शकील बदायूंनी एक खुशदिल गीतकार, जो अपनी मौत के बाद भी कर रहे हैं गरीबों की मदद
ऐसा कहते हैं शायर पैदा तो होते हैं, लेकिन कभी मरते नहीं और शकील बदायूंनी उनमें से एक हैं...
शकील बदायूंनी एक ऐसा नाम, जिसे जुबां पर लाते ही संगीत प्रेमी उनके गीतों को गुनगुनाना शुरू कर देते हैं। यह उनकी कलम का जादू ही है, कि बॉलीवुड के हिंदी सिनेमा के लिए लिखे उनके गीत आज भी सदाबहार है, लेकिन यहां हम आपको उनकी फिल्मी ज़िंदगी के साथ-साथ उनसे जुड़े कुछ ऐसी बातों से भी रू-ब-रू करवा रहे हैं, जो शायद कम ही लोग जानते हैं...
शकील ने जिंदगी की हकीकत को शायरी में ऐसे बयां किया, मानो बीते पलों की झलकियां आंखों के सामने नाच रही हों। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि भारतीय फिल्म इतिहास के सबसे लोकप्रिय कृष्ण भजनों में से एक बजन 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज' को मोहम्मद शकील बदायूंनी ने लिखा था। इस गाने को रफी साहब ने गाया और धुन तैयार की थी नौशाद ने।
किसी ने क्या खूब कहा है कि शायर की दास्तान उसकी पैदाईश से शुरू तो जरूर होती है, लेकिन उसकी मौत पर जाकर खत्म नहीं होती। उसके अशआर वक्त और जमाने की हदों के पार जाकर उसकी यादों को जिंदा रखते हैं। ऐसा कहते हैं शायर पैदा तो होते हैं लेकिन कभी मरते नहीं। शकील बदायूंनी के तरानों को लोग आज भी गुनगुना रहे हैं। उनके लिखे गीतों में ‘नन्हा मुन्ना राही हूं देश का सिपाही हूं, बोलो मेरे संग’ और ‘चौदवीं का चांद हो या आफताब हो’ ऐसे गीत हैं, जो लोगों की जुबां पर आज भी रहते ही है। मशहूर शायर और गीतकार शकील बदायूंनी का अपनी जिंदगी के प्रति नजरिया उनकी रचित इन पंक्तियों मे समाया हुआ है, 'मैं शकील दिल का हूं तर्जुमा, कि मोहब्बतों का हूं राजदान मुझे फख्र है मेरी शायरी मेरी जिंदगी से जुदा नहीं।' शकील ने जिंदगी की हकीकत को शायरी में ऐसे बयां किया, मानो बीते पलों की झलकियां आंखों के सामने नाच रही हों।
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शकील बदायूंनी को अपने गीतों के लिये तीन बार 'फिल्म फेयर अवार्ड' से नवाजा गया। सिने जगत के जानकार मानते हैं कि दिलीप कुमार की सफलता में शकील साहब का खासा योगदान था। फिल्मी गीतों के अलावा शकील बदायूंनी ने कई गायकों के लिए गजल लिखी हैं जिनमें पंकज उदास प्रमुख रहे हैं।
उत्तर प्रदेश के बदांयू कस्बे में तीन अगस्त 1916 को जन्मे शकील अहमद उर्फ शकील बदायूंनी बी.ए पास करने के बाद वर्ष 1942 में दिल्ली पहुंचे जहां उन्होनें आपूर्ति विभाग मे आपूर्ति अधिकारी के रूप मे अपनी पहली नौकरी की। इस बीच वह मुशायरों मे भी हिस्सा लेते रहे जिससे उन्हें पूरे देश भर मे शोहरत हासिल हुई। अपनी शायरी की बेपनाह कामयाबी से उत्साहित शकील बदायूंनी ने नौकरी छोड़ दी और वर्ष 1946 मे दिल्ली से मुंबई आ गए। मुंबई में उनकी मुलाकात उस समय के मशहूर निर्माता ए.