'कोशिश' दो युवाओं की, असर इलाके पर और बदलाव पूरे समाज में...
‘शमा जलाने की कोशिश है उस बस्ती में मेरी, सितारों के शहर में जहां अंधेरा आज भी है’। शहरों की बड़ी-बड़ी और ऊंची-ऊंची गगनचुम्बी अट्टालिकाएं। चिकनी-चौड़ी सड़कें और उनपर सरपट भागती महंगी चमचमाती हुई गाड़ियां। गली मोहल्ले से लेकर चौराहों तक हर जगह इंसानों का रेलमपेल। कशमकश भरी तेज रफ्तार जिंदगी और इसमें एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़। किसी भी बड़े शहरों की कहानी बयां करने के लिए काफी है। ये एक अघोषित सा पैमाना है, जिससे इंसान किसी शहर की खुशहाली को आंकता और मापता है। जहां सबकुछ अच्छा-अच्छा से लगता और दिखता है। लेकिन शहरों की इस चकाचौंध और भागम-भाग में अक्सर शहरी आबादी का एक बड़ा हिस्सा पीछे छूट जाता है। आधुनिक शहरी समाज में भी उनका जीवन कष्टमय और अभावग्रस्त रहता है। तरक्की की राह में वह आज भी अपने ही शहर के लोगों से सालों पीछे हैं। वह अशिक्षित हैं, गरीब हैं और जीवन की बुनियादी सुविधाओं से महरूम है। सरकारी उपेक्षा, उदासीनता और लालफीताशाही का शिकार है। उनके दु:ख दर्द और समस्याओं को समझने वाला शायद ही कोई होता है। ये परिस्थितियां लगभग हर शहर की है। लेकिन भोपाल में ऐसे लोगों की जिंदगी में वक्त के साथ रफ्तार भरने आगे आ गए हैं, दो युवा- नैना यादव और पवन दूबे। इन दो युवाओं ने महसूस किया है अपने ही शहर में हाशिए पर रहने वालों का दर्द। ये उनकी जिंदगी खुशहाल बनाने की कोशिशों में जुटे हैं। शमा रौशन कर दूर कर रहे हैं, उनके जीवन से अंधेरा। इनके प्रयासों को जहां समाज ने सराहा है, वहीं इलाके के जनप्रतिनिधि और प्रशासन भी इनके कामों में सहयोग कर रहा है। पवन दूबे और नैना यादव ने योर स्टोरी से साझा किए अपने छोटी सी कोशिशों का खूबसूरत सफरनामा।
समाज बदलने की कोशिश
मूल रूप से इंदौर की रहने वाली 25 वर्षीय नैना यादव पेशे से पत्रकार हैं, जबकि उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के निवासी 33 वर्षीय पवन दूबे एक आइटी प्रोफेशनल हैं। दोनों पिछले चार-पांच सालों से नौकरी के सिलसिले में भोपाल में हैं। पठारों पर बसे झीलों के इस नगर की खूबसूरती बरबस ही हर किसी को भी अपने मोह में बांध लेती है। जो यहां आता है, यहीं का होकर रह जाता है। नैना और पवन दूबे का भी भोपाल पसंदीदा शहर है या यूं कहें कि भोपाल से उन्हें बेहद प्यार है। वह दोनों औरों से थोड़ा अलग सोचते और करते हैं। वह इस शहर के लिए कुछ करना चाहते थे। इसी मकसद से उन्होंने दो साल पहले भोपाल के पंचशील नगर में ‘कोशिश’ नाम की एक संस्था की नींव रखी थी। उनकी कोशिश है समाज को बदलने की। कुछ अलग करने की और कराने की। दूसरों के लिए जीने की और जीने का तरीका सिखाने की। पवन और नैना की एक छोटी सी कोशिश आज बहुत बड़ी बन गई है। उनके साथ सैंकड़ों लोग जुड़ गए है। आम छात्र- छात्राओं से लेकर कामकाजी महिलाएं, पुरुष और इलाके के लोग, जो समाज बदलने की कर रहे हैं कोशिश।
निशाने पर है शराबबंदी
