दादा साहब फाल्के पुरस्कार पाने वाले पहले गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी
अपनी शर्तों पर जीने वाले मजरूक की जिंदगी का एक विचित्र वाकया भी है। 1993 में उन्हें सिनेमा जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया। यह पुरस्कार पाने वाले वह पहले गीतकार थे...
"मजरूह सुल्तानपुरी, कलम का सच्चा बादशाह। वो गीतकार जिसने जब भी कलम को कागज पर फेरा, शब्द मानो जिंदगी का फलसफा बनकर फैल गए। मजरूह ने कलम की स्याही से नज़्मों की शक्ल में ऐसी गाथा लिखी, जिसने उर्दू शायरी को महज मोहब्बत के सब्जबागों से निकालकर दुनिया को एक आईना दिखाया..."
शब्दों के जादूगर 'मजरूह सुल्तानपुरी' के बारे में गज़लकार 'राहत इंदौरी' ने कहा कि एक समय ऐसा था जब शायरी दरबारों और कोठों की तंग गलियों में सिमटी हुई थी, लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी ने शायरी को न केवल आजाद किया, बल्कि उसे एक नया आयाम भी दिया।
अपनी शर्तों पर जीने वाले मजरूह की जिंदगी का एक विचित्र वाकया भी है। यह 1949 की बात है। उनके ऊपर सरकार विरोधी कविताएं लिखने का आरोप लगा और उन्हें जेल भेज दिया गया। सरकार की तरफ़ से उन्हें माफ़ी मांगने को कहा गया, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया। नतीजतन, उन्हें डेढ़ साल मुंबई की ऑर्थर रोड जेल में बिताने पड़े। उनका कहना था-
"मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग आते गए और कारवां बनता गया"
उस वक्त मजरूह सुल्तानपुरी के सामने शर्त रखी गई कि वे माफी मांग लेते हैं तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस दौरान उनका परिवार भारी आर्थिक तंगी में आ गया। जब राज कपूर ने उनके परिवार की आर्थिक मदद करनी चाही तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया। इसके बाद राज कपूर ने उन्हें अपनी फिल्म के लिए एक गाना लिखने को तैयार किया और इसका मेहनताना उनके परिवार तक पहुंचाया था। यह गाना था – ‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल...’ इसे राज कपूर ने 1975 में आई अपनी फिल्म धरम-करम में इस्तेमाल किया था। शब्दों के जादूगर मजरूह सुल्तानपुरी के बारे में गजलकार राहत इंदौरी ने कहा कि एक समय ऐसा था जब शायरी दरबारों और कोठों की तंग गलियों में सिमटी हुई थी, लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी ने शायरी को न केवल आजाद किया, बल्कि उसे एक नया आयाम भी दिया।
ये भी पढ़ें,
आज की सेल्फ ऑबसेस्ड युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा है लता मंगेश्कर की विनम्रता
भारत का मजाक उड़ाने पर फैज को मजरूह का मुंहतोड़ जवाब
कनाडा के एक मुशायरे में मजरूह और फैज अहमद फैज समेत दुनिया के कई बड़े शायर शरीक थे। फैज ने एक तकरीर की जिसमें दुनिया के कुछ देशों के हालात का जिक्र करते हुए भारत पर भी कुछ तीखी टिप्पणी की। यह बात मजरूह को चुभ गई। जब मजरूह अपना कलाम पेश करने के लिए माइक पर गए तो फैज की उस हल्की टिप्पणी का करारा जवाब दिया। मजरूह ने अपने जवाब से फैज की बोलती बंद कर दी। बता दें कि मजरूह साहब ने कहा, 'अभी जिस भारत के हालात पर फैज साहब रोशनी डाल रहे थे, मैं वहीं का हूं। मैं अपने भारत के बारे में फक़्र के साथ कहता हूं कि यह चश्मा जो मेरी आंख पर है, भारत का बना हुआ है। मेरे जिस्म पर मबलूस शेरवानी, कुर्ता और पायजामा का कपड़ा भारत में ही बना है। मेरा कलम, मेरा मोजा और जूता भारत का ही बना हुआ है।' हालांकि मजरुह ने भारत की तो तारीफ की ही साथ ही पाकिस्तानी शायर को भी सबक सिखाया। उन्होंने आगे कहा, 'फैज साहब के पाकिस्तान का आलम यह है कि उनकी पैंट-शर्ट का कपड़ा जर्मन का बना है तो चश्मा इंग्लैंड का। कलम अमेरिकी है तो जूता जापान का है। अगर ये सारे देश अपनी-अपनी चीजे वापस ले लें तो फैज साहब की क्या हालत होगी, आप हज़रात महसूस कर सकते हैं।'
मजरूह ने शायरी को महज़ मोहब्बत के जज़्बे तक सीमित न रखकर उसमें ज़िंदगी की जद्दोजहद को भी शामिल किया। उन्होंने ज़िंदगी को आम आदमी की नज़र से भी देखा और एक दार्शनिक के नज़रिये से भी। जेल में रहने के दौरान 1949 में लिखा उनका फ़िल्मी गीत- एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल… ज़िंदगी की सच्चाई को बयान करता है।
तेजतर्रार मजरूह का सादा सा जीवन
मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म उत्तप्रदेश के सुल्तानपुर शहर में एक अक्तूबर 1919 को हुआ था। उनके पिता सबइंस्पेक्टर थे और वह मजरूह सुल्तानपुरी को उच्च शिक्षा देना चाहते थे। मजरूह ने लखनऊ के तकमील उल तीब कॉलेज से यूनानी मेडिसिन की पढ़ाई की और उनके बाद हकीम के रूप में काम करने लगे। शायरी का शौक उन्हें बचपन से ही था। इसी शौक के चलते वह अक्सर सुल्तानपुर में होने वाले मुशायरों में हिस्सा लिया करते थे, जिनसे उन्हें काफी नाम और शोहरत मिली। उनका असली नाम असरारुल हसन ख़ान था। शायरी के लिए उन्होंने अपना तख़ल्लुस मजरूह रख लिया। शायरी से उन्हें खासी शोहरत मिली और वो मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने अपनी मेडिकल की प्रैक्टिस बीच में ही छोड़ दी और अपना ध्यान पूरी तरह शायरी की ओर लगाना शुरू कर दिया। इसी दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई।
