Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

पुरुष सहायक या महिला किसान?

खेतिहर महिलायें जिस तन्मयता से अपने काम को करती हैं उसके बदले में उन्हें उनके खेत मालिकों द्वारा शायद ही कभी सही पारिश्रमिक दिया गया हो! क्या गांठ और निशान पड़े खुरदरे हाथों को कभी अपनी मेहनत की वास्तविक कीमत नहीं मिलती? इन्हीं सब पर प्रस्तुत है एक रिपोर्ट...

बाजार की परिभाषा में किसान होने की पहचान इस बात से तय होती है कि ज़मीन का आधिकारिक मालिक कौन है, इस बात से नहीं कि उसमें श्रम किसका लग रहा है। उत्तर प्रदेश और केंद्रीय सरकार कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने हेतु अनेक प्रकार की योजनाएं, नीतियां व कार्यक्रम चलाती हैं परन्तु उन सबकी पहुंच महिलाओं तक नगण्य है। घर के लिए जलाऊ लकड़ी, पशुओं के लिए घास, परिवार के लिए लघु वन उपज, पीने का पानी समेत हर काम में महिलाओं की श्रम भूमिका केंद्रीय है, किंतु उनकी पहचान श्रमिक अथवा पुरुष सहायक के रूप में है, जिसकी वजह से कृषि सबंधी निर्णय, नियंत्रण के साथ-साथ किसानों को मिलने वाली समस्त सुविधाओं से 65 प्रतिशत कृषि कार्य का भार अपने कंधों पर उठाने वाली महिला, वंचित रह जाती है और इस सबके बावजूद उन्हें किसान का दर्जा नहीं मिलता है।

कृषि में अहम योगदान देने के बावजूद महिला श्रमिकों की कृषि संसाधनों और इस क्षेत्र में मौजूद असीम सम्भावनाओं में भागीदारी काफी कम है।

कृषि में अहम योगदान देने के बावजूद महिला श्रमिकों की कृषि संसाधनों और इस क्षेत्र में मौजूद असीम सम्भावनाओं में भागीदारी काफी कम है।


एक सर्वे के अनुसार उ.प्र. में कृषि विभाग द्वारा आयोजित प्रशिक्षण शिविरों में मात्र 0.6 प्रतिशत महिलाओं की सहभागिता रही तथा मात्र 09 प्रतिशत महिलाओं को मंडी समिति की जानकारी है, जबकि मंडी समिति में महिलाओं की सहभागिता मात्र 5.3 प्रतिशत है।

आंकड़ों की जुबानी तो यह है कि उत्तर प्रदेश में कृषिगत कार्यों में महिलाओं का योगदान 55.6 प्रतिशत है जबकि पुरुष का 5.5 प्रतिशत है, परन्तु नियंत्रण में स्थिति विपरीत है। महिला का नियंत्रण खेती में 4.2 प्रतिशत है, जबकि पुरुष का 47 प्रतिशत है। खेती के काम में लिए जाने वाले निर्णयों में उनकी सहभागिता लगातार कम हुई है खास तौर पर तब से,जब से संकर बीजों, रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के उपयोग और मशीनीकरण की व्यवस्था खेती की स्थानीय तकनीकों पर हावी हुई है।

महिला किसान का तसव्वुर करते ही खेतों में बीज बोती, फसल काटती, खाद बनाती, खरपतवार निकालती, रोपाई-निराई आदि करती महिला की तस्वीर एकाएक कौंध जाती है, लेकिन क्या यह तस्वीर उत्तर प्रदेश के संदर्भ में एक महिला किसान से अधिक श्रमिक अथवा पुरुष सहायक का प्रतिबिंबन नहीं करती है? यकीनन करती है। तो यक्ष प्रश्न खड़ा होता है कि महिला किसान कैसी होती देश के सबसे बड़े सूबे में? 

