वो क्लासिक डायरेक्टर जिनकी फिल्में अपने आप में एक यूनिवर्सिटी हैं
विश्व सिनेमा का इतिहास गुरुदत्त के ज़िक्र के बिना अधूरा है। भारतीय सिनेमा में मिसाल बन चुके गुरुदत्त एक ऐसे कलाकार थे, जिन्होंने अपने जीवन को सिनेमा का पर्दा समझा और उसमें ही अपना सब कुछ झोंक दिया। उनके अंदर एक अजीब सी बेचैनी थी, पर्दे पर कुछ अद्भुत और अद्वितीय रचने की बेचैनी! पूरी दुनिया के करीब-करीब हर फिल्मी संस्थान में, जहां सिनेमा के तकनीकी पहलू सिखाए जाते हैं, गुरुदत्त की तीन क्लासिक फिल्मों को टेक्स्ट बुक का दर्जा हासिल है, वो हैं 'साहिब बीबी और गुलाम', 'प्यासा' और 'कागज़ के फूल'...!
गुरुदत्त की विशेषताएं उनकी फिल्मों से कहीं ज़्यादा विस्तृत हैं। अपने ख्यालों को, अपनी सोच को किस तरह से रूपहले पर्दे पर जीवंत होते देखा जा सकता है, इसे परखने की उनकी कला के सभी कायल थे।
वर्ष 2010 में सीएनएन के ऑल टाइम 25 सर्वश्रेष्ठ एशियाई अभिनेताओं में गुरु दत्त भी शामिल हुए। उनके हुनर के चलते ही उन्हें भारत का ऑर्सन वेल्स भी कहा जाता था। बहुत कम लोग ही जानते हैं कि गुरु दत्त कोरियोग्राफी का भी हुनर जानते थे और खुद बहुत अच्छे कोरियोग्राफर भी थे। गुरुदत्त ने सिनेमा को जो गहराईयां उस समय में दी थी, वो तब भी बड़ी बात थी और आज भी बड़ी बात है।
पर्दे पर रची गयी सिनेमा की जादुई दुनिया में जो भी ज़रा गहरे तक उतरा है वो गुरुदत्त को भूल नहीं सकता। विश्व सिनेमा का इतिहास गुरुदत्त के ज़िक्र के बिना अधूरा है। भारतीय सिनेमा में मिसाल बन चुके गुरुदत्त एक ऐसे कलाकार थे, जिन्होंने अपने जीवन को सिनेमा का पर्दा समझा और उसमें ही अपना सब कुछ झोंक दिया। उनके अंदर एक अजीब-सी बेचैनी थी। पर्दे पर कुछ अद्भुत और अद्वितीय रचने की बेचैनी। पूरी दुनिया के करीब-करीब हर फिल्म संस्थान में, जहां सिनेमा के तकनीकी पहलू सिखाए जाते हैं, गुरुदत्त की तीन क्लासिक फिल्मों को टेक्स्ट बुक का दर्जा हासिल है, वो हैं 'साहिब बीबी और गुलाम', 'प्यासा' और 'कागज़ के फूल'। सिनेमा की गहरी समझ के साथ-साथ वह समय से काफी आगे की सोच रखने वाले फिल्मकार थे। कागज के फूल में कैमरे के क्लोज़अप शॉट्स का इस्तेमाल जिस तरह उन्होंने किया, वह आज भी कल्ट माना जाता है। हांलाकि गुरुदत्त की विशेषताएं इन तीन फिल्मों से कहीं ज़्यादा विस्तृत हैं। अपने ख्यालों को, अपनी सोच को किस तरह से रूपहले पर्दे पर जीवंत होते देखा जा सकता है, इसे परखने की उनकी कला के लोग आज भी कायल हैं।
पूरी दुनिया है गुरुदत्त की कायल
प्यासा और काग़ज़ के फूल को टाइम पत्रिका की 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूची में शामिल किया गया और साइट एंड साउंड आलोचकों और निर्देशकों के सर्वेक्षण में गुरु दत्त को सबसे बड़े निर्देशकों में जगह मिली। वर्ष 2010 में सीएनएन के ऑल टाइम 25 सर्वश्रेष्ठ एशियाई अभिनेताओं में गुरु दत्त का नाम भी शामिल हुआ। उनके हुनर के चलते ही उन्हें भारत का ऑर्सन वेल्स भी कहा जाता है। बहुत कम लोग ही जानते हैं, कि गुरु दत्त कोरियोग्राफी का भी हुनर जानते थे और खुद बहुत अच्छे कोरियोग्राफर थे। गुरुदत्त ने सिनेमा को जो गहराईयां उस समय में दी थी, वो तब भी बड़ी बात थी और आज भी बड़ी बात है। उनकी खास अदाकारी और मर्म तक उतर जाने वाले निर्देशकीय कौशल ने उन्हें अमर बना दिया है।