ये भी पढ़ें,
अपनी मुस्कान से सबका दिल जीत लेने वाली दीया बनीं वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया की ब्रांड एंबेसडर
945 में मजरूह एक मुशायरे में शिरकत करने मुंबई गए, जहां उनकी मुलाक़ात फ़िल्म निर्माता एआर कारदार से हुई। कारदार उनकी शायरी पर फ़िदा थे। उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी से अपनी फ़िल्म में गीत लिखने की पेशकश की, लेकिन मजरूह ने इससे इंकार कर दिया। मजरूह फ़िल्मों के लिए गीत लिखने को अच्छा नहीं मानते थे। जब मजरूह ने जिगर मुरादाबादी को यह बात बताई, तो उन्होंने सलाह दी कि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखें, इससे उन्हें शोहरत के साथ-साथ दौलत भी हासिल होगी। मजरूह सुल्तानपुरी को जिगर मुरादाबादी की बात पसंद आ गई और फिर उन्होंने फ़िल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिया।इसके बाद संगीतकार नौशाद ने मजरूह सुल्तानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा। मजरूह सुल्तानपुरी ने उस धुन पर जो गीत लिखा वह था 'जब उनके गेसू बिखराए, बादल आए झूम के...' मजरूह के गीत लिखने के अंदाज से नौशाद काफी प्रभावित हुए। उन्होंने मजरूह से अपनी नयी फिल्म 'शाहजहां' के लिए गीत लिखने की पेशकश की। इसके बाद मजरूह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। फिल्म शाहजहां के बाद महबूब खान की 'अंदाज' और एस फाजिल की 'मेहंदी' जैसी फिल्मों में कामयाब गीत लिखने वाले मजरूह सुल्तानपुरी बतौर गीतकार फिल्म जगत में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए।
ये भी पढ़ें,
वो फरिश्ता जिनकी मौत पर रोया था आसमान
"अपनी वामपंथी विचारधारा के कारण मजरूह सुल्तानपुरी को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आजादी के तुरंत बाद आंदोलनों में हिस्सा लेने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। लगभग दो साल जेल में रहने के बाद मजरूह सुल्तानपुरी ने एक बार फिर नए जोश के साथ काम करना शुरू किया।"
वर्ष 1953 में आई फिल्म 'फुटपाथ' और 'आर पार' में अपने गीतों की कामयाबी के बाद मजरूह सुल्तानपुरी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी खोई हुई पहचान दोबारा हासिल करने में सफल रहे। 1964 में आई फिल्म 'दोस्ती' में अपने गीत 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे' के लिए वह सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। मजरूह सुल्तानपुरी ने चार दशक से भी ज्यादा लंबे सिने करियर में लगभग 300 फिल्मों के लिए करीब 4000 गीतों की रचना की। मजरूह भले ही फ़िल्मों के लिए गीत लिखते रहे, लेकिन उनका पहला प्यार ग़ज़ल ही रही-
"मिली जब उनसे नज़र बस रहा था एक जहां
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने"
बक़ौल बेकल उत्साही, मजरूह एक ऐसे शायर थे, जिनके कलाम में समाज का दर्द झलकता था। उन्हें एक हद तक प्रयोगवादी शायर और गीतकार भी कहा जा सकता है। उन्होंने अवध के लोकगीतों का रस भी अपनी रचनाओं में घोला था। इससे पहले शायरी की किसी और रचना में ऐसा नहीं देखा गया था। उन्होंने फ़िल्मी गीतों को साहित्य की बुलंदियों पर पहुंचाने में अहम किरदार निभाया। 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म ऊंचे लोग का यह गीत इस बात की तस्दीक करता है-
"एक परी कुछ शाद सी, नाशाद-सी
बैठी हुई शबनम में तेरी याद की
भीग रही होगी कहीं कली-सी गुलज़ार की
जाग दिल-ए-दीवाना"
1993 में उन्हें सिनेमा जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया। यह पुरस्कार पाने वाले वह पहले गीतकार थे। इसके अलावा 1965 में वह फ़िल्म दोस्ती में अपने गीत- चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे… के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। मजरूह सुल्तानपुरी ने चार दशकों से भी ज़्यादा अरसे तक क़रीब तीन सौ फ़िल्मों के लिए तक़रीबन चार हज़ार गीत लिखे। मजरूह ने 24 मई, 2000 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनकी शायरी ने उन्हें अमर बना दिया। अपने गीतों और गजलों से न जाने कितने दिलों में अरमान जगाने वाले राहत इंदौरी ने कहा है, कि 'मजरूह सुल्तानपुरी तरक्की पसंद खूबसूरत नज्मों में माहिर थे। उन्होंने शब्दों को गजल में पिरोकर आजादी और बराबरी का पैगाम दिया।'
-प्रज्ञा श्रीवास्तव