Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

डेयरी उद्योग का वो काला सच, जिसे जान कर आपकी रूह कांप जायेगी

डेयरी उद्योग का वो काला सच, जिसे जान कर आपकी रूह कांप जायेगी

Wednesday March 15, 2017 , 8 min Read

"कोई भी गाय मनुष्यों के उपभोग के लिए खुशी-खुशी दूध नहीं देती। पशुओं के प्रति क्रूरता, रक्तपात और पशु-वध अक्सर गैर-शाकाहार, मांस की खपत और चमड़े के उद्योग से जुड़ा होता है, लेकिन संपन्न भारतीय डेयरी उद्योग के खिलाफ शायद ही कभी कोई आवाज़ उठाई जाती है। इस उद्योग में मवेशियों का न सिर्फ शोषण होता है, बल्कि उन्हें अमानवीय परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर भी किया जाता है... ऐसी परिस्थितियां, जो किसी भी जीवित प्राणी के लिए उपयुक्त नहीं हैं।"

<div style=

बछड़ों को अपनी मां के साथ किसी भी प्रकार के संपर्क की अनुमति नहीं होतीa12bc34de56fgmedium"/>

पशुओं के साथ होने वाली क्रूरता का अध्ययन करने के लिए, भारतीय पशु संरक्षण संगठन (FIAPO) ने जून 2016 में राजस्थान के चार शहर- अलवर, बीकानेर, जयपुर और जोधपुर की कुल 49 डेरियों की गोपनीय जांच की। इस जांच के बाद जो सच सामने आया उसने बेहद घिनौनी क्रूरता का पर्दाफाश किया।

दूध देने वाला कोई भी पशु मनुष्यों के उपभोग के लिए खुशी-खुशी दूध नहीं देता। दूध देने के लिए उन्हें कई तरह की दर्दनाक प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है।

क्या आप जानते हैं, कि डेयरी फार्म्स और तबेलों में बड़े पैमाने पर दुग्ध-उत्पादन के लिए गायों को अक्सर गर्भाधान के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, साथ ही पशुओं को कृत्रिम गर्भाधान भी कराया जाता है। लेकिन सच तो ये है, कि दूध देने वाले पालतू पशु भी इंसानी माँओं की तरह सिर्फ अपने छोटे बच्चों के लिए दूध देती हैं। एफआईएपीओ के 33 वर्षीय निदेशक वरदा मेहरोत्रा ​​बताते हैं, कि 'जानवरों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार को दूध उद्योग हर कदम बढ़ावा देता है। जैसा कि हम विश्वास करते हैं, कोई गाय ख़ुशी-ख़ुशी मनुष्यों के उपभोग के लिए दूध उपलब्ध नहीं कराती।'

मादा पशुओं को दूध उत्पादन के लिए एक वर्ष में कम से कम एक बार बच्चा देने के लिए मजबूर किया जाता है, जिसका अर्थ है कि पशुओं को लगातार कृत्रिम रूप से गर्भवती किया जाता है। अध्ययनों से पता चलता है कि कृत्रिम गर्भाधान और जिस तरह से उनके साथ बर्ताव किया जाता है, उस कारण से पशुओं की जीवन अवधि बहुत प्रभावित होती है। आदर्श परिस्थिति में, मवेशियों की आयु लगभग 25 वर्ष होती है, लेकिन कृत्रिम साधनों के चलते उनका जीवन काल सिर्फ 10 वर्ष का ही होकर रह गया है। इस तरह की खबरें अक्सर समाचार पत्रों और डेयरी उद्योग से भी आती रहती हैं, लेकिन एफआईएपीओ की जांच से पता चलता है, कि इन मूक प्राणियों के साथ इससे कहीं अधिक क्रूरता का व्यवहार किया जाता है।

