माँ के कहने पर डॉक्टर बने चंद्रशेखर यादव माँ का इलाज तो नहीं कर पाए लेकिन हज़ारों लोगों को दिलाई गठिया से मुक्ति
डॉ. चंद्रशेखर यादव एक ऐसी शख्सियत का नाम है जिनकी कामयाबी की कहानी दिल में गहराई से उतरने और दिमाग पर बहुत ही गहरा असर छोड़ने का माद्दा रखती है। इस कहानी में गरीबी के थपेड़े हैं, ईमानदार और नेकनीयत लोगों के सामने पेश आने वाली दिक्कतें हैं, माता-पिता की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए की गयी दिन-रात की मेहनत हैं, सुविधाओं के अभाव में भी मंजिल हासिल करने वाला साहस है और समाज से जो कुछ भी मिला उसे समाज को वापस लौटाने की पवित्र भावना है। गरीब परिवार में जन्मे चंद्रशेखर ने डॉक्टर बनकर न सिर्फ अपनी माँ का सपना पूरा किया बल्कि अपनी काबिलियत और मेहनत के बल पर भारत में हड्डियों के सबसे बड़े और मशहूर डॉक्टरों की कड़ी में शीर्ष पर अपनी जगह बनाई। अपने संकल्प को पूरा करने में घर-परिवार की गरीबी को कभी भी आड़े आने नहीं दिया और लगन से वो मुकाम हासिल किया जो कि बहुत ही कम लोगों को हासिल होता हैं। सड़क किनारे बिजली के खम्बे पर लगे बल्ब की रोशनी में पढ़ते हुए इस शख्स ने न सिर्फ खुद के जीवन को रोशन किया बल्कि बहुत सारे लोगों का प्रभावी इलाज कर उनके जीवन को भी रोशन किया है। इतना ही नहीं कड़े विरोध की परवाह किये बिना चंद्रशेखर यादव ने चिकित्सा-क्षेत्र से भ्रष्टाचार और अनैतिक पद्धतियों को मिटाने के लिए आंदोलन की शुरुआत की। इस शल्य-चिकित्सक और शिक्षक की कहानी बहुत प्रेरणादायक है। सुविधाओं के अभाव और विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे लोगों में उत्साह और उमंग का संचार करने वाली कहानी है।
कामयाबी की एक बेहद शानदार कहानी के नायक चंद्रशेखर का जन्म आगरा शहर के एक मध्यमवर्गीय यादव परिवार में हुआ। पिता अपने तीन भाइयों के साथ मिलकर दूध का कारोबार किया करते थे। माँ गृहिणी थीं। जब तक पिता अपने तीनों भाइयों के साथ रहते थे तब परिवार की हालत ठीक-ठाक थी, लेकिन संयुक्त परिवार में बंटवारे के बाद चन्द्रशेखर के पिता की आर्थिक हालत डगमगा गयी। घर-परिवार की माली हालत इतनी बिगड़ी कि बच्चों का पेट भरने के भी लाले पड़ गए थे। चंद्रशेखर के पिता का स्वभाव सीधा-सादा था, जीवन के मूल्य आदर्शवादी थे। ज़िंदगी में कभी किसी का कोई नुकसान नहीं किया था। किसी का बुरा सोचना भी उनके लिया पाप था। भाइयों से बंटवारे के बाद चंद्रशेखर के पिता ने कई छोटे-मोटे कारोबार किये लेकिन हर बार उन्हें घाटा ही हुआ। चंद्रशेखर मजाकिया अंदाज़ में कहते हैं, “मेरे पिता में कारोबार करने के गुण ही नहीं थे। वे बेहद ईमानदार इंसान थे। न वे दूध में पानी मिलाकर बेचना जानते थे और न ही घी में मिलावट करना। तोलमोल में भी हेरफेर करना उन्हें नहीं आता था। यही वजह थी कि वे किसी भी कारोबार में मुनाफा कमा ही नहीं पाए।" बच्चों का पेट भरने के लिए माँ ने अपने जेवर बेचने शुरू किये। एक दिन नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि माँ के सारे जेवर बिक गए और बेचने के लिए घर में कुछ भी नहीं बचा। शहर के कई सारे लोग चंद्रशेखर के पिता को उनकी ईमानदारी और नेकनीयती के लिए बहुत मानते थे और इन्हीं लोगों की मदद से कई दिनों तक घर-परिवार की गुज़र-बसर हुई।