यूं तो प्रदेश में शराब की दुकान और ठेके खोलने के लिए बाजाबता सरकार लाइसेंस जारी करती है। लेकिन दुकान और ठेके खोलने के लिए कुछ नियम और कानून भी लागू है, जिनका पालन करना जरूरी है। इसके बावजूद राजनीतिक संरक्षण और ऊंची रसूख के कारण इन नियमों की अवहेलना कर शराब की दुकानें खोली जाती है। ‘कोशिश’ ऐसी तमाम दुकानों के खिलाफ आवाज बुलंद करती है, जो अवैध हो या नियमों की अवहेलना कर खोली गई हो। रिहाईशी इलाके में खोले गए शराब के ठेके और दुकानों को बंद कराने के लिए ये धरना-प्रदर्शन और सरकारी अधिकारियों पर दबाव डालती है। संस्था के प्रयास से ही पंचशील नगर में सालों से चल रहे शराब के अवैध ठेके को सरकार ने बंद करवा दिया। इस ठेके की वजह से इलाके के दस से बारह साल तक के बच्चे शराब पीने की लत के शिकार हो गए थे। मजदूर तबके के पुरुष कच्ची शराब पीकर अक्सर अपने घर में महिलाओं से मारपीट किया करते थे। उनके घरों में रोज झगड़ा-लड़ाई होता था। उनके घरों के बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। यहां बलात्कार की भी कई घटनाएं घट चुकी थी। संस्था की कोशिशों की वजह से उस इलाके में तमाम अवैध ठेके बंद हो गए हैं। इस बात से खुश इलाके की जनता ने नैना यादव और पवन दूबे के सम्मान में हाल ही में एक प्रोग्राम का आयोजन किया। पेशे से पत्रकार नैना ने प्रदेश में शराब बंदी के लिए भी अभियान चला रखा है। उन्होंने सरकार के शराब नीतियों के विरोध में जागरुकता अभियान चलाया है। वह सरकार से इस बात की मांग कर रही हैं कि प्रदेश में शराब की खुली बिक्री को प्रतिबंधित किया जाए। नैना कहती हैं,
"शराब से एक घर, परिवार और समाज से लेकर पूरे देश को हानि हो रही है। इसका सबसे अधिक खामियाजा महिलाओं और बच्चों को भुगतना पड़ता है। सरकार राजस्व के लालच में शराब पर प्रतिबंध नहीं लगा पाती है, जबकि प्राप्त राजस्व से कई गुणा ज्यादा रकम शराब से पैदा होने वाले समस्याओं पर सरकार सालाना खर्च करती है। देर सबेर तमाम राज्य सरकारों को बिहार की तरह शराबबंदी की दिशा में सोचना होगा। फिलहाल पूर्ण शराबंदी तक हम अपनी लड़ाई जारी रखेंगे।"
घरेलू हिंसा नियंत्रण और स्त्री शिक्षा पर खास जोर
पवन दूबे कहते हैं कि यहां की झुग्गी-झोंपडिय़ों में रहने वाले महिलाएं सबसे ज्यादा घरेलु हिंसा की शिकार होती है। वह अक्सर इसपर चुप्पी साध लेती है। उन्हें पता ही नहीं है कि सरकार ने घरेलू हिंसा से बचने और उनकी समस्या के समाधान के लिए संस्थाएं गठित कर रखी है। पवन दूबे की टीम इन महिलाओं को घरेलू हिंसा को लेकर जागरुक करती हैं। उनके समस्याओं के समाधान के लिए उन्हें फैमिली कोर्ट, लोक अदालत, महिला पुलिस सेल और महिला आयोग के दरवाजे तक पहुंचाने का काम करती है। टीम नाबालिग लड़कियों के बीच यौन शोषण को लेकर जागरुकता अभियान चलाती है। स्कूलों और मोहल्लों में वर्कशॉप लगाकर बच्चियों को स्नेह, दुलार की आड़ में दैहिक शोषण के फर्क बताए जाते हैं। स्कूल ड्रॉपआउट बच्चों की पहचान कर उन्हें दोबारा स्कूल भेजने का काम किया जाता है। खास तौर पर लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए उनके अभिभावकों से अपील और उनकी काउंसलिंग की जाती है। पवन दूबे कहते हैं,
