खौफ़ के साये में साक्षरता की मशाल, सबा हाजी
दुबई और बैंगलोर में सफल करियर के बाद सबा ने अपने पैतृकस्थान के बच्चों को शिक्षित करने का उठाया बीड़ा....
डोडा के छोटे से पहाड़ी इलाके ब्रेसवाना में रखी गई हाजी पब्लिक स्कूल की नींव....
पूरे देश के स्वयंसेवकों को अपने यहां बुलाकर बच्चों को शिक्षित करने का काम करता है हाजी पब्लिक स्कूल...
कई स्तरों पर सहायता मिलने के बाद अब एक विविध पुस्तकालय भी खोलने में हुई हैं सफल...
वह वर्ष 2008 का समय था जब सबा हाजी अपने दफ्तर में मायूसी के माहौल में बैठकर अमरनाथ से शुरू हुए दंगों को जम्मू-कश्मीर में फैलते हुए देख रहीं थीं।अपने जन्म स्थान जम्मू के एक छोटे से जिले डोडा के बारे में उन्हें समाचारों से जो थोड़ी बहुत जानकारी मिल रही थी वह उनके रोंगटे खड़े वाली थी। ‘‘मैंने अपने घर फोन किया और वहां सब भविष्य के घटनाक्रम से अनजान ओर सशंकित थे। मेरी माँ ने सिर्फ इतना बताया कि लोगों की एक भारी भीड़ उनके गाँव की तरफ बढ़ती चली आ रही है।’’
केपीएमजी में एक आॅडिट प्रशिक्षु के रूप में काम कर रही सबा ने फैसला किया कि अब वापस अपने पैतृक घर चलने का समय आ गया है। सबा याद करते हुए कहती हैं, ‘‘मैंने बैंगलोर में अपना सामान समेटा और वर्ष 2008 की सर्दियों में कुछ साल यहां बिताने का इरादा लियेे वापस डोडा आ गई।’’
पहाड़ी और दुर्गम इलाके के रूप में जाने जाने वाले डोडा का अपना एक इतिहास, संस्कृति और परंपरा है। इस जगह से पार पाना अपने आप में काफी कठिन चुनौती है। एक ऐसी जगह जो अधिकतर शहरी लोगों की नजर में दुर्गम और असहाय हैं वहां के ग्रामीणों ने सबा और उनके परिवार से इलाके में एक स्कूल खोलने के लिये संपर्क किया। ‘‘मेरे चाचा समय-समय पर जरूरतमंद लोगों को पैसे भेजकर उनकी मदद करते रहते हैं और उन्होंने मुझसे और मेरी माँ से पूछा कि क्या हम एक स्कूल को संचालित करने में सक्षम हो पाएंगे। हम भी अपने गांव के लोगों की मदद करने के इच्छुक थे ओर हमनें एक छोटे स्कूल से शुरुआत करने का फैसला किया।’’ और इस तरह से पहाडि़यों के बीच बसे छोटे से गांव ब्रेसवाना में हाजी पब्लिक स्कूल की नींव रखी गई।
जटिल और अवरोध लगाने वाली नौकरशाही से जूझने के बावजूद हाजी पब्लिक स्कूल साल-दर-साल सफलता के नए कीर्तिमान रच रहा है। यह पूछने पर कि वे डोडा के बच्चों को शिक्षित करने का जिम्मा अपने कंधों पर क्यों उठा रही हैं, सबा का कहना है कि, ‘‘गांव के सभी बच्चों को शिक्षित और साक्षर होना चाहिये और पिछले 30 से भी अधिक वर्षों से किसी ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया है। हमारे यहां के कई बच्चे दूसरी श्रेणी के छात्रों के मुकाबले भी कहीं नहीं खड़े होते हैं।’’ भारत के कई अन्य राज्यों के शिक्षित और कुलीन उच्च वर्ग की तरह जम्मू-कश्मीर के पढ़े-लिखे लोग भी खुद पर अजीब सा दंभ महसूस करते हैं। वे कहती हैं, ‘‘यहां के र्शििक्षत लोग कभी भी ग्रामीण इलाकों में जाकर बच्चों को शिक्षित करने के बारे में तो सोचेंगे ही नहीं। मैंने इस अंतर को भरने के लिये देश के अन्य हिस्सों से वोलंटियर्स की एक बेहतर और समर्पित फौज तैयार की है।’’