परिवार की आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने की वजह से सभी बच्चों को पढ़ने के लिए हिंदी मीडियम सरकारी स्कूल में ही भेजा गया। चंद्रशेखर का दाखिला रुक्मिणी देवी मॉडल स्कूल में करवाया गया। पढ़ाई-लिखाई में काफी तेज़ होने की वजह से चंद्रशेखर अपनी माँ के लाड़ले थे। उनकी माँ को बचपन से ही गठिया की शिकायत थी। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गयी गठिया भी बढ़ता गया और उनके जोड़ों का दर्द असहनीय हो गया। उन दिनों गठिया का इलाज भी नहीं था। दर्द से पूरी तरह से मुक्ति दिलाने वाली न ही दवाइयां थीं और न ही उन दिनों घुटनों को बदलने के लिए ऑपरेशन किया जाता था। बचपन में माँ अक्सर चंद्रशेखर से कहा करती थीं – बेटा, तुम बड़े होकर ज़रूर डॉक्टर बनना और मेरे जोड़ों के दर्द का इलाज करना। माँ की इस बात का चंद्रशेखर के बाल-मन पर बहुत गहरा असर हुआ था। उन्होंने बचपन में ही ठान ली थी कि वे बड़े होकर डॉक्टर ही बनेंगे।
चंद्रशेखर ने बचपन से ही अपनी माँ के दुःख-दर्द को बहुत करीब से देखा और महसूस किया था। जोड़ों में भयानक दर्द होने के बावजूद माँ ने बच्चों के लालन-पालन में कोई कमी नहीं आने दी थी। पिता की ईमानदारी और सदाचार का भी बहुत गहरा प्रभाव चंद्रशेखर ने मन- मस्तिष्क पर पड़ा था। बचपन से ही चंद्रशेखर का ये सपना था वे बड़े होकर डॉक्टर बनेंगे और अपनी माँ को जोड़ों के दर्द से मुक्ति दिलाएंगे। चंद्रशेखर कहते हैं, “बचपन में और कोई सपना ही नहीं था, बस डॉक्टर बनने के सपने के सिवाय। माँ की वजह से ही हम पढ़-लिख पाए थे। उस ज़माने में हमारे जैसे गरीब लोगों के घर में छोटी उम्र से ही बच्चों को नौकरी पर लगा दिया जाता था। अगर माँ की जिद न होती तो शायद हमें भी नौकरी पर लगा दिया जाता।"
डॉक्टर बनने की इच्छा चंद्रशेखर में इतनी मज़बूत थी कि उन्होंने रात के समय सड़क के किनारे बिजली के खम्बों पर लगे बल्बों की रोशनी में पढ़ाई की। चंद्रशेखर ने बताया, “मैंने स्ट्रीट लाइट की रोशनी में पढ़ाई और लिखाई की है। सालों तक हमारे घर में न बिजली का पंखा था न कोई बल्ब। जब बिजली आयी भी तब भी एक ही बल्ब लगा और उस समय हालत ऐसी थी कि बिजली कब आएगी और कब चली जाएगी ये पता नहीं होता था।” चंद्रशेखर के मकान के नज़दीक में संदूकें बनाने का एक कारखाना था। इस कारखाने में कटिंग मशीन चलती रहती थी और संदूकें बनाने वाले हथौड़े लेकर मेटल शीट पर कीलें ठोका करते थे। कटिंग मशीन और हथौड़े की मार का शोर इतना ज्यादा होता कि उस माहौल में किताबों पर ध्यान केन्द्रित कर पढ़ना बहुत ही मुश्किल होता। इसी वजह से वे रात होने का इंतज़ार करते ताकि वे छज्जे पर जाकर स्ट्रीटलाइट में पढ़ सकें। इसी मेहनत और लगन का ये नतीजा रहा कि उन्हें दसवीं की परीक्षा में शानदार नंबर मिले और इन्हीं नंबरों की वजह से उनका दाखिला आगरा के मशहूर महाराजा अग्रसेन इंटर कॉलेज में हो गया।
मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए होने वाली प्री-मेडिकल की तैयारी के लिए दूसरे कई सारे बच्चे कोचिंग भी जाया करते थे। लेकिन आर्थिक कारणों से चंद्रशेखर कोचिंग भी नहीं ले पाए। उन्होंने अपनी मेहनत और कुशाग्र बुद्धि से मेडिकल कॉलेज में दाखिले की योग्यता हासिल कर ली। चंद्रशेखर ने बताया, “मैं कोचिंग सेंटर तो नहीं गया लेकिन उन दिनों मेरे कई अच्छे दोस्त कोचिंग जाते थे। इन्हीं में से कुछ दोस्त अपनी किताबें मुझसे शेयर भी करते थे। वे किताबें देकर मेरी मदद करते थे और मैं उनके डाउट क्लियर कर उनकी मदद करता था।”
जब चंद्रशेखर को प्री-मेडिकल टेस्ट में अच्छे नंबरों की बदौलत अपने ही शहर आगरा के मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस की सीट मिल गयी तब घर-परिवार में त्यौहार जैसा माहौल हो गया। उन दिनों की यादों को हमारे साथ साझा करते हुए चंद्रशेखर ने बताया, “मेरे घर में ही नहीं बल्कि पूरी गली में खुशी का माहौल था। जैसे ही लोगों को पता चला कि उनकी गली का लड़का डॉक्टर बनने जा रहा है तब सभी बहुत खुश हुए।” चंद्रशेखर ने रूखे गले से हमें ये भी बताया कि उस गली से उनके बाद अब तक कोई भी दूसरा शख्स डॉक्टर नहीं बन पाया है।
सरोजिनी नायुडू मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरी की पढ़ाई वाले दिन भी चंद्रशेखर के लिए काफी चुनौती भरे रहे। मेडिकल कॉलेज में दाखिले से पहले उनकी सारी पढ़ाई-लिखाई हिंदी मीडियम में ही हुई थी। मेडिकल कॉलेज में सब कुछ अंग्रेजी में पढ़ाया जाता था। अंग्रेजी पर पकड़ मज़बूत करना भी चंद्रशेखर के लिए बड़ी चुनौती थी। मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस के ज्यादातर विद्यार्थी ऐसे थे जो रईस और रसूकदार परिवारों से थे। एक गरीब यादव परिवार से होने की वजह से दूसरे विद्यार्थियों से घुलने-मिलने में चंद्रशेखर को कुछ समय लगा। लेकिन बाद में दोस्ती पक्की हो गयी। चंद्रशेखर ये कहने में ज़रा भी संकोच महसूस नहीं करते कि अपने दोस्तों से मिली मदद की वजह से ही वे डॉक्टरी की पढ़ाई बिना बड़ी मुसीबतों के पूरी कर पाए। चूँकि घर-परिवार की माली हालत अभी सुधरी नहीं थी वे अपने साथियों की तरह हॉस्टल में नहीं रह सकते थे लेकिन अपने दोस्तों के हॉस्टल रूम का भरपूर इस्तेमाल किया करते थे। ज्यादातर समय हॉस्टल में ही रहकर वे अपनी पढ़ाई किया करते थे। हॉस्टल के दिनों की यादों को ताज़ा करते हुए चंद्रशेखर ने बताया, “एग्जाम से ठीक तीन महीने पहले मैं तैयारियों में जुट जाता था। जब मैं पढ़ने के लिए चेयर पर बैठ जाया