दरअसल व्यापक तौर पर कृषक समाज में महिलाओं की स्थिति को जांचने के लिए एक महत्वपूर्ण पैमाना है उनकी सहभागिता और उनके योगदान को मान्यता दिया जाना। जब हम कृषि क्षेत्र में लगी जनसंख्या (जो श्रम कर रहे हैं, उनकी संख्या) में महिलाओं की संख्या के बरक्स उन्हें मिलने वाले अधिकारों का आंकलन करते हैं, तब पता चलता है कि 21वीं सदी में भी कृषि क्षेत्र लैंगिक भेद के कैसे संक्रमित स्तर से गुजर रहा है। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में में कृषक और कृषि कार्यों से संबंधित परिवारों की लगभग 91.7 प्रतिशत महिलायें खेती के लिए जमीन तैयार करने, बीज चुनने, अंकुरण संभालने, बुआई करने, खाद बनाने, खरपतवार निकालने, रोपाई, निराई-गुड़ाई, भूसा सूपने और फसल की कटाई का काम करती हैं। वे ऐसे कई काम करती हैं जो सीधे खेत से जुड़े हुए नहीं हैं, पर कृषि क्षेत्र से संबंधित होते हैं। मसलन पशुपालन का लगभग पूरा काम उनके जिम्मे होता है। जहां मछली पालन होता है, वहां उनकी भूमिका बहुत अहम होती है। ये खेतिहर महिलायें जिस तन्मयता से अपने काम को करती हैं उसके बदले में शायद ही कभी सही पारिश्रमिक दिया गया हो इन्हे इनके 'खेत-मालिकों' के द्वारा। गांठ और निशान पड़े हुए खुरदरे हाथों को शायद ही कभी अपनी मेहनत की वास्तविक कीमत मिली हो। सारी मलाई एक तरफ और सारे अभाव, रिरियाहट, वंचना और यातना-तकलीफ एक तरफ। घर के लिए जलाऊ लकड़ी, पशुओं के लिए घास, परिवार के लिए लघु वन उपज, पीने का पानी समेत हर काम में महिलाओं की श्रम भूमिका केंद्रीय है, किंतु उनकी पहचान श्रमिक अथवा पुरुष सहायक के रूप में है। जिसकी वजह से कृषि सबंधी निर्णय, नियंत्रण के साथ-साथ किसानों को मिलने वाली समस्त सुविधाओं से 65 प्रतिशत कृषि कार्य का भार अपने कंधों पर उठाने वाली महिला, वंचित रह जाती है और इस सबके बावजूद उन्हें किसान का दर्जा नहीं मिलता है।

आंकड़ों की जुबानी तो यह है कि उत्तर प्रदेश में कृषिगत कार्यों में महिलाओं का योगदान 55.6 प्रतिशत है जबकि पुरुष का 5.5 प्रतिशत है, परन्तु नियंत्रण में स्थिति विपरीत है। महिला का नियंत्रण खेती में 4.2 प्रतिशत है, जबकि पुरुष का 47 प्रतिशत है। खेती के काम में लिए जाने वाले निर्णयों में उनकी सहभागिता लगातार कम हुई है खास तौर पर तब से,जब से संकर बीजों, रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के उपयोग और मशीनीकरण की व्यवस्था खेती की स्थानीय तकनीकों पर हावी हुई है।

85 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं द्वारा प्रतिदिन 4-8 घंटे का समय केवल कृषि कार्यों हेतु दिया जाता है

85 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं द्वारा प्रतिदिन 4-8 घंटे का समय केवल कृषि कार्यों हेतु दिया जाता है


बाजार की परिभाषा में किसान होने की पहचान इस बात से तय होती है कि जमीन का आधिकारिक मालिक कौन है, इस बात से नहीं कि उसमें श्रम किसका लग रहा है। प्रदेश और केंद्रीय सरकार कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने हेतु अनेक प्रकार की योजनाएं, नीतियां व कार्यक्रम चलाती हैं परन्तु उन सबकी पहुंच महिलाओं तक नगण्य है। एक सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश में कृषि विभाग द्वारा आयोजित प्रशिक्षण शिविरों में मात्र 0.6 प्रतिशत महिलाओं की सहभागिता रही तथा मात्र 09 प्रतिशत महिलाओं को मंडी समिति की जानकारी है जबकि मंडी समिति में महिलाओं की सहभागिता मात्र 5.3 प्रतिशत है। यही नहीं महिला किसानों को कृषि योजनाओं की जानकारी महज 7.6 फीसदी है जबकि किसान मित्र के विषय में 2.4 प्रतिशत महिलाओं को जानकारी है। प्रसार सेवाओं में महिला किसान की भागीदारी मात्र 12 प्रतिशत है।