वोलंटियर्स पर पूरी तरह निर्भर होने के अलावा उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती इन वोलंटियर्स को डोडा के कठिन और दुर्गम वातावरण में रहने के लिये प्रेरित करना भी है। सबा कहती हैं, ‘‘स्टाफिंग हमारी सबसे बड़ी चुनौती है।’’ खतरों से खेलने का जज्बा लेकर यहां आने वाले युवा कई बार यहां पूरे वर्ष रुकने में सफल हो जाते हैं। ‘‘एक बार आप मानसिक रूप से यहां रहने के लिये तत्पर हो जाएं तो यह रहने के लिये एक शानदार जगह है। हमारे शुरुआती वोलंटियर्स में सेे एक अब हमारे संस्थान में उपनिदेशक के पद पर तैनात हैं।’’
हमेशा की तरह खुलकर बोलने वाली सबा यह भी कहती हैं, ‘‘अगर मेरे परिवार पर नजर डाली जाए तो इसमें कई सारे ऐसे लोग हैं जो सरकारी नौकरी के लिये जरूरी सभी आर्हताएं पूरी करते हैं और इनके लिये पात्र हैं।’’ पता नहीं क्या कारण है लेकिन जम्मू-कश्मीर के निवासियों के जीवन में एक निरंतर सी स्थिरता का भाव घर कर गया है। ‘‘जम्मू-कश्मीर में काम करने का तरीका बिल्कुल अलग है। मैं जानती हूँ कि मैं कई लोगों को यह बात कहकर नाराज करूंगी लेकिन मेरा यह मानना है कि अगर आपके पास कोई काम है तो आपको अपना सबकुछ उसमें झोंककर अपने काम को खुशी-खुशी करना चाहिये। लेकिन यहां ऐसा नहीं है। यहां के लोग या तो ‘बाद में करेंगे’ कहकर काम को टाल देते हैं या आपको काम दूसरों के ऊपर टरकाने का प्रयास करते दिखाई देंगे। यहां के अधिकतर लोग अपने काम के प्रति समर्पित नहीं हैं और यही एक बात है जो मुझे नागवार गुजरती है। ऐसा नहीं हे कि यहां अच्छा काम करने वाले लोग नहीं हैं लेकिन वे बहुत सीमित हैं। काम को टालना यहां के लोगों की मानसिकता बन चुकी है।’’
हाजी पब्लिक स्कूल अपनी शुरुआत से ही उत्साहित ग्रामीणों की जिज्ञासा का केंद्र रहा है। प्रारंभ से ही माता-पिता खिड़कियों से कक्षाओं के अंदर झांकने के लिये कतार में लगकर अपनी बारी आने का इंतजार करते देखे जाते थे। उनके लिये बच्चों को वास्तविक रूप में शिक्षा ग्रहण करते देखना एक दुर्लभ दृश्य था।
‘‘हम राज्य के पाठ्यक्रम का पालन करते हैं,’’ सबा कहती हैं, ‘‘लेकिन हम इसके साथ प्रयोग करते रहते हैं। हमारे पास विभिन्न संस्कृतियों और देशों के शिक्षकों की एक पूरी श्रंखला है।’’ दुनिया के कई देशों से सहायता मिलने बाद अब हाजी पब्लिक स्कूल का अपना एक विविध पुस्तकालय भी है। हमारे स्वयंसेवक अपनी प्रौद्योगिकी, संस्कृति ओर साहित्य लेकर यहां के बच्चों के बीच आते हैं और यहां के बच्चों को उनसे रूबरू करवाते हैं। कुछ वर्षों पहले की स्थिति यह थी कि यहां के अधिकतर बच्चे अपनी मातृभाषा भी पढ़ना नहीं जानते थे और अब वे पूरी तरह दक्ष हैं। ‘‘बाहरी लोगों को तो आप भूल जाइये यहां के कई बच्चों ने तो पहली बार किसी हिंदू से मुलाकात की है।’’
धर्म और समुदाय की पुरानी राजनीति के बीच झूलते जम्मू में अब भी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पुराने पूर्वाग्रहों का तनाव साफ देखा जा सकता है। सबा कहती हैं, ‘‘हालांकि दोनों समुदायों के बीच कटुता नहीं है लेकिन भेदभाव अब भी साफ महसूस होता है। जब हमारे स्वयंसेवकों ने यहां आना शुरू किया तो बच्चों को महसूस हुआ कि कुछ गलत हो रहा है।’’लेकिन एक बार बच्चे परंपरागत रूप से ‘बाहरी’ माने जाने वाले इन लोगों के साथ घुलमिल गए तो ये सर्वव्यापक पूर्वाग्रह भी कहीं नहीं टिके। ‘‘अब स्थिति यह है कि अगर वे अपने घर पर किसी को धार्मिक भेदभाव की बातें करते देखते या सुनते हैं तो वे उन्हें ऐसा करने से मना करते हैं और समझाते हैं।’’ अपने छात्रों की इसी सांस्कृतिक परिपक्वता पर सबा को सबसे अधिक गर्व की अनुभूति होती है।