करता था तब फिर खाने या फिर सोने के लिए ही इस चेयर पर से उठा करता था।” दिलचस्प बात ये भी है कि एमबीबीएस के पढ़ाई के दौरान चंद्रशेखर अपने साथियों के साथ सिलेबस के अलावा अलग-अलग राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक मुद्दों पर भी चर्चा करते। इसके अलावा वे पूंजीवाद, साम्यवाद, समाज में लोगों के बीच बढ़ती आर्थिक असमानता जैसे मुद्दों पर भी अपने साथियों से बहस करते।
चंद्रशेखर के लिए सबसे बड़े दुःख की बात ये रही कि वे अपनी माँ का इलाज नहीं कर पाए। जब मेडिकल कॉलेज में उनकी डॉक्टरी की पढ़ाई चल रही थी तब उनकी माँ का गठिया रोग लाइलाज हो गया था। वे दिल की मरीज भी थीं। चन्द्रशेखर की पढ़ाई के दौरान ही उनकी माँ का निधन हो गया। लेकिन, आगे चलकर चंद्रशेखर हड्डियों के ही डॉक्टर बने और उन्होंने गठिया से पीड़ित हजारों लोगों का इलाज कर उनके जोड़ों के दर्द को हमेशा के लिए दूर भगाया। वे अब भी हर दिन लोगों की ख़राब, टूटी, टेड़ी-मेड़ी हड्डियों को ठीक कर लोगों को नयी ज़िंदगी और नयी खुशियाँ देने का काम बखूबी कर रहे हैं। चंद्रशेखर कहते हैं, “ मुझे बड़ी ख़ुशी है कि आगे चलकर मैंने अपनी एम. एस. ओर्थपेडीक में ही की और मैं गठिया का इलाज करने वाला डॉक्टर बना।"
चंद्रशेखर इन दिनों अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स में ओर्थपेडीक डिपार्टमेंट में प्रोफेसर हैं। वे एम्स में हर दिन हड्डियों की अलग-अलग बीमारियों, परेशानियों से पीड़ित मरीजों का इलाज करते हैं। वे भारत में नी एंड हिप रिप्लेसमेंट के लिए की जाने वाली सर्जरी के सबसे बड़े और कामयाब डॉक्टरों में शीर्ष पर हैं। वे अलग-अलग संस्थाओं में जाकर होनहार और उभरते डॉक्टरों को हड्डियों की बीमारियों और इनके इलाज के बारे में शिक्षा भी दे रहे हैं। वे एक उम्दा शोधार्थी भी हैं। चिकित्सा-शास्त्र और स्वास्थ-सेवा से जुड़े कई विषयों पर उनके शोध-पत्र अलग-अलग प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। अपने डॉक्टरी जीवन में चंद्रशेखर ने अब तक कई सारे जटिल ऑपरेशन कर लोगों को नया जीवन दिया है। वे कहते हैं, “एम्स में ज्यादातर ऐसे पेचीदा मामले ही आते हैं जिनका इलाज और कहीं मुमकिन नहीं होता। जब बाहर डॉक्टर कुछ नहीं कर पाते तब वे एम्स को रेफेर कर देते हैं। हमारे यहाँ मरीज व्हीलचेयर या फिर कॉट पर आते हैं लेकिन सर्जरी के बाद एक सामान्य इंसान की तरह बिना किसी की मदद लेते हुए खुदबखुद अपने पैरों के सहारे चल कर जाते हैं।”
अक्सर देखने में आया है कि घुटनों या फिर कूल्हों में दर्द की वजह से लोगों का घर के बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। पांवों के मुड़ जाने या फिर टेड़ा-मेड़ा हो जाने की वजह से लोग शर्मिन्दगी महसूस करते हैं। कई लोग डिप्रेशन में चले जाते हैं। ऐसे भी कई सारे मरीज हैं जो कि बचपन में ही जोड़ों की बीमारी का शिकार होकर व्हीलचेयर या बिस्तर तक ही सीमित हो जाते हैं। ऐसे कई सारे मरीजों का ऑपरेशन कर चंद्रशेखर न केवल उनका दुःख-दर्द दूर कर रहे हैं बल्कि उनके परिवारवालों के जीवन में नयी खुशियाँ बिखेर रहे हैं।
