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कविता को अब नए प्रतिमान का इंतजार

कविता को अब नए प्रतिमान का इंतजार

Friday September 29, 2017 , 8 min Read

हिंदी कविता के मंचों की स्थिति अब पहले जैसी नहीं रही। मंच पर अवश्य ही कविता के नाम पर फूहड़पन परोसा जा रहा है जिसका एक अलग श्रोता या पाठक होता है।

कवि कृष्ण सुकुमार

कवि कृष्ण सुकुमार


अगर फूहड़ कविताओं की जगह मंच और मीडिया अनवरत स्तरीय कविताओं को प्रसारित करने लगे तो धीरे-धीरे ही सही, एक दिन अच्छी कविता बड़ी मात्रा में अपना पाठकवर्ग तैयार कर सकती है।

नयी कविता के बरअक्स छंदयुक्त रचनाओं को अभिव्यक्ति का आउट ऑफ़ डेट माध्यम मान कर वे गीत नवगीत की लगातार उपेक्षा करते रहे। 

देश के जाने माने कवि कृष्ण सुकुमार को ऐसा नहीं लगता है कि हिंदी में स्तरीय कविता के पाठक सिमटते जा रहे हैं। इस समय कविता अपने कई रूपों में लोकप्रियता प्राप्त कर रही है, जैसे छन्दहीन नयी कविता, ग़ज़ल, नवगीत, दोहे, हायकू इत्यादि। नेट जैसी सुविधाओं के कारण आज नेट पर ढेरों नेट पत्रिकाएं और ब्लॉग इत्यादि पर अच्छी और बेकार दोनों तरह की कविताएं खूब लिखी जा रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि अच्छी कविताओं का पाठकवर्ग भी इसके कारण बढ़ा ही है और पाठक अच्छी कविताओं को ढूंढ ढूंढ कर पढ़ते हैं। स्तरीय कविताएं, स्तरीय पत्रिकाएं भी छाप रही हैं और पुस्तकों के रूप में भी स्तरीय संग्रह छप रहे हैं।

उनका मानना है कि हर युग में स्तरीय कविता का एक खास पाठक वर्ग होता है और वो सीमित ही होता आया है। हिंदी कविता के मंचों की स्थिति अब पहले जैसी नहीं रही। मंच पर अवश्य ही कविता के नाम पर फूहड़पन परोसा जा रहा है जिसका एक अलग श्रोता या पाठक होता है। आज मंचों से स्तरीय कविता की अपेक्षा नहीं की जा सकती। न वो श्रोता आपकी स्तरीय कविता को स्वीकारने वाला है। निश्चित रूप से स्तरीय कविता को मंच और मीडिया सर्वाधिक हतोत्साहित कर रहे हैं। अगर फूहड़ कविताओं की जगह मंच और मीडिया अनवरत स्तरीय कविताओं को प्रसारित करने लगे तो धीरे-धीरे ही सही, एक दिन अच्छी कविता बड़ी मात्रा में अपना पाठकवर्ग तैयार कर सकती है।

ज्यादातर गंभीर साहित्यकारों को आज लगता है कि आधुनिकता के नाम पर आलोचकों ने नयी कविता के सामने गीत और नवगीत जैसी छंदयुक्त रचनाओं से दृष्टि फेर रखी है। नयी कविता के बरअक्स छंदयुक्त रचनाओं को अभिव्यक्ति का आउट ऑफ़ डेट माध्यम मान कर वे गीत नवगीत की लगातार उपेक्षा करते रहे। वस्तुत: इसका एक कारण यह भी हो सकता है, जैसा कि माहेश्वर तिवारी ने भी कहीं कहा है कि ‘कविता और आलोचना दोनों आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य विचारों के इतने आतंकपूर्ण प्रभाव में रहे कि अपनी जमीन की ओर देखने के लिए उनके पास अवकाश ही नहीं था’! नयी कविता वास्तव में गद्य कविता है जो किसी शिल्प विशेष या छंद में बँध कर नहीं चलती, उसका मुख्य उद्देश्य है सप्रेषणीयता और इसमें परम्परागत कविता से हट कर नए मूल्यों और विधान का प्राधान्य होता है।