अब बच्चे ‘लाॅर्ड आॅफ द रिंग्स’ पढ़ते हैं और टेरंटीनो के संवादों को सुनते हैं। ‘‘हम इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि ऐसा कुछ भी न करा जाए जो किसी के लिये अपमानजनक हो, इसलिये हम कुछ चीजों पर सेंसरशिप रखते हैं विशेषकर अपने यहां बच्चों को समय-समय पर दिखाई जाने वाली फिल्मों के चयन के दौरान। लेकिन यह छोटा सा ग्रामीण स्कूल एक शैक्षिक संस्थान के शास्त्रीय उद्देश्य को पूरा करते हुए अपने छात्रों को वह सिखाता है तो उनके जीवन में सबसे जरूरी है। यह लोग अपने बच्चों को सवाल पूछना और अपने मन की बात को पूरे आत्मविश्वास के साथ दूसरों के सामने रखना सिखाते हैं। सबा कहती हैं, ‘‘कई बार तो अगर माता-पिता कुछ कहते हैं तो बच्चे उनसे सवाल करते हैं और यह एक सकारात्मक बदलाव है।’’
वे आगे कहती हैं, ‘‘इसके अलावा हमारे पास बच्चों के लिये कई तरह के खेल भी हैं। पहाड़ों में जीवन बिताने के चलते वे शारीरिक रूप से अधिक दक्ष होते हैं। इसके अलावा पहाड़ों में मैदानी इलाकों की तरह सपाट जमीन भी नहीं होती है।’’ 2014 में आयोजित फीफा विश्व कप के दौरान दुनिया के बाकी हिस्सों से करीब 8 हजार फुट की ऊंचाई पर फुटबाॅल खेलने के लिये सबा के छात्रों ने एक पठार को पैदल पार किया और सफलतापूर्वक खेलकर दिखा दिया कि वे किसी से कम नहीं हैं।
आगे बात करते हुए विस्मित रूप में सबा कहती हैं, ‘‘मैंने कभी शिक्षा विभाग के अधिकारियों को स्कूल का दौरा करते हुए नहीं देखा लेकिन कागजी खानापूर्ती पूरी करने के लिये उन्होंने कागजों पर दौरा कर रखा है।’’ उनका मानना है कि राज्य के स्कूलों की बुरी दशा के लिये सरकार में जवाबदेही का अभाव होना एक बड़ा कारण है। यहां तक कि तनावपूर्ण माहौल निजी स्कूलों के लिये भी सबसे बड़ी चुनौती है। नौकरशाही का काम अपनी अलग गति से चलता है और सरकारी कर्मचारी बिना रिश्वत लिये कागजी कार्रवाई करने को तैयार ही नहीं होते हैं। वे कहती हैं, ‘‘किसी भी राजनीतिक बदलाव के साथ ही सरकार अधर में चली जाती है और सारी कागजी कार्रवाई पता नहीं कहां अटक जाती है।’’
पिछले आठ सालों के दौरान इस अकर्मण्य सरकारी कर्मचारियों से लड़ने और इन्हें सजा दिलवाने में कामयाब होने के चलते हाजी पब्लिक स्कूल की यह मुखिया आसपास के इलाकों में खासी प्रसिद्ध हो चुकी है। सौभाग्य से सबा के पिता जो गांव के सरपंच भी है ने अपनी बेटी का यह रूप देखकर सरकारी कामों को पूरा करने का बीड़ा खुद उठाया।
आज भी देश के नौनिहालों को शिक्षा देने का जिम्मा निराश करने वाले सुस्त और अप्रचलित ढर्रे पर काम करने वाले स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग के अधीन है, सबा कहती हैं, ‘‘हमें कई हास्यास्पद नियमों का पालन करना पड़ता है। उदाहरण के लिये आप एक बेवकूफ बच्चे को अनुत्तीर्ण नहीं कर सकते हैं। अगर एक बच्चा पढ़ाई में अच्छा नहीं कर पा रहा है और उसके अभिभावक उसी कक्षा को दोहराने के लिये सहमत हैं तो ऐसे में सरकार क्यों दखल देती है? वास्तव में ऐसे बच्चे को अगली कक्षा में भेजना व्यर्थ है क्योंकि वी पुरानी पढ़ाई ही ठीक ढंग से करने में सक्षम नहीं है।’’ और ऐसे ही संसाधनों से वंचित क्षेत्रों के पढ़ाई में कमजोर बच्चों को जबरदस्ती अगली कक्षाओं में उत्तीर्ण कर साक्षरता दर को कागजों पर बढ़ाने का काम पीढि़यों से होता आ रहा है।
