हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहां, कल वहां चले
भगवती चरण वर्मा के अन्य लेखकों से एक विशेष अंतर यह भी रहा कि वह कभी किसी 'वाद' के आकर्षण में नहीं रहे। उनके जीवन पर गहरी दृष्टि डालें तो उनका साहित्यिक जीवन छायावादी कविताओं की प्रकृति से प्रस्फुटित होता है। आज उनका जन्मदिन है।
भगवती चरण वर्मा हमेशा अपने किसी भी तरह के तनाव छोड़कर गाते-झूमते, हंसते-हंसाते आगे बढ़े। कवि के रूप में उनके रेडियो रूपक 'महाकाल', 'कर्ण' और 'द्रोपदी' प्रसारित हुए, जिनका 'त्रिपथगा' के नाम से पुस्तक में में प्रकाशन भी हुआ।
वह जितना अपने परिचितिों, सुपरिचितों के बीच खुले मन से रहे, उतने ही अपनी रचनाओं में भी। एक अजीब तरह का फक्कड़पन था उनके रचनात्मक सरोकारों में भी।
'चित्रलेखा', 'भूले-बिसरे चित्र' जैसी कालजयी उपन्यासों के लेखक भगवतीचरण वर्मा को हिन्दी साहित्य में जितनी प्रसिद्धि उनके उपन्यासों से मिली, काव्य रचना में भी वह उतने ही लोकप्रिय रहे। आज (30 अगस्त) उनका जन्मदिन है। उनको भूले बिसरे चित्र पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। वह उन्नाव (उ.प्र.) के गांव सफीपुर के रहने वाले थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए, एलएलबी करने के बाद वह लंबे समय तक पत्रकारिता, फिल्म और आकाशवाणी से जुड़े रहे। कालांतर में स्वतंत्र लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। वह मानद रूप से राज्यसभा सदस्य भी रहे। अपनी रचनाधर्मिता में वह मुख्यत: उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध हैं लेकिन उनका शायराना स्वभाव, बोलचाल में मस्ती भरा अल्हड़पन, सहज और सुपठनीय कविताएं उनके व्यक्तित्व के प्रगाढ़ काव्यपक्ष की कुशलता को छिपी नहीं रहने देती हैं-
तुम सुधि बन-बनकर बार-बार क्यों कर जाती हो प्यार मुझे? फिर विस्मृति बन तन्मयता का दे जाती हो उपहार मुझे।मैं करके पीड़ा को विलीनपीड़ा में स्वयं विलीन हुआअब असह बन गया देवि,तुम्हारी अनुकम्पा का भार मुझे।जिसको समझा था प्यार, वहीअधिकार बना पागलपन काअब मिटा रहा प्रतिपल,तिल-तिल, मेरा निर्मित संसार मुझे।
भगवती चरण वर्मा के अन्य लेखकों से एक विशेष अंतर यह भी रहा कि वह कभी किसी 'वाद' के आकर्षण में नहीं रहे। उनके जीवन पर गहरी दृष्टि डालें तो उनका साहित्यिक जीवन छायावादी कविताओं की प्रकृति से प्रस्फुटित होता है। इसके बावजूद वह छाया-'वाद' के होकर नहीं रह जाते हैं। यानी उनके शब्दों में मिठास तो छायावादी थी, लेकिन उनका यथार्थ साहित्य के व्यापक फलक से उनकी पहचान को विस्तार देता है। उन्होंने अपने भीतर के रचनाकार को कभी किसी 'वाद' से घिरने-बंधने नहीं दिया। वह जितना अपने परिचितिों, सुपरिचितों के बीच खुले मन से रहे, उतने ही अपनी रचनाओं में भी। एक अजीब तरह का फक्कड़पन था उनके रचनात्मक सरोकारों में भी-
हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहां, कल वहां चलेमस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहां चलेआए बनकर उल्लास कभी, आंसू बनकर बह चले अभीसब कहते ही रहगए, अरे तुम कैसे आए, कहां चलेकिस ओर चले? मत ये पूछो, बस चलना है इसलिए चलेजग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चलेदो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हंसे और फिर कुछ रोए छक कर सुख-दुःख के घूंटों को, हम एक भाव से पिए चलेहम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चलेहम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चलेहम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुकेहम हंसते हंसते आज यहां, प्राणों की बाजी हार चलेअब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले हम स्वयं बंधे थे और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले
भगवती चरण वर्मा हमेशा अपने किसी भी तरह के तनाव छोड़कर गाते-झूमते, हंसते-हंसाते आगे बढ़े। कवि के रूप में उनके रेडियो रूपक 'महाकाल', 'कर्ण' और 'द्रोपदी' प्रसारित हुए, जिनका 'त्रिपथगा' के नाम से पुस्तक में में प्रकाशन भी हुआ। उनकी प्रसिद्ध कविता 'भैंसागाड़ी' काफी चर्चाओं में रही-
चरमर- चरमर- चूं- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी! गति के पागलपन से प्रेरित चलती रहती संसृति महान; सागर पर चलते हैं जहाज, अंबर पर चलते वायुयान, पर इस प्रदेश में जहां नहीं उच्छ्वास,भावनाएं चाहे, वे भूखे अधखाये किसान, भर रहे जहां सूनी आहें, नंगे बच्चे, चिथरे पहने, माताएं जर्जर डोल रही, है जहां विवशता नृत्य कर रही,धूल उड़ाती हैं राहें! भर-भरकर फिर मिटने का स्वर,कंप-कंप उठते जिसके स्तर-स्तर, हिलती-डुलती,हंफती-कंपती, कुछ रुक-रुककर, कुछ सिहर-सिहर, चरमर- चरमर- चूं- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी!