Book Review: देश की कमान संभाल रही औरतों से भी मर्दों को है विनम्र और आज्ञाकारी होने की उम्मीद
ऑस्ट्रेलिया की प्रधानमंत्री रह चुकी जूलिया गिलार्ड की यह किताब हर महिला और हर पुरुष को जरूर पढ़नी चाहिए.
“मैं आज भी खुद से लगातार ये सवाल करती हूं कि क्या मुझमें वह गुण और व्यक्तित्व है, जो इस राजनीतिक माहौल में फिट रहने के लिए जरूरी है. मैं एक संवेदनशील इंसान हूं. प्यार करती हूं, पिघल जाती हूं, करुणा बरतती हूं. राजनीति का आक्रामक पहलू मुझे पसंद नहीं. मैं मनुष्यता, सदाशयता और करुणा के साथ लोगों से जुड़ना और उनके साथ रहना चाहती हूं.”
ये पंक्तियां न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्दर्न की है, जो वो एक इंटरव्यू के दौरान कहती हैं. यह इंटरव्यू जूलिया गिलार्ड और नगोजी ओकोन्जो इविला की किताब “विमेन एंड लीडरशिप: रीअल लाइव्स, रीअल लेसंस” में प्रकाशित है. इस शानदार किताब में जेसिंडा अर्दर्न, हिलेरी क्लिंटन, लॉयस बेंडा, एर्ना सोलबर्ग और क्रिस्टीन लेगार्द समेत कई महिलाओं के लंबे साक्षात्कार हैं.
यह किताब लिखी है दो बहुत प्रेरक और पावरफुल महिलाओं ने, जिन्होंने खुद अपने जीवन में बेहतरीन लीडरशिप की मिसाल पेश की है. ये दो महिलाएं हैं जूलिया गिलार्ड और नगोजी ओकोन्जो इविला. वर्ष 2010 में ऑस्ट्रेलिया की 27वीं प्रधानमंत्री बनने वाली जूलिया गिलार्ड प्रधानमंत्री दफ्तर की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठने वाली ऑस्ट्रेलिया की पहली महिला थीं. नगोजी ओकोन्जो इविला दो बार नाइजीरिया की प्रधानमंत्री रह चुकी हैं और इस वक्त वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन की डायरेक्टर जनरल हैं.
अपने-अपने क्षेत्रों में टॉप की पोजीशन पर पहुंची ये दो बेहद सफल और पावरफुल महिलाएं दुनिया भर की दूसरी सफल महिला लीडरों से जो सवाल पूछती हैं और उनके अनुभवों को को जिस तरह सामने रखती हैं, उससे समझ में आता है कि चाहे कोई सामान्य स्त्री हो या किसी देश की प्रधानमंत्री, स्त्रियों के सामने सवाल, चुनौतियां और मुश्किलें एक जैसी ही हैं. हर जगह उन्हें जेंडर से जुड़े पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है.
समय-समय पर ऐसी बहुत से सर्वे और स्टडी आते रहते हैं, जो बताते हैं कि बोर्ड रूम से लेकर पार्लियामेंट तक हर जगह समाज महिला लीडरों के बारे में क्या राय रखता है और उन्हें कैसे देखता है. और ये पूर्वाग्रह भौगोलिक सीमा में बंधे हुए नहीं हैं. संभवत: तीसरी दुनिया के देशों में इन पूर्वाग्रहों की जड़ें ज्यादा गहरी हो सकती हैं और लीडरशिप भूमिकाओं में स्त्रियों की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम हो सकती है, लेकिन सच तो ये है कि यूरोप, अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी जेंडर पूर्वाग्रह कम नहीं हैं.
हिलेरी क्लिंटन का इंटरव्यू पढ़ते हुए आपको बहुत शिद्दत से महसूस होता है कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश की सबसे ताकतवर कुर्सी की उम्मीदवार भी उनके समाज के लिए पहले एक औरत है और उस औरत के राष्ट्रपति हो सकने की संभावना भर से लोगों को दिक्कत होने लगती है.
यह किताब बहुत बारीक स्तरों पर जाकर उन पूर्वाग्रहों की पड़ताल करती है, हर महिला को जिसका सामना करना पड़ता है. चाहे वह हाउस वाइफ हो या फिर किसी देश की प्रधानमंत्री. एक बार सुप्रीम कोर्ट की जज महिला ने कहा था कि अगर हमारी किसी फाइल पर हल्दी या मसाले का दाग लग जाए तो उसे भी लेकर सहकर्मी पुरुष हमारा मजाक उड़ाते हैं. बाहर से देखने पर यह मजाक गंभीर नहीं लगते और हल्के-फुल्के हंसी के अंदाज में ही कहे गए होते हैं. लेकिन सच तो ये है कि इस तरह के व्यंग्य और चुटकुटों के पीछे भी कहीं गहरे बैठा यह पूर्वाग्रह काम कर रहा होता है कि औरत की असली जगह घर और रसोई है. वह दुनिया चलाने के काबिल नहीं. यह पुरुषों का इलाका है.
दुनिया के बाकी हिस्सों में स्कैंडिनेवियन देशों की यह छवि है कि वहां जेंडर बराबरी है. नौकरियों से लेकर राजनीति तक में महिलाओं की बराबर शिरकत है और महिलाओं के सारे बराबरी के अधिकार प्राप्त हैं. इस किताब में नॉर्वे की महिला लीडर एर्ना सोलबर्ग का लंबा इंटरव्यू है. उस इंटरव्यू की भाषा, उसके सवाल और उन सवालों के जवाब ऐसे हैं कि तीसरी दुनिया के किसी मामूली से देश के छोटे से शहर में बैठी लड़की भी उससे रिलेट कर सकती है.
उस देश में औरतों की स्थिति भले बाकी दुनिया की औरतों से बेहतर हो, लेकिन संसद के भीतर बैठे पुरुषों की सोच, उनकी भाषा और पूर्वाग्रह तीसरी दुनिया से बहुत अलग नहीं हैं. एर्ना सोलबर्ग के सामने भी वही चुनौतियां हैं, जो भारत की संसद में बैठकर महिला अधिकारों के लिए आवाज उठा रही किसी महिला के सामने हैं.
यह किताब आपके सामने सिर्फ सवाल ही नहीं खड़े करती, बल्कि उसका हल भी बताती है. वो उपाय और तरीके भी सुझाती है, जिससे भविष्य की लीडर महिलाएं इस दुनिया में भेदभाव और पूर्वाग्रहों से लड़कर अपने लिए बराबरी की जगह बना सकती हैं.
Edited by Manisha Pandey