नए रास्तों और उम्मीदों के साथ सबा को उम्मीद है कि वे और छात्रों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब रहेंगी। हालांकि अब भी उनका सबसे बड़ा सपना अपने राज्य के युवा स्नातकों के बीच अलख जगाकर उन्हें ग्रामीण और छोटे शहरों के बच्चों को साक्षर करने के लिये प्रेरित करने का है। ‘‘यहा पर डाॅक्टर या इंजीनियर बनना सबसे बड़ी बात है और अगर आप डाॅक्टर या इंजीनियर बनने के बाद यहीं के लोगों के लिये कुछ करते हो तो वास्तव में उससे बेहतर कुछ और नहीं है। ओर यही एक भावना है जो यहां के अधिकतर लोगों में नहीं है।’’
सबा आगे कहती हैं, ‘‘यहां तक कि पूरे देश में अच्छे काॅलेजों की कोई कमी नहीं है फिर भी लोग पढ़ने के लिये विदेश जाना पसंद करते हैं। जम्मू-कश्मीर में बुनियादी शिक्षा की स्थिति अच्छी नहीं है। किसी को भी यहां के स्कूलों की परवाह नहीं है और बाहरी लोगों के लिये तो इनकी स्थापना करना बिल्कुल असंभव है।’’
जम्मू-कश्मीर में होने वाले अच्छे कामों पर किसी की नजर नहीं जाती और केवल कुछ बुरा होने पर ही यह सुर्खियों में आता है लेकिन भारत माता के ताज की जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट है। ‘‘यह सब बिल्कुल बकवास है,’’ सबा हंसते हुए कहती हैं। ‘‘मीडिया और गांवों के बीच कोई संबंध नहीं है। उनके लिये कश्मीर बिल्कुल अलग जगह है। हमारी नजरों में हम प्रहरी हैं जिनकी अपनी संस्कृति है। यहां कोई आतंक नहीं है ओर हम राजनीतिक रूप से अछूत हैं। मीडिया का ध्यान भी इस क्षेत्र पर तभी जाता है जब विशेषकर सीमाओं से लगे इलाकों में कुछ होता है।’’ केवल चुनावों के दौरान ही जम्मू के गांव और शहर जो संस्कृति और विरासत में कश्मीर से बिल्कुल अलग हैं, जागरुक होते हैं। ‘‘राजनेता खुलकर हमपर पैसे लुटाते हैं। यह ग्रामीणों के लिये बिल्कुल नया अनुभव होता है क्योंकि उनका कभी इतनी नकदी से पाला नहीं पड़ा होता है। अगर आप उनसे चुनाव का मतलब पूछें तो वे कहेंगे, ‘हमें पेसा मिलता है’।’’
हालांकि यह इलाका अधिकतर शांत ही रहता है लेकिन कभी-कभी माहौल बिगड़ने पर इलाके के सरपंच आपस में मिलते हैं और सामाजिक सौहार्द बनाए रखने का प्रयास करते हैं। ‘‘गांव के लोग अपने मोबाइल फोन पर कई तरह की डरावनी बातों को पढ़ते हैं जिनसे अफवाहें फैलती हैं और लोगों के बीच डर और आतंक की भावना फैलती है। हमें इन लोगों को इन बातों पर विश्वास न करने के लिये समझाना होता है। लेकिन ऐसे में भी स्कूल अप्रभावित रहता है। डोडा काफी शांत जगह है और यहां अधिक कुछ नहीं होता है।’’
ऐसे में कई स्वयंसेवकों के अभिभावक अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर चिंतित होते हैं। सबा मजाक करते हुए कहती हैं, ‘‘डोडा बैंगलोर की तुलना में अधिक सुरक्षित जगह है।’’ हालांकि कश्मीर घाटी के अधिकतर इलाकों ने परेशानियों और दर्द के दंश के झेला है लेकिन जम्मू के डोडा जैसे कई इलाके अब भी इस भयंकर हिंसा और उथल-पुथल से खुद को बचाए रखने में सफल रहे हैं।