एक महान डायरेक्टर, संवेदनशील अदाकार और उम्दा कोरियोग्राफर
गुरुदत्त की प्रारंभिक शिक्षा कोलकाता में हुई। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कुछ दिनों के लिए एक कंपनी में टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी की। नृत्य के लिए गुरुदत्त के पैर शुरू से ही बेचैन रहा करते थे। कोलकाता में एक समारोह में उनकी मुलाकात विख्यात नृत्यकार उदय शंकर से हुई। नृत्य के प्रति उनके जुनून के बारे में जानकर उदय शंकर ने उन्हें अल्मोड़ा आने का निमंत्रण दिया, जहां उदय शंकर नृत्य प्रशिक्षण संस्थान का संचालन करते थे। गुरुदत्त उनके पास पहुंच गए और साल भर उनसे नृत्य सीखते रहे। उदय जी के पास ही गुरुदत्त को एहसास हो गया कि फिल्मों में वे ना सिर्फ़ अपनी प्रतिभा का सही इस्तेमाल कर पाएंगे बल्कि रोज़गार से भी नाता जुड़ जाएगा। गुरुदत्त पुणे पहुंचे और थोड़े संघर्ष के बाद उन्हें प्रभात फ़िल्म कंपनी में काम मिल गया। 1945 में फ़िल्म 'लाखारानी' से उन्होंने करियर शुरू किया। 1946 में फ़िल्म 'हम एक हैं' में उन्होंने सहायक निर्देशक और नृत्य निर्देशक की ज़िम्मेदारी निभायी।
1947 में प्रभात फिल्म कंपनी से गुरुदत्त का अनुबंध समाप्त हो गया। उन दिनों गुरुदत्त की दोस्ती देवानंद से हो गई, दोस्ती की ये कहानी भी बहुत दिलचस्प है।
देवानंद और गुरुदत्त दोनों एक ही लाॉन्ड्री से कपड़े धुलवाते थे। एक दिन दोनों की शर्ट बदल गई। बस वहां से शुरू हुई दोस्ती में दोनों ने एक दूसरे से वादा किया कि जब भी फिल्म में काम मिलेगा वो एक दूसरे को मौका जरूर देंगे। देवानंद की फिल्म कंपनी नवकेतन ने 1951 में फिल्म 'बाजी' बनाने का फैसला किया, तो निर्देशन की कमान गुरुदत्त को सौंपी। फिल्म सुपरहिट रही पर इसके बाद की दो फिल्में 'जाल' और 'बाज' फ्लॉप रहीं। 'बाज' में गुरुदत्त पहली बार पर्दे पर हीरो के तौर पर नजर आए थे। गुरुदत्त और देवानंद के बीच इस वक्त कुछ मन मुटाव रहा जिसके चलते गुरुदत्त ने अपनी फिल्म कंपनी बना ली। उसी बैनर पर 1954 में पहली फिल्म 'आर पार' बनाई। फिल्म के गीत संगीत को खूब सराहना मिली। इसके बाद 1955 में गुरुदत्त ने मि. एण्ड मिसेज़ 55 बनाई। ओपी नैय्यर के संगीत से सजी इस फ़िल्म के गाने खूब चले।
बेचैन दिल ने रची कई महान फिल्में
गुरुदत्त के अंदर हर पल कुछ नया करने की बेचैनी थी, उसकी शायद यही वजह थी कि उन्हें जब कभी लगता था कि वह किसी फिल्म के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं, तो उसे अधूरा छोड़ देते थे। गुरुदत्त की बेचैनी कम नहीं हुई उन्होंने 1957 में 'प्यासा' बनाई। ये फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। प्यासा एक ऐसे नौजवान की कहानी थी जिसे समाज से सिर्फ संघर्ष मिलता है। लोगों का कहना है कि ये गुरुदत्त की अपने संघर्ष की कहानी थी। 1959 में गुरुदत्त की एक और फिल्म आई 'कागज के फूल'। आगे चलकर ये फिल्म एक कल्ट फिल्म बनी, लेकिन जिस समय आई उस समय बुरी तरह फ्लॉप रही। 1960 में गुरुदत्त और वहीदा रहमान की फिल्म 'चौदहवीं का चांद' आई। व्यवसायिक तौर पर ये एक हिट फिल्म थी। 1962 में अपनी बेचैनी, कशमकश में उलझे गुरुदत्त ने फिर ने एक फिल्म बनाई 'साहिब बीवी और गुलाम'। गुरुदत्त की फ़िल्म साहब, बीवी और ग़ुलाम को हिंदी सिनेमा में क्लासिक फिल्म का दर्जा हासिल है।
