हमेशा याद आते रहेंगे जर्नलिज्म के भीष्मपितामह कुलदीप नैयर
भारत के शीर्ष पत्रकार कुलदीप नैयर नहीं रहे। जैसे पत्रकारिता का एक युग चला गया हो। वह अंग्रेजी के कई बड़े अखबारों में काम करने के साथ ही ब्रिटेन में भारत के राजदूत और राज्य सभा सदस्य भी रहे। उनकी पुस्तक (‘बियोंड द लाइन्स’) ‘एक जिन्दगी काफी नहीं’ आजाद हिंदुस्तान का एक मुकम्मल राजनीतिक दस्तावेज मानी जाती है।
नैयर ने तो एक बार यहाँ तक कह डाला था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कानून बनाना चाहिए, कि किसी राष्ट्रीय स्वयं सेवक को उच्च पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाए। अन्ना हजारे के अन्दोलन के दौरान उन्होंने टीम अन्ना की भी अच्छी खबर ली थी।
हिंदी-अंग्रेजी पत्रकारिता जगत के लिए गुरुवार की सुबह बड़ी मनहूस रही। देश के ख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर 95 वर्ष की उम्र में यह दुनिया छोड़ चले। बुधवार रात साढ़े ग्यारह बजे दिल्ली के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के जमाने से शीर्ष पत्रकारिता में सक्रिय रहे नैयर को जर्नलिज्म का भीष्मपितामह माना गया है। देश के बंटवारे से पहले सियालकोट (अब पाकिस्तान) में उनका जन्म 14 अगस्त, 1923 को पैदा हुए कुलदीप नैयर की पढ़ाई लाहौर में हुई। वह वकील बनना चाहते थे, लेकिन अपनी वकालत जमा पाते, उससे पहले ही देश का बंटवारा हो गया। सियालकोट छोड़कर उनका परिवार भारत आ गया। यहां उन्होंने पत्रकारिता को आजीविका का माध्यम बनाया।
उन्होंने स्टेट्स-मैन, इंडियन एक्सप्रेस समेत कई नामचीन अखबारों में शीर्ष पदों पर काम किया। वह ब्रिटेन में भारत के राजदूत भी रहे। बतौर राज्य सभा सदस्य भी अपनी भूमिका निभाई लेकिन, पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने अविस्मरणीय कार्य किए। इसके लिए उन्हें कई पुरस्कार भी मिले। उन्होंने कई बहुचर्चित किताबें लिखीं, जिनमें अंग्रेजी में उनकी आत्मकथा 'बियांड द लाइंस' काफी लोकप्रिय रही। बाद में इसका हिंदी अनुवाद भी 'एक जिंदगी काफी नहीं' नाम से पाठकों तक पहुंचा। उन्होंने इसके अतिरिक्त कई किताबें 'बिटवीन द लाइंस', 'डिस्टेंट नेवर: ए टेल ऑफ द सब कान्टिनेंट', ‘इंडिया आफ्टर नेहरू', ‘वाल एट वाघा, इंडिया पाकिस्तान रिलेशनशिप', 'इंडिया हाउस' आदि लिखी हैं।
शुरुआती दिनों में वह एक उर्दू अखबार में रिपोर्टर रहे। भारत सरकार के प्रेस सूचना अधिकारी के पद पर कई वर्षों तक कार्य करने के बाद वे यूएनआई से भी जुड़े। पच्चीस वर्षों तक ‘द टाइम्स' लंदन के संवाददाता भी रहे। 1996 में वह संयुक्त राष्ट्र के लिए भारत के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य बने। 1990 में उन्हें ग्रेट ब्रिटेन में उच्चायुक्त नियुक्त किया गया था। पत्रकारिता और लेखन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के कारण 1997 में उन्हें राज्यसभा के लिए भी मनोनीत किया गया। नैयर डेक्कन हेराल्ड (बेंगलुरु), द डेली स्टार, द संडे गार्जियन, द न्यूज, द स्टेट्समैन, द एक्सप्रेस ट्रिब्यून पाकिस्तान, डॉन पाकिस्तान, सहित 80 से अधिक समाचार पत्रों के लिए 14 भाषाओं में कॉलम लिखते रहे। आपातकाल के दौरान उनको सरकार के खिलाफ लेख लिखने के कारण जेल भी जाना पड़ा था। पत्रकारिता की दुनिया में 'कुलदीप नैयर पत्रकारिता अवॉर्ड' भी दिया जाता है। 23 नवम्बर, 2015 को उन्हे पत्रकारिता में आजीवन उपलब्धि के लिए 'रामनाथ गोयनका स्मृ़ति पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। उन्हे संत नामदेव राष्ट्रीय पुरस्कार (2014) से भी सम्मानित किया गया था।
वह आजीवन मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में भी सक्रिय रहे। उन पर छद्म धर्मनिपेक्ष होने के साथ-साथ हिंदू विरोधी होने के भी आरोप समय-समय पर लगते रहते हैं। नैयर ने तो एक बार यहाँ तक कह डाला था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कानून बनाना चाहिए, कि किसी राष्ट्रीय स्वयं सेवक को उच्च पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाए। अन्ना हजारे के अन्दोलन के दौरान उन्होंने टीम अन्ना की भी अच्छी खबर ली थी। उनकी पुस्तक (‘बियोंड द लाइन्स’) ‘एक जिन्दगी काफी नहीं’ आजाद हिंदुस्तान की अन्दरूनी कहानी है। उनके बचपन और बंटवारे के समय से लेकर आज तक के भारत का वृतांत समेटे यह किताब लगभग बाईस वर्षों में लिखी गयी। बेहद कसी हुई भाषा में लिखी इस पुस्तक में इतिहास, राजनीति, समाज, प्रेस, सब कुछ है। युगांक धीर का अनुवाद हिंदी में इसे और ज्यादा पठनीय बना देता है।