‘‘मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि सिर्फ बड़े भवन ही स्कूल नहीं हैं बलिक एक पेड़ के नीचे बैठकर भी अच्छी शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। हमें जरूरत है तो सिर्फ अच्छे शिक्षकों की।’’ हाजी पब्लिक स्कूल को मिलने वाले वित्तीय दान और राजस्व का 70 प्रतिशत से अधिक तो सिर्फ कर्मचारियों के वेतन में ही चला जाता है ओर बाकी किताबें खरीदने में खर्च हो जाता है। सबा के चाचा और हाजी अमीना चैरिटी ट्रस्ट के संस्थापक नासिर हाजी इनके स्कूल को मिलने वाले दान का अधिकतर हिस्सा देते हैं। ‘‘लोग हमेशा अपने सामथ्र्य के अनुसार हमारी सहायता करने को तैयार रहते हैं। ऐसे ही लोगों के सहयोग से हम एक पुस्तकालय का निर्माण और रखरखाव करने में कामयाब हुए हैं।’’
हाजी पब्लिक स्कूल में बच्चे सिर्फ सातवीं कक्षा तक की शिक्षा ही हासिल कर सकते हैं। इसके बाद से लोग सुनिश्चित करते हैं कि बच्चों को उच्च शिक्षा के लिये अच्छे स्कूलों में दाखिला मिल सके और उन्हें ऐसे बोर्डिंग स्कूलों में भेजा जा सके जो उनके अभिभावकों के लिये आर्थिक रूप से सही हो।
वर्तमान में स्कूल के पास गांव के ही कड़ाई से प्रशिक्षित महिला और पुरुषों का एक विविध स्टाफ है ओर इनमें से अधिकतर ऐसे हो जो कुछ समय पहले तक अंग्रेजी का एक शब्द तक बोलना भी नहीं जानते थे। स्वयंसेवकों के लिये भी प्रशिक्षण की प्रक्रिया उतनी ही कठोर है।हमारी प्राथमिकता बच्चे हैं और अगर आप यहां सिर्फ तीन महीनों के लिये आ रहे हैं तो क्यों नहीं आप अपना सर्वस्व झोंक देते। अधिकतर स्वयंसेवक युवा है जो दूसरों की मदद करने के तत्पर होते हैं। मुझे मौसम, परिस्थितियों या घर का रोना रोने वाले लोगों की कोई जरूरत नहीं है। हम आपको भोजन के अलावा रहने और मजा लेने के लिये एक मंच प्रदान करते हैं।’’
‘‘अगर आप एक महिला की सहायता करने के इरादे से यहां आने की सोच रहे हैं या आप अपने बागी तेवरों को शांत करने के लिये गांव में आने का विचार कर रहे हैं तो यहां बिल्कुल न आएं। हमें अपने बचाव के लिये आपकी सहायता की कोई जरूरत नहीं है,’’ सबा दो टूक शब्दों में कहती हैं। ‘‘हम ऐसे मामलों से एक-दो बार रूबरू हो चुके हैं और यह बहुत भद्दा हो जाता है और हमें ऐसे लोगों को यहां से चले जाने के लिये कहना पड़ता है।’’
अब से आठ वर्ष पहले क्या सबा ने कभी सपने में भी दूरदराज के इलाके में एक पहाड़ी के मुहाने पर स्कूल चलाने के बारे में सोचा था? ‘‘मैंने तो कभी डोडा में रहने के बारे में भी नहीं सोचा था! हम मध्यम वर्ग के जमीन से जुड़े लोग हैं जो हमेशा से ही ग्रामीण परिवेश के साथ जुड़े रहे हैं। ’’ तो सबा के लिये यह किसी नई जगह पर जाने जैसा नहीं था बल्कि कई वर्षों तक दुबई और बैंगलोर में समय बिताने के बाद यह उनके लिये घरवापसी से कहीं अधिक था।
सबा कहती हैं, ‘‘मेरे सभी रिश्तेदारों के बच्चे आज मेरे छात्र हैं। ये मेरे ऐसे रिश्तेदार हैं जिनका कभी शिक्षा से कोई वास्ता ही नहीं रहा है और यही मेरे और उनके बीच का मुख्य अंतर है। वे लोग अपने बच्चों को साक्षर बनाकर कुछ बनते देखने के लिये कितने बेकरार हैं यह सिर्फ मैं ही जानती हूँ।’’
और यही एक भावना सबा को दुनिया से 8 हजार फुट की अधिक की ऊँचाई पर बच्चों को शिक्षित करने के लिये प्रेरित करती है।