कविता के मनोरंजन का बाज़ार
खत्म होती दुनिया में बची-खुची कविता के चिन्ह...
आज कविता में भी चुटकुलेबाज़ी का जमाना है। ऐसे ही कवि मंचों पर छाए हुए हैं। हंसोड़, गलेबाज और दर्शनीय ही आमंत्रित किए जा रहे हैं। ऐसे मंचों के तो ठेके भी उठने लगे हैं। काव्य-रस के मनोरंजन के बाज़ार का ही बोलबाला है। अब बेचारा श्रोता तो उसी का आस्वादन करता है न, जो उसके सामने परोसा जाता है। यदि यह कहा जाय कि कविता के नाम पर आजकल प्रपंच का ही बोलबाला है, तो अतिशयोक्ति न होगी।
हमारे समय का यह सबसे बड़ा सवाल है कि 'शब्दों की दुनिया कैसे खूबसूरत बनी रहे!'
नागार्जुन हिंदी में मैथिली कविता लिखते थे, इसलिए जनकवि हो सके। बिना जनपद के जनकवि नहीं हुआ जाता है। धीरे-धीरे कवियों में यह कहने का साहस खोता गया कि ‘उस जनपद का कवि’ हूँ। जब साहस ही खो गया तो शब्द को तो मरना ही था, सो मर गया।
हमारे समय का यह सबसे बड़ा सवाल है कि 'शब्दों की दुनिया कैसे खूबसूरत बनी रहे!' सवाल तो यह है कि अपनी कविता में हमारे खुद के लिए जीवन-शक्ति कितनी है और यह भी कि कविता हमारे खुद के जीवन की प्रतिज्ञा चाहे जितनी बड़ी हो, प्रेरणा कितनी बड़ी है! हमने अपने समय में श्रेष्ठ साहित्य के महत्त्व को भुला-सा दिया है। वरिष्ठ लेखक प्रफुल्ल कोलख्यान कहते हैं, कि कविता कोई बौद्धिक कार्रवाई तो है नहीं, सो लिखी जाती है अचेत मन से। कोई भी कविता जब हमारे अनुभव का हिस्सा बनती है तो उसकी अनुभूतियाँ हमारे मन को नये सिरे से सँवारती है। आज शायद सबसे अधिक संख्या में कविता लिखी जाती हैं और सब से कम संख्या में पढ़ी जाती हैं! तो कविता के साथ क्या हुआ! हिंदी कविता के साथ! अन्य भाषा की कविताओं के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा। हिंदी में हिंदी कविता लिखना मुश्किल होता गया। नागार्जुन हिंदी में मैथिली कविता लिखते थे, इसलिए जनकवि हो सके। बिना जनपद के जनकवि नहीं हुआ जाता है। धीरे-धीरे कवियों में यह कहने का साहस खोता गया कि ‘उस जनपद का कवि’ हूँ। जब साहस ही खो गया तो शब्द को मरना ही था, सो मर गया। हिंदी कवि हिंदी कविता की जगह भारतीय कविता की ओर बढ़ गये। इधर स्थानीय कवि भी लपककर भारतीय कविता बनाने की दौड़ में शामिल हो गये तो अगला विश्व-कविता लिखने लगा। जो इशारा न समझे उसे आगे कुछ भी कहना बेकार है। इसलिए, अब आगे कहना जरूरी नहीं कि हिंदी कविता के साथ क्या हुआ।
कवि-समीक्षक भारतेंदु मिश्र कहते हैं कि सभी विधाओं के कवि स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। गीतवाले, गजलवाले, मुक्तछंद वाले, हाइकूवाले, दोहेवाले, छंदहीनतावाले, सब कविता के शिल्प को लेकर एकत्र नहीं होते। विधा के आधार पर एकत्र हो भी जाएं तो अपनी खेमेबाजी के कारण विचारधारा के आधार पर एकत्र नहीं होते-वामपंथ, दक्षिणपंथ, जनवाद, प्रगतिशील, समाजवादी, सांस्कृतिक राष्ट्रवादी जैसे अनेक खेमे हमारे समाज में बन चुके हैं। सबको एक साथ जोड़ना आसान नहीं है लेकिन एक न एक दिन तो कविता को और कवियों को समावेशी सामाजिक संरचना के लिए एकत्र होना ही होगा।