85 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं द्वारा प्रतिदिन 4-8 घंटे का समय केवल कृषि कार्यों हेतु दिया जाता है, बावजूद उसके उन्हें कृषि सबन्धी समितियों व निर्णायक मंचों की कोई जानकारी नहीं होती, ऐसे में वह अपने बहुमूल्य अनुभव व ज्ञान दूसरों तक न पहुंचा पाती है न ही अपने प्रस्ताव व विचारों से नई दिशा प्रदान कर पाती हैं। कृषि में अहम योगदान देने के बावजूद महिला श्रमिकों की कृषि संसाधनों और इस क्षेत्र में मौजूद असीम सम्भावनाओं में भागीदारी काफी कम है। उत्तर प्रदेश में 32 प्रतिशत परिवारों के पास कृषिगत संसाधन है परन्तु उन पर महिलाओं के स्वामित्व का प्रतिशत शून्य है। मात्र 04 प्रतिशत महिलाओं के पास किसान क्रेडिट कार्ड मौजूद हैं। इस भागीदारी को बढ़ाकर ही महिलाओं को कृषि से होने वाले मुनाफे को बढ़ाया जा सकता है।

दीगर है कि भारत में आज भी सभी महिलाओं को मातृत्व, स्वास्थ्य और सुरक्षा का अधिकार मयस्सर नहीं है। कृषि क्षेत्र (किसान और कृषि मजदूर दोनों ही संदर्भों में) में काम करने वाली महिलाओं के सामने एक तरफ तो सूखा, बाढ़, नकली बीज-उर्वरक-कीटनाशक-फसल के मूल्य का अन्यायोचित निर्धारण सरीखे संकट हैं ही, इसके साथ ही उन्हें हिंसा-भेदभाव से मुक्ति और मातृत्व हक जैसे बुनियादी संरक्षण नहीं मिले हैं। वास्तव में हमें अपने विकास की धारा का ईमानदार आकलन करने की जरूरत है। हैरत है कि हम संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता चाहते हैं, किंतु अपनी महिला किसानों को सुरक्षा प्रदान नहीं कर पा रहे हैं।

दरअसल अब तक हम-सब उसे ही किसान कहते हैं, जिसकी अपनी जमीन होती है या जो हल जोतता है। फरवरी 2014 में जारी हुई कृषि जनगणना (2010-11) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में मौजूदा स्थिति में केवल 12.78 प्रतिशत कृषि जोतें महिलाओं के नाम पर हैं। उत्तर प्रदेश में महिला किसानों का भूमि पर स्वामित्व मात्र 6.5 प्रतिशत है। इसमें से 81 प्रतिशत महिलाओं को यह विधवा होने तथा 19 प्रतिशत को मायके से संपत्ति के रूप में प्राप्त हुआ है। स्वाभाविक है कि इस कारण से 'कृषि क्षेत्र' में उनकी निर्णायक भूमिका नहीं है। यह महज एक प्रशासनिक मामला नहीं है, कि जमीन के कागज पर किसका नाम है, वास्तव में यह एक आर्थिक-राजनीतिक विषय है, जिस पर सरकार कानूनी पहल नहीं कर रही है, क्योंकि उसका चरित्र भी तो पितृ-सत्तात्मक ही है।

जमीन का स्वामित्व एक अति आवश्यक सामाजिकआर्थिक पहलू है जिस पर व्यक्ति की पहचान उसके अधिकार, निर्णय की क्षमता, आत्मनिर्भरता व आत्मविश्वास निर्भर करती है। महिलाओं के पास जमीन पर अधिकार न होने से उनके सर्वांगीण विकास व सशक्तता पर पूर्ण विराम लग रहा है, साथ ही कठिन समय में पैतृक भूमि का समुचित उपयोग करने में वे अक्षम होती हैं। पुरुष के मालिक होने के कारण व्यसन व अकारण जमीन बिक्री पर रोक नहीं है जिससे पारिवारिक कृषि भूमि सुरक्षित नहीं रह पाती, महिला की कोई निर्णायक स्थिति न होने के कारण उसके द्वारा किया गया विरोध अक्सर प्रभावहीन होता है। अत: आवश्यक है कि पैतृक जोत जमीन में पत्नी का नाम भी पति के साथ सहखातेदार के रूप में दर्ज हो, ऐसा कानून में प्रावधान किया जाना आवश्यक है। समझने की आवश्यकता है कि पुरूषों का काम की तलाश में पलायन करना आदि जैसे अनेक कारणों से कृषि कार्य पुरूषों से ज्यादा महिलाओं के हाथ में चला गया है, मगर फिर भी महिलायें किसान नहीं हैं, क्योंकि उनके पास खतौनी (कृषि के मालिकाना हक का दस्तावेज) नहीं है अर्थात वह खेत की वास्तविक मालकिन नहीं है।