माना जा रहा है कि यह संवेदनाओं को नए बिम्बों और नए मुहावरे में व्यक्त करने की ओर प्रवृत्त है। नयी कविता की इन कुछ विशेषताओं को रेखांकित करने के पीछे मेरी मंशा यह है कि नवगीत भी इस मायने में नयी कविता से पीछे नहीं हैं, सिवाय इसके कि उसमें छंद और लय का भी ध्यान रखा जाता है। गीत की संवेदना और शिल्प कविता की शिल्प और संवेदना से और किसी भी प्रकार कमतर नहीं आंका जा सकता। छंदयुक्त कविताओं के प्रति आलोचकों का यह दुराग्रह इसलिए भी हो सकता है क़ि छंदयुक्त कविताओं को महत्व देने से कहीं नई कविता का प्रभाव ही कम न हो जाय। किन्तु मैं समझता हूँ कि अब स्थिति उस प्रकार की नहीं रही।

निःसंदेह नई कविता की चकाचौंध में आलोचकों और पत्र पत्रिकाओं ने छंदयुक्त कविता को खारिज कर रखा था, आजकल नवगीत ही नहीं ग़ज़ल को भी हंस, पहल, कथादेश जैसी पत्रिकाएं सम्मान के साथ स्थान दे रही हैं और एक भरापूरा पाठक वर्ग भी छंदयुक्त कविताओं के प्रति पूरा आकर्षण रखता हैं। आज ग़ज़ल और नवगीत समकालीन सामाजिक यथार्थ को, मानवीय संवेदनाओं और अनुभूतियों को नए बिम्बों, नए कथ्य और नए शिल्प के साथ व्यक्त करने में कहीं भी नयी कविता से पीछे नहीं हैं। कवि-लेखक गिरीश पंकज की टिप्पणी है कि पाठ्यक्रमों में स्तरीय कविताओं के अभाव के पीछे अधिकारी, राजनीतिक हस्तक्षेप के साथ -साथ साहित्य के वे माफिया भी जिम्मेदार हैं, जिनके लिए साहित्य साधना नहीं, अपनी छवि चमकाने का माध्यम रहा। आज भी ऐसे लोग सक्रिय हैं और पाठ्यक्रमों का सत्यानाश कर रहे हैं।

आज़ादी के एक-डेढ़ दशक तक तो कविताओं के चयन में कुछ शुचिता कायम थी, लेकिन जैसे ही अधिकारीनुमा लेखक या लेखकनुमा अधिकारी बढ़ने लगे, वे पाठ्यक्रमों में अपने-अपने परिचितों को समाविष्ट करने लगे। कहीं-कहीं तो वे खुद भी पाठ्यक्रमों का हिस्सा बन गए। ये वे लोग थे, जो आईएएस किस्म की प्रजाति के कहे जाते हैं। ऐसे लोग आज भी सक्रिय हैं। इसका खामियाजा साहित्य को, और वर्तमान पीढ़ी को भुगतना पड़ा। कविता के नाम पर ऐसी-ऐसी कविताएँ परोसी गईं, जिनका अर्थ भी किसी की समझ से परे था। हमारे साहित्य के महान पुरोधाओं को बाहर का रास्ता दिखा कर नए पाठ्यक्रमों के नाम पर अनेक निम्नस्तरीय रचनाकारों को शामिल करना सामाजिक अपराध है।

आज भी अनेक प्रतिभाशाली, तेजस्वी कविताएँ विद्यमान हैं, लेकिन उन्हें पाठ्यक्रमों में स्थान नहीं मिलता क्योंकि ये सर्जक न तो किसी अफसर के पास जाएंगे और न किसी राजनेता का चरण चुंबन करेंगे। जब तक पाठ्यक्रमों की चयन समितियों में ईमानदार चयनकर्ता शामिल नहीं होंगे, इसी तरह का कबाड़ा होता रहेगा और छात्रगण दोयम दर्जे की रचनाओं को प्रथम श्रेणी की रचना समझ कर उसको रटने पर विवश रहेंगे।

जहां तक स्तरीय कविताओं के पाठक सिमटते जाने का प्रश्न है, श्रेष्ठ कविताएं सदियों से श्रुतियों में, लोक स्मृतियों में सुरक्षित रही हैं। आगे भी रहेंगी लेकिन अभी का जो समय है, वो कविताओं के लिए संक्रमण का समय है। इस समय तथाकथित नई कविताओं का बोलबाला है। उसे ही नए जमाने में सौंदर्यबोध की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। छंद बहिष्कृत है और गद्यरूप में लिखी जा रही (अ ) कविताएं हर कहीं प्रमुखता प्राप्त कर रही हैं। इस कारण वो आम पाठक जिसका मन छंदानुरागी रहा है, वो इन नई कविताओं से दूर भागने लगा है। हालत यह हो गई है कि अगर किसी के बारे में पता चले कि वह कवि है, तो बाकी लोग उससे किनारा ही कर लेंगे। वैसे स्तरीय कविताओं के मुट्ठीभर पाठक अभी विद्यमान हैं।