ये भी पढ़ें,
एक खुशदिल गीतकार, जो अपनी मौत के बाद भी कर रहे हैं गरीबों की मदद
कथ्य को मुनाफे से ऊपर रखने वाले गुरुदत्त
क्या कोई सोच सकता है कि एक वक़्त गुरुदत्त फिल्म के त्रासदी भरे अंत को सुखांत में बदलने के बारे में सोचने लगे थे। क़िस्सा यूं है कि गुरुदत्त ने बांग्ला साहित्यकार बिमल मित्र के चर्चित उपन्यास साहब, बीवी और ग़ुलाम पर इसी नाम से फ़िल्म बनाई और जिस दिन फ़िल्म रिलीज़ हुई तो गुरुदत्त रात में के आसिफ़ से मिलने पहुँचे। बिमल मित्र उनके साथ थे। बातों-बातों में के. आसिफ़ ने साहब बीवी और ग़ुलाम के बारे में गुरुदत्त से कहा कि फिल्म का अंत अच्छा नहीं है। अचकचाए गुरुदत्त ने पूछा कि ऐसा क्यों? के. आसिफ़ बोले, 'अगर फ़िल्म का अंत ट्रेजेडी में न करके कॉमेडी में करते तो फिल्म अच्छा पैसा देती।'
गुरुदत्त फ़िल्म के ट्रैजिक अंत के बारे में अपने तर्क देते रहे और बिमल मित्र के उपन्यास का हवाला भी दिया। लेकिन मन ही मन उन्हें आशंका हुई कि फ़िल्म फ्लॉप हो गई तो क्या होगा। काग़ज़ के फूल की नाकामी से उन्हें गहरा सदमा लगा था। इन सबके बीच गुरुदत्त के दिमाग़ में लगातार कशमकश चल रही थी। दिन भर गा़यब रहने के बाद अचानक लौटे और कहा- मैं फ़िल्म का अंत नहीं बदलूंगा। बिमल मित्र ने गुरुदत्त से जुड़े अपनी यादों का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि उस शाम गुरुदत्त ने कहा, 'के. आसिफ़ चाहे जो कहे, मैं भी आख़िर डायरेक्टर हूं, मुझमें भी बुद्धि विवेचना है। मैं दोपहर भर सोचता रहा। अंत मैं हरग़िज़ नहीं बदलूंगा। किसी शर्त पर नहीं। भले कोई मेरी फ़िल्म न देखें, मुझे लाखों लाख का गच्चा लगे तो लगे, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यह फ़िल्म- इसका अंत बदलने लायक है ही नहीं। यह अलग क़िस्म की कहानी है। लोग अगर समझ सकें तो भला, अगर न समझें तो नुक़सान उनका है , मेरा नहीं।' और इस तरह छोटी बहू की त्रासदी सुखांतिकी में बदलने से बच गई। सामंती परिवेश में एक महिला की दुखांत कहानी पर बनी इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार तो मिला ही , चार-चार फिल्मफेयर अवार्ड भी मिले थे । मीना कुमारी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए, अबरार अल्वी को निर्देशन के लिए , गुरुदत्त को बतौर निर्माता सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए और वी के मूर्ति को सिनेमेटोग्राफी के लिए।
विनम्र गुरूदत्त
निर्देशक गुरुदत्त और अभिनेता गुरुदत्त पर ध्यान दें तो यह बात साफ़ हो जाती है कि अभिनेता गुरुदत्त का कद थोड़ा छोटा है। इसका एहसास खुद उन्हें भी था। अभिनय कभी उनकी पहली पसंद नही रही इसी वजह से 'प्यासा' के लिए उन्होंने पहले दिलीप कुमार का चयन किया था। फिर भी जब-जब गुरुदत्त पर्दे पर आए उनके सरल, संवेदनशील और नैसर्गिक अभिनय का लोहा सबने माना। गुरुदत्त के खाते में फ़िल्मों की संख्या कम है, लेकिन विषय, तकनीक और अभिनय के मामले में उनकी फ़िल्मों ने दिशा निर्धारित की। भारतीय सिनेमा उनके कलात्मक योगदान का सदा ऋणी रहेगा।