बतौर इंसान और डॉक्टर चंद्रशेखर के जीवन के कई सारे पहलु काफी रोचक और आसाधारण हैं। एक डॉक्टर और सर्जन के तौर पर भी उनकी कई सारी उपलब्धियां और कामयाबियां हैं। उनके डॉक्टरी जीवन की बड़ी और नायाब कामयाबियों में एक हैं जम्मू-कश्मीर के लेह जैसे ऊँचाई वाले पर्वतीय स्थान पर लोगों के घुटनों को बदलने के लिए ऑपरेशन करना। इस आसाधारण और अपूर्व कार्य के लिए चंद्रशेखर का नाम 'लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड' में दर्ज किया गया है। जम्मू-कश्मीर के लेह में समुद्री तल से 11,000 फीट की ऊंचाई पर घुटना-प्रत्यारोपण करने का कीर्तिमान स्थापित करने के लिए चंद्रशेखर का नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज हुआ। चन्द्रशेखर से पहले किसी भी भारतीय ने इतनी ऊँचाई और दुर्गम स्थल पर घुटनों का प्रत्यारोपण नहीं किया था। लेह से श्रीनगर करीब 425 किलोमीटर और मनाली करीब 450 किलोमीटर दूर हैं। लेह का मौसम काफी ठंडा है। समुद्री तट से काफी ऊपर होने की वजह से यहाँ ऑक्सीजन की भी कमी होती है। लेह में चिकित्सा-सुविधायें भी उन्नत नहीं हैं। इसी वजह से लोगों को अपनी बीमारी का इलाज करवाने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है। ऐसी हालत में लेह के समाज-सेवी बौद्ध धर्मगुरु लामा लोब जांग को लगा कि दिल्ली से डॉक्टरों की टीम बुलवा कर लेह के लोगों का इलाज करना ही श्रेष्ट उपाय है। चंद्रशेखर ने बताया, “लेह में गठिया से पीड़ित लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। इन लोगों को दिल्ली आकर एम्स में अपने घुटनों और कूल्हों का प्रत्यर्पण कराने में काफी खर्च होता हैं। साल 2012 में लेह में आयी बाढ़ के बाद जब मैं वहाँ गया तब लामा लोब जांग ने मुझसे पूछा कि क्या लेह में ही लोगों के घुटनों का प्रत्यारोपण नहीं किया जा सकता? मैंने कहा – क्यों नहीं किया जा सकता हैं।” इसके बाद चंद्रशेखर ने गठिया से पीड़ित लोगों की मदद करने के लिए लेह में ही घुटनों और कूल्हों का प्रत्यारोपण करने की ठानी। चंद्रशेखर ने वहां के जिला अस्पताल में हड्डियों के डॉक्टर और सर्जन से बातचीत कर अस्पताल को अपग्रेड करवाया। जब जिला अस्पताल घुटनों और कूल्हों का प्रत्यारोपण करने के योग्य बन गया तब वहां चन्द्रशेखर ने ऑपरेशन शुरू किये। साल 2013 में वे अपने साथियों से साथ ऑपरेशन का सारा सामान लेकर लेह पहुंचे। ऑपरेशन के लिए ज़रूरी सामान का वजन करीब 1000 किलो का था। चंद्रशेखर ने लेह में समुद्री तल से 11 हज़ार फीट की ऊंचाई पर घुटने और कूल्हों का कामयाब प्रत्यारोपण कर के भारत के चिकित्सा-शास्त्र और स्वास्थ-सेवा के इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों से दर्ज करवाया। गौरतलब है कि