देश के लोगों की सैलरी में जमीन आसमान का फर्क क्यों?
किसी की सेलरी छः सौ भी नहीं और किसी की नौ करोड़, ऐसा क्यों?
एक ओर कॉरपोरेट सेक्टर की नौकरियां हैं, सरकारी सेवाएं हैं, दूसरी तरफ रोजमर्रा की जिंदगी में बीस-पचीस रुपए रोजाना की कमाई। देश-दुनिया के कई ग्रुप अब इसका मूल्यांकन करने लगे हैं। विषमता बढ़ती जा रही है। अमेरिका के बाद पूरी दुनिया में भारत ऐसा दूसरा देश है, जहां सेलरी स्ट्रक्चर में सबसे ज्यादा अंतर है। सीईओ की सेलरी तो नौ करोड़ रुपए तक पहुंच चुकी है।
वैसे वेतन की देयता कर्मी की योग्यता के स्तर पर निर्भर करती है। एक मजदूर और वैज्ञानिक के मासिक वेतन में अंतर होना स्वाभाविक है लेकिन वरिष्ठ राजनीतिक पदों पर बैठे जनप्रतिनिधियों को जब तमाम सरकारी सुविधाओं के साथ उच्च वैतनिक हैसियत से नवाजा जाता है तो जनता के कान खड़े होने स्वाभाविक हैं।
किसी की मासिक आय एक महीने में 600 रुपए भी नहीं, किसी की नौ करोड़ रुपए, है न चौंकाने वाली बात लेकिन बेलगाम विषमता से उपजी आज की सच्चाई यही है। वेतन किसी नियोक्ता से किसी कर्मचारी को मिलने वाले आवधिक भुगतान का एक स्वरूप है, जो एक नियोजन अनुबंध में निर्देशित होता है। यह टुकड़ों में मिलने वाली मजदूरी के विपरीत है, जहाँ आवधिक आधार पर भुगतान किये जाने की बजाय प्रत्येक काम, घंटे या अन्य इकाई का अलग-अलग भुगतान किया जाता है।
एक कारोबार के दृष्टिकोण से वेतन को अपनी गतिविधियाँ संचालित करने के लिए मानव संसाधनों की प्राप्ति की लागत के रूप में भी देखा जा सकता है और उसके बाद इसे कार्मिक खर्च या वेतन खर्च का नाम दिया जाता है। लेखांकन में वेतनों को भुगतान संबंधी खातों में दर्ज किया जाता है। भारत में आईटी सेक्टर सबसे ज्यादा रोजगार दे रहा है और इस सेक्टर में कार्यरत कर्मचारियों को सबसे अधिक वेतन मिलता है। एक घंटे की औसत सेलरी 346.42 रुपये है, लेकिन इस सेक्टर के केवल 57.4 प्रतिशत कर्मचारी अपनी तनख्वाह से संतुष्ट हैं। बैंक, वित्त एवं बीमा क्षेत्र दूसरे पायदान पर आते हैं, जहां घंटे की औसत सेलरी 300.23 रुपये है।
मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में कार्यरत लोगों को सबसे कम सेलरी दी जा रही है। इस क्षेत्र में घंटे का औसत वेतन 254.04 रुपये है। इस क्षेत्र में कर्मचारियों को संपूर्ण भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए औसत घंटे के वेतन से भी करीब नौ प्रतिशत कम वेतन 279.7 रुपये मिलता है। अब आइए, जरा सिक्के के दूसरे पहलू पर नजर दौड़ाते हैं। हाल ही में 'ब्लूमबर्ग' की एक रिपोर्ट ने बड़े-बड़ों को चौंका दिया है। हमारे देश में आम कर्मचारियों के मुकाबले सीईओ की तनख्वाह 243 गुना ज्यादा है। इसका कारण ये है कि इनको वेतन के साथ-साथ जमकर बोनस भी दिए जाते हैं। इनके वेतन इस तरह उछले हैं कि 12.1 प्रतिशत बढ़ोत्तरी के साथ उछलकर 9.8 करोड़ रुपये तक पहुंच गए हैं। रिपोर्ट में एक और सच्चाई का खुलासा किया गया है कि अमेरिका के बाद दुनिया में सीईओ और आम कर्मचारियों के औसत वेतन के बीच सबसे अधिक अंतर भारत में है।
