Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
ADVERTISEMENT
Advertise with us

बजट व्याख्यानों और उपचुनाव नतीजों में कैद लोकतंत्र

बजट 2018-19...

बजट व्याख्यानों और उपचुनाव नतीजों में कैद लोकतंत्र

Friday February 02, 2018 , 8 min Read

केंद्र में सत्तासीन होने के बाद से, जबकि अगले वर्ष लोकसभा चुनाव होने जा रहा है, अब तक चार वर्षों में भाजपा पहली बार कल से भारी दबाव में है। बजट के साथ ही उपचुनावों में करारी हार के बाद उस पर चौतरफा तीखी प्रतिक्रियाओं की बौछार हो रही है। भविष्यवाणियां की जाने लगी हैं कि वर्ष 2019 में चुनाव की बात तो दूर, आगामी कुछ महीनों के भीतर राजस्थान में होने वाले विधानसभा चुनावों में क्या यह पार्टी दोबारा सत्ता में आने का इतिहास दोहरा पाएगी, जहां की दोनों लोकसभा सीटों और विधानसभा सीट पर उसके प्रत्याशी कल उपचुनाव हार गए।

सांकेतिक तस्वीर

सांकेतिक तस्वीर


पीएम ने पिछले चुनाव में 15 लाख रुपए देने के लिए कहे थे, 2019 से पहले मिल जाते तो काम चल जाता। बजट से आम आदमी उतना ही ख़ुश है, जितना कि भाजपा राजस्थान उपचुनाव के नतीजों से। 

सोशल मीडिया पर तो तीखी-चरपरी चुटकियां ली ही जा रही हैं, एनडीए के मित्र दलों की ओर से गठबंधन तोड़ने की धमकियां भी शुरू हो गई हैं। औरों की छोड़ भी दें तो खुद उसके खुद के आनुषंगिक संगठन मजदूर संघ ने बजट को निराशाजनक बताते हुए आज देशव्यापी प्रदर्शन है। सहयोगी दल तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के सांसद टीजी वेंकटेश ने सरकार के खिलाफ खुलकर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा है कि फिलहाल हम युद्ध की घोषणा करते हैं और अगर सरकार गंभीर नहीं हुई तो गठबंधन भी टूट सकता है।

वेतनभोगी मध्यवर्ग को बजट से जिस तरह की उम्मीदें थीं, वे पूरी नहीं की गईं। विशेषज्ञों का कहना है कि एकीकृत समाज के लिए कृषि, ग्रामीण बुनियादी ढांचे, महिलाओं पर केंद्रित बजट से आय और लिंग भेद प्रभावित होगा। बजट को लेकर कुछ लोग गंभीर बातें कर रहे हैं तो कुछ लोग हंसी-मज़ाक में कह रहे हैं, कड़ाही कलछुल के लिए तो कुछ दिया ही नहीं, पकौड़े कैसे बनेंगे। पीएम ने पिछले चुनाव में 15 लाख रुपए देने के लिए कहे थे, 2019 से पहले मिल जाते तो काम चल जाता। बजट से आम आदमी उतना ही ख़ुश है, जितना कि भाजपा राजस्थान उपचुनाव के नतीजों से। राजपूत संगठनों ने फिल्म पद्मावत और दूसरे मुद्दों को लेकर भाजपा को हराने का आह्वान किया था।

करणी सेना ने दावा किया है कि यह पहला मौका है, जब राजपूत समाज ने भाजपा से अपना पुराना रिश्ता तोड़ा और उसके ख़िलाफ़ में मतदान किया है। करणी सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष महिपाल सिंह मकराना ने कहा है कि हमने पहली बार मंच सजाकर भाजपा को हराने का आह्वान किया था और हम इसमें सफल रहे। उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजबब्बर ने कहा है कि यह राहुल गांधी की नीतियों की जीत है। यह भाजपा की जनविरोधी नीतियों पर आम जनता का करारा प्रहार है। अरुण जेटली ने पेट्रोल, डीजल पर एक्साइज ड्यूटी तो घटाई लेकिन रोड सेस लगाकर जनता की खुशी लगे हाथ छीन ली गई।