श्रेष्ठ चिकित्सा सुविधाओं से वंचित लेह जैसे पहाड़ी इलाकों में घुटनों और कूल्हों का प्रत्यारोपण जैसा बड़ा ऑपरेशन करना आसान नहीं है। ऑपरेशन करने में डॉक्टरों को कई सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। सबसे बड़ी चुनौती है मौसम की मार। चंद्रशेखर ने बताया कि लेह में कई डॉक्टरों को भी ऑक्सीजन की ज़रुरत पड़ जाती है। लेह जैसे आसामान्य मौसम वाले क्षेत्र में जटिल ऑपरेशन करने के लिए किसी भी डॉक्टर का मानसिक रूप के अलावा शारीरिक रूप ने भी काफी मज़बूत होना ज़रूरी होता है। ऐसी स्थिति में चंद्रशेखर ने न सिर्फ चुनौती को स्वीकार किया बल्कि कामयाबी हासिल कर लेह के लोगों की तकलीफों को दूर करने के लिए एक परम्परा की शुरुआत भी की। चंद्रशेखर अपनी टीम के साथ अब तक लेह-लद्दाख में 68 घुटना और कुल्हा प्रत्यारोपण कर चुके हैं। वे आने वाले सालों में भी लेह में अपना ये साहसी काम जारी रखने का संकल्प पहले ही ले चुके हैं।
चन्द्रशेखर ने न सिर्फ लेह में साहसी काम किया है बल्कि भारत में कई जगह जाकर विकट परिस्थितियों में ज़रूरतमंद की मदद कर चुके हैं। जब गुजरात में भूकंप ने हजारों लोगों को बुरी तरह से प्रभावित किया था तब भी चंद्रशेखर ने भुज जाकर लोगों को चिकित्सा-सुविधा मुहैया करवाई थी। उत्तराखंड में जब बाढ़ और भूस्खलन से भारी तबाही हुई तब भी वे दुर्गम और खतरनाक इलाकों में गए और लोगों की मदद की। केंद्र सरकार, अलग-अलग राज्य सरकारों, स्वयंसेवी संस्थाओं, मंत्रियों, सांसदों और दूसरे लोगों द्वारा लोकहित में आयोजित किये जाने वाले स्वास्थ-शिविरों में वे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। चंद्रशेखर कहते हैं, “समाज ने मुझे बहुत कुछ दिया है। मैं समाज को वापस देना चाहता हूँ। मेरी सारी पढ़ाई फ्री में हुई। इसके अलावा समाज से मुझे बहुत इज्ज़त मिली, नाम और सम्मान मिला, इसी वजह से मैं जितना मुमकिन हो सके लोगों की सेवा करना चाहता हूँ। समाज के प्रति अपना कर्ज चुकाना चाहता हूँ।”
अपनी काबिलियत और ईमानदारी के लिए मशहूर इस डॉक्टर ने ये भी कहा, “मैंने अपने जीवन में रूपये-पैसों को कभी भी प्राथमिकता नहीं दी। जब भी मैं गरीब मरीजों को देखता हूँ तो मुझे अपने बचपन के दिनों की याद आती है। लोगों की पीड़ा में मुझे अपनी पीड़ा दिखाई देती हैं। इन लोगों की सेवा करने को मैं अपना फ़र्ज़ मानता हूँ।” महत्वपूर्ण बात ये भी है कि बहुत लोग चंद्रशेखर को एम्स और सरकारी सेवाओं से बाहर आने और निजी अस्पताल मैं काम कर रुपये कमाने की सलाह देते ही रहते हैं। ऐसे प्रस्तावों की बाबत पूछे गए सवालों के जवाब में चंद्रशेखर ने कहा, “कई लोग हैं जो एम्स छोड़कर चले गए। जब लोगों को लगता हैं कि स्टैग्नैशन आ गया तब वे एम्स छोड़कर बाहर चले जाते हैं। मुझे अपने काम में अभी स्टैग्नैशन नहीं दिखाई दे रहा है, जब आएगा तब सोचा जाएगा। और अगर मैं बाहर गया भी तब भी दौलत कमाना मेरी प्राथमिकता नहीं होगी, लोगों की सेवा करना ही मेरा धर्म होगा। अभी तो मुझे एम्स में काम करते हुए बहुत आनंद आ रहा है। मैं ऐसा कोई भी काम नहीं करता जो मुझे पसंद नहीं है और जिसे करने में मुझे आनंद नहीं मिलता हो।”