यह और बात है कि वे सीमित हैं, लेकिन हैं ज़रूर। वैसे भी श्रेष्ठता को पसंद करने वाले हर काल में कम रहे हैं। मसखरी, प्रहसन, फूहड़ता के प्रति समाज का एक बड़ा वर्ग आकर्षित रहा है। आलोचक साहित्य की दशा और दिशा तय करते हैं। उनको पढ़ कर ही नया पाठक अपनी दृष्टि विकसित करता है। इसलिए मुझे लगता है कि अब नये आलोचक भी सामने आएं, जो छंदबद्ध रचनाओं के महत्व पर विमर्श करें। मुझे उम्मीद है कि 'कविकुम्भ' जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से ही छान्दसिक-कविता की वापसी हो सकती है। छंदों के माध्यम से नया चिंतन सामने आ रहा है। और छंद की विशेषता यही है कि वह स्मृतिलोक में बस जाती है। आज जो भी कविताएं अमर हैं, वह छंदबद्ध ही है या लयप्रधान हैं-

हम तो उस उड़ते परिंदे के दीवाने हो गए।

प्यार की हर छाँव में जिसके ठिकाने हो गए।

मैं भी चिड़ियों की तरह बेफिक्र हो जीता रहा

घोंसले में जब कभी दो-चार दाने हो गए।

छंदयुक्त और मुक्तछंद कविताओं के बारे में उठे एक प्रश्न पर हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि नरेश सक्सेना लिखते हैं- 'छंदमुक्त की शुरुआत निराला ने की थी। दुनिया की सारी भाषाओं में ये हुआ। जो आज भी छंद में अच्छा लिख सकते हैं, वे ज़रूर लिखें। मैं तो दोनों तरह से कोशिश करता हूँ। छंद में अच्छी कविताएं लिखना बहुत कठिन, लगभग असंभव। लय कविता का प्राण है, यह सही है।' सुपरिचित कवि गंगेश गुंजन का कहना है कि 'बाबा (नागार्जुन जी) ने एक बार मुझे कहा था-'छंदमुक्त या मुक्तछंदीय अच्छी कविता भी वही लिख सकता है, जिसे छन्दोबद्ध लिखने का अभ्यास हो। स्वाभाविक ही उसके बाद मैं, इसे ज़िम्मेदार गंभीरता से लेने लगा।

वैसे कविता भी तो अपने स्वरूप के अनुरूप ही अपने रचनाकार से साँचा भी ग्रहण करवाती है। छन्दोबद्ध या मुक्त लिखना भी अक्सर आपकी इच्छा पर शायद ही निर्भर है। हमारे समय के श्रेष्ठ सिद्ध कवि नरेश जी अधिक स्पष्ट जानते हैं। शास्त्रीय गायन-वादन में राग-रागिनियों की 'अवतारणा' की जाती है। यह विलक्षण अवधारणा है। जैसे प्राणप्रतिष्ठा की धारणा-परम्परा। इसी भाव से मैंने 'रूह' की बात की है। रूह हर जगह नहीं ठहर पाती। कोई भी कला-विधा (कविता या गीत तो और भी) 'आलोचना' के सम्मुख याचक बनकर नहीं जीती-मरती है। अपना वजूद सिद्ध करने के लिए रचनाकार को स्वयं महाप्राण बने रहना पड़ता है। जहां तक अपनी बात है, तो मैं प्रासंगिकता के संग अनवरत वह भी लिखता रहा।

रचनाओं के प्रकाशन की स्थिति जैसी अब है, वैसी ही तब भी उदासीनता की रही। लेकिन गीत विधा की मृत्यु मानना और कहना उन लोगों के अपने विश्वास का अकाल था, जो 'अकवि' थे क्योंकि यही उनकी प्रतिभा और प्रवृत्ति के लिए सुविधाजनक था। मुक्त कविता-कर्म से बुद्धि और कार्य साधक भावुकता का लक्ष्य तो पा लिया जा सकता है, 'रूह' का नहीं। रूह तो छन्द के आँगन में ही उन्मुक्तता से धड़कती है। और रूह को जो महज़ रूमानियत के दायरे में ही समझने, देखने-कहने के आदी हैं, वे इसपर भी अपनी बौद्धिक उदासीनता प्रकट करेंगे। अंततः रचनाकार की अपनी प्रवृत्ति और आस्था के साथ प्रयोगशील रहने का उसका साहस ही मुख्य है।'

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