"जबतक समाज की एक-एक लड़कियां शिक्षित नहीं हो जाती हम अपना मिशन जारी रखेंगे। सरकार ने लड़कियों को पढ़ाने के लिए तमाम तरह की योजनाएं चला रखी है, लेकिन जागरुकता के अभाव में सामाज का वंचित समूह इसका लाभ नहीं उठा पाता है। हमें समाज के अंतिम व्यक्ति को शिक्षा के द्वारा तक पहुंचाना है।"
सीखा रहे हैं स्वास्थ्य रक्षा का पाठ
कोशिश की संचालिक नैना यादव कहती है कि शहर की मलीन बस्तियों में रहने वाली महिलाएं अक्सर स्वास्थ्य समस्याओं से जूझती रहती है। बीमार पड़ने पर वह सरकारी अस्पतालों और डिस्पेंसरी में जाने के बाजए अक्सर झोलाछाप डॉक्टरों के पास पहुंचती हैं, जो उनकी बीमारी ठीक करने के बजाए उसे बढ़ाते ज्यादा हैं। हम इन महिलाओं को आंगनबाड़ी केन्द्रों, आशा कार्यकर्ताओं और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का बेहतर इस्तेमाल करने के लिए जागरुक और प्रेरित करते हैं। स्वास्थ्य रक्षा के बुनियादी नियमों की उसे जानकारी उपलब्ध कराते हैं। एड्स और अन्य संक्रमणजनित यौन रोगों के प्रति उन्हें जागरुक किया जाता है। समय-समय पर स्वास्थ्य जांच शिविर लगाकर उनके स्वास्थ्य की जांच की जाती है। इसके अलावा सरकार द्वारा उनके हित में चलाई जा रही सभी तरह की योजनाओं की उन्हें जानकारी और उसका लाभ दिलाने में उनकी सहायता की जाती है।
व्यक्तिगत खर्चों में कटौती कर सदस्य जुटाते हैं धन
नैना यादव कहती हैं,
"सामाजिक कामों पर खर्च करने के लिए हमें कहीं से कोई आर्थिक सहायता नहीं मिलती है। अभी तक सदस्य ही धन का बंदोबस्त करते हैं। हमसे जुड़े हुए अधिकतर सदस्य माखनलाल युनिवर्सिटी के छात्र हैं। छात्र अपने रोजाना की चाय, कोल्ड्रींक , फास्टफूड और घूमने-फिरने पर खर्च होने वाले पैसों में कटौती करके संस्था को अंशदान देते हैं। सदस्य अपने घर के रद्दी पेपर और कबाड़ का पैसा संस्था को डोनेट करते हैं। कुछ नौकरी पेशा सदस्य खुद की जेब से भी पैसे खर्च करने के लिए आगे आते हैं।"
खबरों से मिली कुछ करने की प्रेरणा
नैना और पवन दोनों एक ही न्यूज चैनल में नौकरी करते हैं। चैनल में वैसे लोगों पर एक विशेष प्रोग्राम चलाया जाता है, जिसने समाज और देश के निर्माण में कोई योगदान दिया हो, या लीक से हटकर कुछ अलग काम किया हो। नैना कहती हैं,
"ऐसी ही खबरों से आइडिया आया कि क्यों न, मैं भी कुछ नया करूं, और फिर हमने शुरु कर दी कुछ अलग करने की छोटी-सी कोशिश। शुरुआती दौर में लगा कि नौकरी करते हुए दूसरों के लिए ऐसे कामों के लिए वक्त निकालना मुश्किल होगा, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है। अच्छे कामों की शुरुआत कभी भी नतीजे की चिंता किए बिना करनी चाहिए। मैंने ऐसा ही किया। आज मेरे काम में लोग स्वेच्छा से मदद करने आते हैं।"
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