बजट बाजार को रास नहीं आया है, और भाजपा उपचुनाव के मतदाताओं को नहीं लुभा सकी। इसे आगामी लोकसभा चुनाव में केंद्रीय सत्ता दल के लिए खतरे की घंटी माना जा रहा है। यद्यपि उपचुनावों को कभी भी आम चुनाव का आईना नहीं माना जाता रहा है। फिर भी भाजपा अंदरखाने चुनाव नतीजों से सदमे में हैं। बजट का आज दूसरे दिन बाजार पर नकारात्मक असर दिख रहा है। आज बाजार खुलते ही सेंसेक्स में गिरावट के झटके लगने लगे। निफ्टी भी 83 अंकों की कमजोरी के साथ 10930 के स्तर पर खुला।

राजस्थान में इसी साल नवंबर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने रिकॉर्ड तोड़ जीत हासिल की थी। उपचुनाव में पार्टी ने पूरी ताकत झोंक दी लेकिन वह सब रत्तीभर काम न आ सका। पार्टी का कैबिनेट मंत्री ही चुनाव हार गया। अलवर में बीजेपी के खिलाफ माहौल तो बीते साल अप्रैल से ही बनने लगे थे। पहलू खान को कथित गौरक्षकों ने पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया था। उसके अलावा उमर मोहम्मद भी कथित गौरक्षकों का शिकार बने। अलवर में मुस्लिम वोटरों की तादाद करीब साढ़े तीन लाख बताई जाती है। वैसे तो मुस्लिम वोटर, परंपरागत तौर पर भी बीजेपी के खिलाफ रहा है लेकिन इस घटना ने रुख पूरी तरह मोड़ दिया।

इस माहौल में बीजेपी के सामने सीट बचाने की चुनौती शख्त हो गई। नतीजों से अनुमान लगाया जा रहा है कि पहलू खान फैक्टर ने भी बीजेपी को धक्का दिया। उधर, पश्चिमी बंगाल में यद्यपि अभी भाजपा का अपेक्षित जनाधार नहीं, लेकिन कट्टर विपक्ष तृणमूल कांग्रेस की उपचुनाव में फतह कहीं न कहीं से विपक्ष के ही ताकतवर होने का संकेत देती है। उधर, कर्नाटक चुनाव से पहले पार्टी की ओर से गोयज्ञ करने जैसी घोषणाएं भी देश के एक खास वर्ग को अंदर से सहमा रही हैं।

भाजपा पर घिरते संकट के बादल देख यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बजट सत्र के तुरंत बाद 17 गैर-एनडीए दलों के नेताओं की बैठक की अध्यक्षता करते हुए राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर संसद और उसके बाहर विपक्षी एकता का आह्वान कर दिया है। सोनिया गांधी ने कहा है कि विपक्षी नेताओं को राज्य के मुद्दों पर अपने मतभेदों को एकतरफ रख देना चाहिए और राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी से टक्कर लेने के लिए साथ आना चाहिए। हम सभी को संसद और उसके बाहर साझा पहल एवं रणनीति अपनानी चाहिए। किसानों, दलितों, युवाओं गरीबों और महिलाओं के संवेदनशील मुद्दों को समझने के लिए सबको साथ आने जरूरत है।

धर्म और जाति को लेकर फैलाई जा रही हिंसा तथा राष्ट्रीय सरोकार से जुड़े कई अन्य मुद्दों पर हमें चौकस रहना होगा। देश में जाति और धर्म के आधार पर व्यापक हिंसा हो रही है। संवैधानिक संस्थानों को कमतर किया जा रहा है। बैठक में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, पार्टी के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद और मल्लिकार्जुन खड़गे, एनसीपी प्रमुख शरद पवार, एनसी प्रमुख फारूक अब्दुल्ला, आरजेडी की मीसा भारती एवं जय प्रकाश नारायण यादव, टीएमसी के डेरेक ओ ब्रायन, सीपीएम नेता डी राजा, एसपी के रामगोपाल यादव और नरेश अग्रवाल, सीपीएम के मोहम्मद सलीम और टी के रंगराजन, जेडीएस नेता कुपेंद्र रेड्डी, जेडीयू से अलग हुए शरद यादव, आरएलडी के अजित सिंह, जेएमएम के संजीव कुमार, एआईयूडीएफ के बदरुद्दीन अजमल, केरल कांग्रेस के जॉय अब्राहम आदि मौजूद रहे। इस व्यापक एकजुटता को भी केंद्रीय सत्ताधारी दल के लिए भविष्य की गंभीर चुनौती के रूप में देखा जा रहा है।