वह सन् 1971 का साल था, जब बांग्लादेश के निर्माण के बाद तत्कालीन विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इंदिरा गांधी की दुर्गा कह कर तारीफ की थी। उन दिनो इंदिरा गांधी की प्रतिष्ठा लोकप्रियता के आसमान पर थी। विपक्षी पार्टियां कमजोर तो थीं ही, उनमें इतने मतभेद भी थे कि सरकार के लिए शायद ही कोई खतरा पैदा होता। ऐसे में अचानक जेपी (जयप्रकाश नारायण) की आवाज इंदिरा गांधी को बैचेन करने लगी। उस किताब में कुलदीप नैयर लिखते हैं - ‘जेपी न तो संसद में थे और न दिल्ली में रहते थे। फिर भी, वे जब भी कुछ कहते थे तो लोगों का ध्यान सहज ही उनकी तरफ खिंच जाता था। उनकी गांधीवादी पृष्ठभूमि थी और उन्होंने कोई भी सरकारी पद स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। नेहरू के अनुरोध करने पर भी नहीं।
इसलिए उनकी छवि किसी साधु-संन्यासी जैसी बन चुकी थी और सभी देशवासी उनका बहुत मान करते थे। उन्हें प्यार से ‘जेपी’ के नाम से जाना जाता था। जेपी ने सत्तर की उम्र पार कर लेने के बाद इंदिरा गांधी से टक्कर लेने की ठानी थी। इसका कारण था बढ़ता भ्रष्टाचार, सत्ता का दुरुपयोग, चारों तरफ बढ़ती बेरोजगारी से युवाओं में असंतोष। गुजरात में शुरू हुए नवनिर्माण आंदोलन को भी जेपी का समर्थन मिला और चिमनभाई सरकार को इस्तीफा देना पड़ा। जेपी ने देश की युवा पीढ़ी को अपने आंदोलन के साथ जोड़ लिया।'
12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट को फैसला आया, जिसमें न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द तो किया ही, उन्हें अगले छह वर्ष के लिए किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। यह फैसला सोशलिस्ट नेता राजनारायण द्वारा दायर याचिका पर लिया गया था। न्यायालय ने इंदिरा गांधी के चुनाव में सत्ता के दुरुपयोग के प्रमाण अपने निर्णय में प्रस्तुत किये। कुलदीप नैयर लिखते हैं- ‘स्वयं इंदिरा गांधी अपने पद से त्याग पत्र देने को तैयार थीं लेकिन दो प्रमुख सलाहकार संजय गांधी और मुख्य मंत्री सिद्धार्थ शंकर ने उन्हें त्याग पत्र देने की बजाय इमरजेंसी लगाने की सलाह दी। संजय गांधी दून स्कूल से अधूरी पढ़ाई छोड़कर निकले और इंग्लैंड में रॉल्स कम्पनी में एक मोटर मैकेनिक के रुप में शार्गिदगी कर चुके थे। उनके पास कोई शैक्षणिक योग्यता नहीं थी लेकिन वे राजनीति में आने के लिए लालायित थे। इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद उन्हें खुलकर सामने आने का अवसर मिल गया। अपनी मां के माध्यम से वे सत्ता और पैसे की ताकत का अनुभव करना चाहते थे।'
आज के दौर में पत्रकारिता जब सवालों के चक्रव्यूह में घिरी है तो इसे तोड़ने में नैयर को जानना-समझना महत्वपूर्ण हो जाता है। कुलदीप नैयर बताते हैं कि 'इमरजेंसी से बहुत पहले से ही इंदिरा गांधी उनके साथ राजनीति पर बातचीत करने लगी थीं। कई बार संजय के साथ खाने के दौरान वे अपने बड़े बेटे राजीव गांधी का जिक्र करते हुए कहती थीं कि उसे तो राजनीति का क-ख-ग भी नहीं आता। राजीव गांधी तब एक एयरलाइन में पायलट थे और किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि इंदिरा गांधी के बाद वही प्रधानमंत्री बनेंगे।' नैयर की इस किताब के ऐसे लगभग 50 पृष्ठों में उस दौर का एक-एक ब्योरा इस दर्ज है । यह भी कि ‘जस्टिस कृष्ण अय्यर का पलड़ा स्वयं इंदिरा गांधी की तरफ झुका हुआ था। और यह भी कि आपातकाल घोषित करने से पहले उन्होंने न कैबिनेट की सलाह ली और न राष्ट्रपति को विश्वास में लिया।’ भारतीय राजनीति पर इतनी बेबाकी और साहस के साथ और किसी ने कभी नहीं लिखा। उन्होंने खुद स्वीकारा भी है कि 'अगर मुझे अपनी जिन्दगी का कोई अहम मोड़ चुनना हो तो मैं इमरजेंसी के दौरान अपनी हिरासत को ऐसे ही एक मोड़ के रूप में देखना चाहूंगा, जब मेरी निर्दोषता को हमले का शिकार होना पड़ा था।' यह पुस्तक लगभग बीस अध्यायों में विभाजित है।
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