हमारे समय का एक बड़ा सवाल यह भी चर्चाओं में रहता है, कि कवि-मंचों पर कविता के नाम पर हो रहा प्रपंच कैसे थमे। कबीर कहते थे, सांच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना, सन्तो रे देखो जग बौराना। तो कविता पर विचार-विमर्श और विचार-मंथन लम्बे समय से हो रहा है। दुनिया का कौन-सा विषय है, जो कविता में नहीं आता। छंद में या छंद से बाहर, कविता लिखने का कोई बंधा बंधाया फार्मूला नहीं हो सकता। कविता कैसे लिखी जाये लेकिन उसकी हैसियत है, जिससे, जो सधता है, उस तरह वह लिख सकता है।
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सेवाराम त्रिपाठी का मानना है कि मंचीय कविता और सामान्य कविता में पहले भी फ़र्क था और आज भी है। मंच का भी एक सुदृढ़ बाज़ार और समाजशास्त्र रहा है। कवि मंचों से टीवी तक जो कविताएं गुनगुना रहे हैं, उनमें कुछ स्तरीय होती हैं, कुछ ऐसे ही, इसे आप तथा कथित लोक प्रियता में माप सकते हैं। मंचों से काका हाथरसी ने, और न जाने कितनों ने वाहवाही लूटी। आज तो रसों के मनोरंजन का बाज़ार बढ़ा है। अमूमन एक कवि सम्मेलन में तरह-तरह के रसवादी, मनोरंजनवादी कवि बुलाये जाते हैं। उनकी अनेक तरह की कोटियां हो गयी हैं। मंच की कविता का सम्बंध गले से और खूबसूरती से जोड़ दिया गया है। प्रायः कोई गम्भीर कवि मंचों पर नहीं बुलाया जाता है। हंसोड़, गलेबाज और दर्शनीय ही बुलाये जाते हैं। मंच ठेके पर भी उठने लगे हैं।
कवि शैलेंद्र शर्मा का मानना है कि आज चुटकुलेबाज़ कवि ही मंचों पर छाए हुए हैं। जिस किसी मंचीय कवि के पास साल में एकाध कवि सम्मेलन अपने स्तर से करने/कराने का जुगाड़ होता है, वह अपने सम्पर्क /जुगाड़ के बदौलत आयोजन का ठेका ले लेता है और अपने पिछलग्गुओं की टीम जो अधिकांशत: दूसरे /तीसरे दर्जे की होती है, उसे मंचीय रेवड़ियाँ बाँट कर संयोजन की वल्गाएँ थमाकर देश-विदेश का भ्रमण करता रहता है।
हाँ, एक-दो ठीक-ठाक कवि टीम में रखना सफल आयोजन के लिए उसकी मज़बूरी होती है पर ऐसे में वह अपनी विधा से इतर कवियों को ही अपनी टीम में स्थान देता है, जिससे कोई उसका स्थानापन्न न बन सके। अब बेचारी जनता तो उसी का आस्वाद लेगी, जो उसे परोसा जायेगा। हरिशंकर व्यास कहते हैं, कि जो जितनी खूब सूरत है, भाव, मोल भी उसका ही निःसंदेह ज़्यादा हुआ करता है। शब्द चमत्कृत हैं, सुन्दर हैं, ओज से भरपूर हैं आदि बातें। उसके भाव-सम्प्रेषण पर निर्भर करते हैं। मेरे निजी विचार से इनको अर्थ प्रपंच से बचाना, असाध्य रोग का ग़लत दवा से उपचार करने जैसा होगा।