<div style=

माँ से दूर दो प्यारे मासूम बछड़ेa12bc34de56fgmedium"/>

त्वचा-रोग बछड़ों में एक आम बीमारी हैं, लेकिन अधिकतर डेयरी मालिक वर्ष में सिर्फ एक बार ही टीकाकरण करवाते हैं।

नर बछड़े को अक्सर डेयरी उद्योग में बोझ माना जाता है, क्योंकि वह दूध का उत्पादन करने में असमर्थ होता है और कोई भी केवल युवा बछड़े के चमड़े और मांस को बेच कर ही लाभ प्राप्त कर सकता है। संक्षेप में कहें तो, नर बछड़े के लिए केवल पशुवध ही एकमात्र उपलब्ध विकल्प है। पशु-चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसा करने के लिए बछड़ा कम से कम चार से पांच महीने का होना चाहिए। लेकिन यह अत्यंत अफसोस की बात है, कि डेयरी उद्योग बछड़ों को भी सीमित जीवन काल प्रदान करने में विफल रहता है और अक्सर जन्म के चार से पांच दिनों के भीतर ही बछड़ों को वध-गृह भेज दिया जाता है, जोकि पशु-क्रूरता रोकथाम (वध-गृह) नियम, 2001 का सरासर उल्लंघन है। वरदा कहते हैं, कि 'डेयरी उद्योग में जानवरों के साथ बहुत क्रूरता होती है, जिसे हम आमतौर पर नहीं देख पाते हैं। नर बछड़ों को अल्पआयु में ही गैरज़रूरी और दुग्ध उत्पादन में असमर्थ बता कर वध-गृह भेज दिया जाता है।'

पैदा होते ही बछड़ों को अपनी माताओं से अलग और प्रतिबंधित कर दिया जाता है, जो माँ और बछड़े दोनों के लिए दर्दनाक और दुखद है। मां के दूध का उपयोग मानव उपभोग के लिए किया जाता है, जबकि बछड़ों को दूध पिलाने की बजाय चारा खिलाया जाता है और सीमित स्तनपान कराया जाता है। नर बछड़ों और अनुत्पादक, बाँझ मादाओं को बेकार माना जाता है। उन्हें या तो छोड़ दिया जाता है या फिर वध होने के लिए भेज दिया जाता है। स्वस्थ मादाओं को पाला जाता हैं और फिर उन्हें उसी दूध से वध चक्र के माध्यम से गुजरना पड़ता है। एक-एक बूँद दूध निकाल लेने के बाद निर्बल और बांझ हो चुकी गायों और भैंसों को मार दिया जाता है, लेकिन दर्द और तकलीफ की इस दुनिया का अंत यहीं नहीं होता।

<div style=

एक नकली बछड़ा- मां की बगल में रखा जाता है, ताकि माँ दूध दे सकेa12bc34de56fgmedium"/>

नवजात बछड़े के सिर और पूंछ को शव से उखाड़ लिया जाता है और एक डंडे के सिरे पर जड़ दिया जाता है। मौत की गंध को घास और एक प्रकार के बाम से छिपा दिया जाता है, जिसकी मदद से दूध देने वाली मां (पशु) भ्रम में रहते हुए दूध देती है और बछड़े के अवशेष को बाजार में मांस के रूप में बेच दिया जाता है।


आपने भी देखा होगा, कि दूध वाले के यहां जिस समय दुधिया दूध निकालने के लिए गाय या भैंस के पास एक खाली बाल्टी ले जाता है, उसी दौरान भूसा भरा मरे हुए बछड़े का सिर भी ले जाता है। जिसे गाय तब तक चाटती रहती है, जब तक दूध निकाला जाता है। यह एक मां की भावनाओं के साथ बेहद क्रूर खिलवाड़ है जो मनुष्य द्वारा किया जाता है। कुछ लोग सोचते हैं, कि बछड़ा पैदा होते ही मर गया होगा, लेकिन इसके पीछे का सच तो कुछ और ही होता है।

वरदा कहते हैं, 'यह विडंबना ही है, कि जब दूध और गोमांस की बात आती है तो पशु को विभिन्न दृष्टिकोण से देखा जाता है। जबकि ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कृतिका श्रीनिवासन, राजेश कस्तुरीरंगन और स्मिथा राव द्वारा ‘द हिंदू’ में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, दूध उत्पादन का मौद्रिक मूल्य 2004-05 और 2011-12 के बीच लगभग तीन गुना हो गया और इस अवधि में दूध और बीफ़ उत्पादन के बीच 98.6 प्रतिशत की समानता थी। यह तथ्य न तो चौंकाने वाला है और न ही संयोग है, कि भारत सबसे बड़ा मांस उत्पादक होने के साथ ही सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक भी है।'

image


अमेरिकी कृषि विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक भारत ने 2015 में 24 लाख टन बीफ़ और बछड़े के मांस का निर्यात किया था। हालांकि, इतनी बड़ी संख्या पर बहुत प्रश्न और चर्चाएं हुई हैं, लेकिन इसकी असल वजह को समझने के लिए कोई भी तैयार नहीं है और वो वजह है, देश में डेयरी उद्योग का विस्तार।

विज्ञापन और बातचीत के माध्यम से दूध और दुग्ध उत्पादों के बारे में ये जानकारी दी जाती है, कि डेयरी उत्पाद पूरी तरह स्वस्थ और हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है, जबकि इनसे जुड़े स्वास्थ्य संबधी खतरों की कोई कभी बात नहीं करता।

कुंतल जोशियर माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले दुनिया के पहले शाकाहारी हैं। 34 वर्षीय कुंतल कहते हैं, 'मैं अपने काम से एक पर्वतारोही और दिल से शाकाहारी हूँ। मैं चाहता हूं कि लोग अपने खानपान और अपने विकल्पों के चुनाव पर थोड़ा चिंतन करें।' उनका मानना है, कि यदि वे शाकाहार आधारित आहार का सेवन कर के दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ सकतें हैं, तो कोई भी व्यक्ति जानवरों के उत्पादों का उपभोग किए बिना भी स्वस्थ जीवन जी सकता है। शाकाहारी भोजन का सेवन करके कोई भी व्यक्ति अपने कार्बन फुटप्रिंट को कम कर सकता है और इन सबके साथ-साथ उस पानी को भी बचाया जा सकता है, जिसकी कीमत बढ़ चुकी है। जल यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि पशुधन की बजाय, महत्वपूर्ण फसल संसाधन मनुष्यों को खिलाया जा सकते हैं। 

<div style=

तस्वीर में आप देख सकते हैं, कि किस तरह पशुओं को एक साथ छोटी-सी जगह में बांध कर रखा गया है।a12bc34de56fgmedium"/>

बछड़ों सहित मवेशियों को छोटी रस्सी में एक ही जगह बाँध कर रखा जाता है।

भारतीय समाज द्वारा पैदा की जाने वाली सबसे मजबूत मान्यताओं में से एक मान्यता ये भी है, कि डेयरी उत्पाद स्वस्थ और अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। एफआईएपीओ इसे एक सफेद झूठ मानता है और मानव आहार में डेयरी उत्पादों की जरूरतों के बारे में कई तरह के गंभीर और ज़रूरी सवाल उठाता है। जिस पर विस्तारपूर्वक बात करते हुए वरदा कहते हैं, 'यदि आप किसी को बताते हैं कि वास्तव में दूध पीने और मांस खाने दोनों में ही पशुओं को एक जैसी पीड़ा और दुख से गुजरना होता है, तो वे आप पर विश्वास नहीं करेंगे। इसलिए 'Do not Get Milked' पूरी तरह इस सोच पर आधारित है, कि डेयरी उद्योग की इस वास्तविकता को सामने लाया जाये और उपभोक्ताओं को जागरुक किया जाये।'

-श्रुति केड़िया

अनुवाद- प्रकाश भूषण सिंह