंडल सोप शाही लोगों की शाही पसंद है. देखते ही देखते इस साबुन का व्यापार कर्नाटक से निकलकर पूरे देश में फैल गया. साल 1944 में, शिवमोगा में एक और इकाई की स्थापना की गई. चंदन की लोकप्रियता ने एक और मार्केट खड़ा किया, चंदन के तेल से बने हुए इत्र का जिसे लोगों ने खूब पसंद किया.
हमदर्द
हमसफ़र, हमनवा, हमदम, हमख्याल जैसे शब्द से हम सब वाकीफ हैं. ऐसा ही एक शब्द है हमदर्द, जिसका मतलब होता है आपके दर्द में बराबर का हिस्सेदार. नफ़सियाती-मरज़ का इलाज तो मुश्किल ही है, लेकिन पुरानी दिल्ली की गलियों में हकीम हाफ़िज़ अब्दुल मजीद छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज कर रहे थे. ‘हमदर्द’ दवाखाना’ उन्हीं का था जिसकी शुरुआत 1906 में हुई थी. अंग्रेजों के 'डिवाइड एंड रूल' पॉलिसी ने एक साल पहले हिन्दू-बहुल और मुस्लिम-बहुल राज्यों का विभाजन कर दिया था. लेकिन हकीम सा’ब के तरीक़े हिन्दू आयुर्वेदिक पद्धति और यूनान की यूनानी पद्धति का मिश्रण थीं. यहां कोई विभाजन नहीं था. वे हर समुदाय के लोगों के हमदर्द थे. बहरहाल, दिल्ली की गर्मी से परेशान लोगों के राहत के लिए जड़ी-बूटियां, मसाले, अर्क आदि मिलाकर हकीम सा’ब ने सीरप/शरबतनुमा सी एक चीज़ बनाई. खुशबूदार और राहत देने वाला वह सीरप 'रूह अफज़ा' था.
न दिल्ली की गर्मी कम हुई न रूह अफज़ा की बिक्री रुकी. पुरानी दिल्ली की तंग गलियों से निकलकर ये शरबत पूरी दिल्ली और आस-पास के इलाकों में पसंद किया जाने लगा. फिर आज़ादी मिली और आज़ादी के साथ विभाजन.
भारत-पाकिस्तान के विभाजन पर भीष्म साहनी ने लिखा था “एक उसूल ज़मीर का होता है तो दूसरा फ़ाइल का.” फ़ाइल का दस्तूर और 1947 में देश का बंटवारा होना. देश के साथ-साथ हमदर्द कंपनी का भी बंटवारा हो गया. हकीम मजीद के बड़े बेटे, हकीम अब्दुल हमीद भारत में रहे और उनके छोटे बेटे, हकीम मोहम्मद सईद पाकिस्तान चले गए. छोटे बेटे ने पाकिस्तान में दो कमरे का किराये का घर लिया और रूह अफ़ज़ा बनाना शुरू किया. थोड़ी राहत कराची भी पहुंची!
1953 में हकीम मोहम्मद सईद ने अपनी दूसरी ब्रांच ढाका में खोली, जो उस वक़्त पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा था (और अब बांग्लादेश में है). कई सालों बाद, 80 के दशक में डॉक्टर हाकिम मोहम्मद युसूफ हारून भुइयां ने बांग्लादेश के ‘हमदर्द’ की कमान संभाली.
दो विभाजनों का दर्द देखने वाला ‘हमदर्द’ और हमदर्द के 'रूह अफ़ज़ा' ने कई दशकों का सफ़र तय किया है. और इस सफ़र में कई मील के पत्थर भी खड़े किये हैं. हमदर्द नेशनल फाउंडेशन एक यूनिवर्सिटी ‘जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी’ चला रही है, जहां फार्मेसी और यूनानी मेडिसिन की पढ़ाई होती है. ‘हमदर्द एडुकेशन सोसाइटी’, ‘बिजनेस एम्प्लॉयमेंट ब्यूरो’ के तहत समाज के गरीब तबकों से आये बच्चों को पढ़ाने से लेकर नौकरी देने की एक जिम्मेदाराना कोशिश की जा रही है. ‘ग़ालिब अकादमी’ के तहत उर्दू ज़ुबान और साहित्य को बढ़ावा देने के मकसद से ‘हमदर्द’ देश और समाज के दुःख और सुख में बराबर शरीक दिखता है.