आर. कारदार उर्फ कारदार साहब और महान संगीतकार नौशाद से हुई। नौशाद के कहने पर शकील ने ‘हम दिल का अफसाना दुनिया को सुना देंगे, हर दिल में मोहब्बत की आग लगा देंगे' गीत लिखा। यह गीत नौशाद साहब को काफी पसंद आया जिसके बाद उन्हें तुंरत ही कारदार साहब की 'दर्द' के लिए साईन कर लिया गया। वर्ष 1947 मे अपनी पहली ही फिल्म 'दर्द' के गीत ‘अफसाना लिख रही हूं... की अपार सफलता से शकील बदायूंनी कामयाबी के शिखर पर जा बैठे। शकील के फिल्मी सफर पर यदि एक नजर डालें तो पायेंगे कि उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में संगीतकार नौशाद के साथ ही की। उनकी जोड़ी प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद के साथ खूब जमी और उनके लिखे गाने जबर्दस्त हिट हुए।
बदायूं को अमर कर गए शकील
मायानगरी तक के सफर में शकील बदायूंनी को जिस शायरी से मशहूरियत मिली, उसकी शुरुआत बदायूं से हुई थी। सौ साल के लंबे अरसे के बावजूद आज भी दो निशानियां उनकी यादें ताजा करती हैं। इनमें एक है उनके वे गीत जो कानों में रस घोलते हैं। दूसरा उनका बदायूं का वह घर जहां अगस्त 1916 में उन्होंने जन्म लिया था। छोटी उम्र से ही शायरी करने वाले शकील का असल नाम यों तो गफ्फार अहमद था, लेकिन उन्होंने 'सबा' और 'फरोग' जैसे उपनाम भी रखे। उनकी पहचान बनी शकील बदायूंनी के नाम पर ही। तेरह बरस की उम्र में उन्होंने पहली गजल लिखी, जो उस वक्त के नामी अखबार 'शाने-हिंद' में 1930 में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद से शायरी का जो सिलसिला चला वह आखिरी उम्र तक जारी रहा। एक मंचीय शायर के तौर पर शुरुआत करने वाले शकील का सफर कई मोड़ लेता रहा।
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बदायूं से अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी तक के सफर में उनकी पहचान एक ऐसे मंचीय शायर के तौर पर बन चुकी थी जिसे उस वक्त के नामी शायरों ने भी नजरअंदाज नहीं किया। फिराक गोरखपुरी ने उनकी उस वक्त की शायरी को ‘लाजवाब पूंजी’ कहा था तो जिगर मुरादाबादी ने उनके उज्जवल भविष्य की कामना यह कहते हुए की थी, ‘अगर शकील इसी तरह पड़ाव तय करते रहे तो भविष्य में अदब के इतिहास में वह अमर हो जाएंगे।’ और हुआ भी यही।
1964 में उनको क्षय रोग जैसी गंभीर बीमारी हो गई और हालात काफी बदतर हो गए, लेकिन वह गीत लिखकर ही अपना खर्चा चलाते रहे। ‘आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले...' उन्हीं में से एक गीत है जो बीमारी के दिनों में लिखा गया था और आखिरकार 20 अप्रैल 1970 को आखिरी सांस लेते हुए उन्हें एक युग का अंत किया, जो आज भी जीवित है।
शकील साहब के निधन के बाद उनके कुछ दोस्तों ने उनकी याद में एक ट्रस्ट की स्थापना भी की थी, जो गरीब कलाकारों को आर्थिक रूप से सहायता पहुंचा सके। यही वो ट्रस्ट था, जिसकी वजह से कई चेहरों पर मुस्कुराहट आई, कई दिलों से दुआएं निकलीं, ऐसे में ये कहना अतिश्योक्ति नहीं कि जाते जाते भी शकील साहब वो कर गये, जो लोग जीवित रहते हुए भी नहीं कर पाते हैं।
-प्रज्ञा श्रीवास्तव