 मात्र 04 प्रतिशत महिलाओं के पास किसान क्रेडिट कार्ड मौजूद हैं।

 मात्र 04 प्रतिशत महिलाओं के पास किसान क्रेडिट कार्ड मौजूद हैं।


महिला किसानों के अधिकारों के लिये कार्य कर रहे युवा सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत सिंह कहते हैं कि जमींदारी उन्मूलन के 60 वर्षों के बाद भी महिला किसानों द्वारा बिना स्वामित्व की जमीन पर काम करना इस ऐक्ट की भावना का उल्लंघन जैसा है। भूस्वामित्व और किसानी के बीच का अंतर भारतीय कृषि संरचना का बुनियादी अवरोध है। इसके कारण सीमित संसाधनों का असक्षम उपयोग हो रहा है। भूमि, मकान, पशुधन और अन्य परिसंपत्तियों व कृषि संसाधनों पर अधिकार का अभाव महिला किसानों की कार्यकुशलता के रास्ते में एक बड़ा अवरोध है। महिला किसानों को न कर्ज मिल पाता है, न ही सिंचाई सुविधा।

अब 21वीं सदी में जब हर तरफ महिला सशक्तिकरण की बातें हो रहीं हैं, तो बातों से आगे बढ़ कर कुछ ठोस किये जाने की आवश्यकता है। कृषि भूमि सहित विभिन्न प्राकृतिक संसाधन महिलाओं के पक्ष में हस्तांरित होने चाहिए। सरकार को ऐसी कोई नीति बनानी चाहिए, जिससे ये असमानता दूर हो सके और प्राकृतिक संसाधन सिर्फ पुरूषों के हाथ में न रहें। उत्तर प्रदेश में महिला के नाम पैतृक जमीन के हस्तांतरण पर 06 प्रतिशत स्टांप शुल्क देय है। किंतु छोटे-मझोले किसानों के लिए इतनी बड़ी धनराशि देकर जमीन हस्तांतरण कराना सम्भव नहीं है। महिलाओं को भूस्वामित्व देने तथा उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने हेतु यदि सरकार वर्तमान कानूनों में थोड़ी सी शिथिलता बरतते हुए पति द्वारा पत्नी को पैतृक जोत जमीन हस्तातंरित करने पर स्टांप शुल्क माफ करने का प्रावधान कर दे तो इस छोटे से कदम से महिला किसानों की स्थिति में बड़ा ही सकरात्मक परिवर्तन आ जायेगा। इतिहास साक्षी है कि जब भी कृषि पर संकट के बादल छाये तो सभ्यता ने नारी के सहारे ही समाधान खोजा है। 

जब त्रेता में राजा जनक के राज्य में सूखा पड़ा था तब राजा के साथ रानी ने हल चलाया तो बरसात हुई थी। किन्तु आश्चर्य है कि परम्परा में महिलाओं का ही हल चलाना गुनाह करार दिया गया! राजा जनक एक योगी थे और आज उ.प्र. में एक योगी, राजयोगी के रूप में शासन कर रहा है। ऐसा लगता है जैसे समय किसी संयोग की बनावट को बुन रहा हो। संभव है जो त्रेता का योगी न कर सका, वह 21वीं सदी का योगी करे। और आदिम से आधुनिक तक, मदर इंडिया की नरगिस से लेकर गोरखपुर की प्रभावती तक वह सभी महिलायें जो हल चलाकर, कृषि कार्य करके, अपने परिवार का पेट पालती हैं, उन्हें उनके हिस्से के उजाले का सूरज 21वीं सदी के योगी के राज में प्राप्त हो जाये।

ये भी पढ़ें,

खत्म हो चुकी नदी को गांव के लोगों ने किया मिलकर जीवित