वैसे वेतन की देयता कर्मी की योग्यता के स्तर पर निर्भर करती है। एक मजदूर और वैज्ञानिक के मासिक वेतन में अंतर होना स्वाभाविक है लेकिन वरिष्ठ राजनीतिक पदों पर बैठे जनप्रतिनिधियों को जब तमाम सरकारी सुविधाओं के साथ उच्च वैतनिक हैसियत से नवाजा जाता है तो जनता के कान खड़े होने स्वाभाविक हैं। यद्यपि आज के यूथ को कान खड़े करने की जरूरत नहीं हैं। उनके लिए भी भारी-भरकम वेतन की संभावनाएं अब उनका इंतजार कर रही हैं। अगर आप टेक्निकल राइटर की योग्यता रखते हैं और किसी आईटी फर्म या प्रोग्रामिंग कंपनी में नौकरी करते हैं तो आप को पचास हजार से लेकर पौने दो लाख रुपए तक सेलरी मिल सकती है।
इसी तरह रिलेशनशिप थैरेपिस्ट की हमारे देश में बड़ी स्कोप है। इसमें नौकरी लगते ही तीस हजार से से एक लाख तक वेतन मिल सकता है। सेलरी की दृष्टि से सीईओ एनालिस्ट का भी करियर शानदार है। इसमें शुरूआत में भी नौकरी लगते ही तीस हजार से एक लाख तक वेतन मिल सकता है। आज हर कंपनी खुद के एप्प लॉन्च करने लगी है। किसी में टैलेंट है तो वह इसकी नौकरी में पचास हजार रुपए से पांच लाख रुपए तक मासिक कमा सकता है। क्वालिटी एज्यूकेशन सेक्टर में भी बड़ी सेलरी के पर्याप्त स्कोप हैं। कोई भी मास्टर या पीएचडी डिग्री धारक प्रोफेसर के रूप में 40 हजार से चार लाख रुपए तक प्रति माह कमा सकता है।
इसी तरह एक पायलट की नौकरी कर शुरूआत में डेढ़ लाख से 3 लाख रुपए तक प्रति माह सेलरी मिल सकती है। अंतरिक्ष विज्ञान सेक्टर में रोजगार मिल जाए तो डॉक्टरेट डिग्री धारक को 33 हजार से 56 हजार रूपए तक प्रति माह सैलरी मिल जाती है। ग्रोथ हैकिंग मार्केटिंग चैनल्स में में काम पाने के लिए कम से कम स्नातक होना चाहिए। यहां हर महीने 60 हजार से तीन लाख रूपए मिल सकते हैं। और यदि कहीं आप डेटा एनालिस्ट की योग्यता रखते हों तो 50 हजार रुपए से चार लाख तक हर महीने वेतन पाने से कोई नहीं रोक सकता है।
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हमारे देश में बड़ी वैतनिक विषमता की एक अहम वजह है राजनीति। संगठित क्षेत्र के कर्मी वोट की राजनीति करने वाली सरकारों को अपने जनबल से दबाव में रखते हैं। उनका वेतन उछलता जाता है। सत्ताधारी उन्हें किसी भी कीमत पर नाराज नहीं करना चाहते हैं, जबकि बाकी असंगठित क्षेत्रों में बारह से अठारह घंटे तक टहल बजाकर भी उनके मुकाबले एक चौथाई भी वेतन भी उनसे ज्यादा योग्य होने के बावजूद नहीं मिल रहा है। हाल ही में केंद्रीय कर्मचारियों के लिए सातवां वेतन आयोग का नियामत बनकर वेतन बरसा है।
न्यूनतम वेतनमान सात हजार रुपये से बढ़ाकर 18 हजार रुपये कर दिया गया है। सरकारी कर्मचारी चाहते हैं, इसे 26 हजार कर दिया जाए। सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के साथ ही केंद्रीय कर्मचारियों के संगठनों ने न्यूनतम वेतनमान और फिटमेंट फॉर्मूला पर आपत्ति जताई थी और अनिश्चितकालीन हड़ताल पर जाने की धमकी दी थी। बाद में सरकार ने कर्मचारी नेताओं से बातचीत कर चार महीने का समय मांगा था और फिर दोनों पक्षों के बीच बातचीत का दौर शुरू हुआ। सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने पर कुल खर्च 30,748.23 करोड़ रुपये अतिरिक्त हो चुका है। इससे 7.5 लाख से ज्यादा कर्मचारी लाभान्वित हो रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या यह अन्य सेक्टर्स में काम कर रहे लोगों की तुलना में देश के आंतरिक हालात की दृष्टि से यह वैतनिक असंतुलन सहनीय है!
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