पूरे हालात पर प्रख्यात पत्रकार रामशरण जोशी का कहना है कि दुनिया में लोकतंत्र के मानकों में भारत दस पायदान नीचे खिसक गया है। पहले हम 32वें पर थे, अब 42वें पर उतर चुके हैं। इन मानकों में शामिल हैं स्वस्थ चुनाव प्रक्रिया, बहुलवाद, नागरिकों की आज़ादी, सरकार की कार्यप्रणाली, राजनीतिक भागीदारी व राजनीतिक संस्कृति। देश में रूढ़िवादी विचारधाराओं के उभार, धर्म के नाम पर हायतोबा, अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा जैसी घटनाएँ बढ़ी हैं; लव जिहाद, गौरक्षकों की हिंसक करतूतें, साम्प्रदायिक हिंसा, आलोचकों को राष्ट्रविरोधी कहना, ईवीएम पर शंकाएं, चुनाव आयोग की विवादस्पद तटस्थता आदि।

वास्तव में हमने लोकतंत्र को मतदान में क़ैद कर दिया, सरकार और जनता ने इसे अपने रोज़मर्रा के व्यवहार में नहीं उतारा है। विगत तीन-चार सालों में मध्युगीन जेहनियत अधिक मज़बूत हुई है। असहनशीलता और हिंसा बढ़ीं है। फिल्म पद्मावती के खिलाफ़ हिंसक आन्दोलन ताज़ा उदाहरण है। देश का शिखर नेतृत्त्व ख़ामोश ही रहा। यदि यही स्थिति जारी रही तो देश का लोकतंत्र और अधिक नीचे गिर जाएगा। इस दुखद स्थिति पर क्या हमे चिंता नहीं होनी चाहिए? राजस्थान के साहित्यकार सवाई सिंह शेखावत कहते हैं कि जनता ही जनार्दन है। एक बात और, इस उपचुनाव नतीजों से यह भी सिद्ध हो चुका है कि विपक्ष को ईवीएम पर गड़बड़ी जैसे बचकाने आरोपों और बहानों से से बचना चाहिए।

लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता आशुतोष कुमार कहते हैं कि शिक्षा, सेहत और सामाजिक सुरक्षा तीनों को मिलाकर 1.38 लाख करोड़ का प्रावधान किया गया है। यह पिछले साल 1.22 लाख करोड़ था। साल भर में बढ़ी मंहगाई का हिसाब लगाएं तो पता चलेगा कि सही मायने में यह बढ़ोत्तरी नहीं, घटोत्तरी है। उधर शिक्षा सेस 3% से बढ़ाकर 4% कर दिया गया, और इसमें सेहत को भी जोड़ दिया गया। बढ़े हुए सेस से जो ज़्यादा रुपया आएगा, वो कहाँ जाएगा? बजट आवंटन में तो बढ़ोत्तरी हुई नहीं! साफ है कि वह प्राइवेट हस्पतालों और बीमा कंपनियों के सिवा कहीं नहीं जा सकता। उन्हीं हस्पतालों को जो पचास करोड़ गरीब लोगों के लिए प्रस्तावित पांच लाख की सेहतबीमा-रकम एक डेंगू के इलाज में बिना सांस लिए खर्च कर सकते हैं।

मतलब रुपया खींचा जाएगा आपकी फटेहाल जेब से और जेब भरी जाएगी प्राइवेट अस्पताल चलाने वाले सेठों की। ऑक्सीजन की कमी से कीट पतंगों की तरह मरते बच्चों के साथ इससे अधिक क्रूर मज़ाक क्या हो सकता है? वह भी दुनिया की सबसे बड़ी सेहत सुरक्षा योजना के नाम पर! सरकार अगर दिन अच्छे नहीं कर सकती तो न करे। कमज़कम लोगों की उम्मीद के साथ ऐसे ख़तरनाक मज़ाक तो न करे। इस बीमा योजना को तत्काल वापिस लिया जाना चाहिए और सेस से वसूली गई रकम सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर खर्च करना चाहिए।

यह भी पढ़ें: बुंदेलखंड का ये किसान बैंको को कर चुका है नमस्ते, खेती से कमाता है 20 लाख सालाना