एम्स में काम करते हुए चंद्रशेखर ने कई ऐसे काम किये जोकि उनसे पहले भारत में किसी ने नहीं किये थे। एक ऐसा ही काम था मुर्दों के ज़रिये विद्यार्थियों को घुटनों और कूल्हों के प्रत्यारोपण का प्रशिक्षण देना। एम्स में अर्थोप्लास्टी सेवाओं को अपग्रेड और स्टैन्डर्डाइज़ करवाने में भी चंद्रशेखर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चिकित्सा शास्त्र के जानकारों के मुताबिक, चंद्रशेखर ने घुटनों और कूल्हों के प्रत्यारोपण में गलत तरीकों पर अंकुश लगाने के लिए भरसक प्रयास किये हैं। चंद्रशेखर ने नी एंड हिप रिप्लेसमेंट के नाम पर लोगों को गुमराह करने, उन्हें धोखा देने और चिकित्सा के नाम रुपये ऐंठने के खिलाफ भी मुहीम शुरू की। कई सर्जन ज़रुरत न होने पर भी लोगों को गलत सलाह देकर उनके घुटनों या फिर कूल्हों का प्रत्यारोपण कर रहे थे। इतना ही नहीं, गलत तरीके अपनाकर ये प्रत्यारोपण किया रहा था। चंद्रशेखर की वजह से ही इस तरह की धांधली पर काफी हद तक रोक लगी है।
चिकित्सा-सुविधाओं के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए चंद्रशेखर को उत्तरप्रदेश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान – 'यश भारती पुरस्कार' से भी सम्मानित किया जा चुका है। हड्डियों से जुडी बीमारियों और उनके इलाज में आसाधारण काम के लिए उन्हें भारत में चिकित्सा-क्षेत्र के सबसे बड़े सम्मान – 'डॉ. बी सी रॉय अवार्ड' से भी सुशोभित किया गया है। वे प्रतिष्टित ''लोकनाथ शराफ मेमोरियल अवार्ड से भी नवाजे जा चुके हैं। वे कहते हैं, “अवार्ड मिलने से काम को मान्यता मिलती है और बहुत खुशी भी होती हैं। लेकिन, लोग मुझे एक ईमानदार डॉक्टर के रूप में जानते हैं और इसी बात को मैं अपनी सबसे बड़ी कामयाबी मानता हूँ। ऐसे लोग भी मेरा सम्मान करते हैं जिनसे मेरे वैचारिक और सैद्धांतिक मतभेद हैं। सम्मान मिला, सभी लोगों से प्यार मिला, इसी से मैं बहुत खुश हूँ।”
वैसे तो चंद्रशेखर के व्यक्तित्व की कई सारी खूबियाँ हैं लेकिन उनकी एक बड़ी खूबी ये भी है कि वे लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचने के बावजूद ज़मीन से अपना संबंध मज़बूत बनाये हुए हैं। उनमें न कामयाबियों का गुरूर हैं, और न ही धन-दौलत उनके आदर्शों और जीवन-शैली को बदल पायी है। लोगों की मदद करने का उनका जुनून गज़ब का है। अपने संकल्पों को पूरा करने के मामले में वे काफी हटीले दिखाई देते हैं और यही वजह भी है कि लोगों को सलाह देते हुए कहते हैं, “अगर मंजिल को पाना है तो अड़ियल होना ज़रूरी है। अगर किसी इंसान का इरादा पक्का है तो वो अपनी राह से नहीं डगमगाता और मेहनत के दम पर अपनी मंजिल हासिल कर ही लेता है।”