बचपन में स्कूल जाने से डरने और किताबों से दूर भागने वाले तरनजीत सिंह अब 25 हज़ार से ज्यादा विद्यार्थियों को शिक्षा देने वाली 25 संस्थाओं के 'सरदार' हैं
एक लड़का बचपन में बहुत ही चंचल था। खेलना-कूदना और मटरगश्ती, सुबह से शाम तक यही उसका काम था। वो कभी अपने हमउम्र बच्चों के साथ कुश्ती लड़ता, तो कभी साथियों के साथ कबड्डी खेलता। वो लड़का क्रिकेट और फुटबाल का भी दीवाना था। उसे कसरत करने का भी शौक था, मौका मिलते ही अपने शरीर को तराशने की कोशिश में लग जाता था। लड़के के पिता गाय-भैंसों का कारोबार करते थे। उनके अपने खुद के तबेले थे और वे दूध और दूध से जुड़े उत्पाद भी बेचते थे। घर में दूध, दही, घी, मक्खन हमेशा रहते थे, लड़का खूब खाता और पूरे जोश और मस्ती में कसरत करता और खेल-कूद में रमा रहता। वो लड़का अपने कारोबारी पिता की पहली संतान था। शादी के कई सालों बाद उसका जन्म हुआ था, यही वजह थी माता-पिता का वो लाड़ला था। माता-पिता उसे बहुत प्यार करते और उसकी हर मांग को पूरी करते थे। उसके सारे नाज़-नखरे भी माता-पिता को बहुत अखरते थे। पिता ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे और चाहते थे कि उनका ये लड़का खूब पढ़े-लिखे। पढ़ाने के लिए अपने लाड़ले बेटे को वे विदेश भेजने को भी तैयार थे। लेकिन, लड़के की दिलचस्पी पढ़ाई-लिखाई में कम और खेल-कूद में ज्यादा थी। किताबें से वो दूर भागता था, स्कूल उसे डरावने लगते थे, दंगल और मैदान उसकी सबसे पसंदीदा जगह थीं। पिता ने एक दिन शहर के एक मशहूर स्कूल में बेटे का दाखिला कराने की सोची। स्कूल इंग्लिश मीडियम का था। स्कूल के नियम-कायदों के मुताबिक, दाखिले से पहले लड़के के साथ पिता का भी इंटरव्यू लिया जाना तय था। पिता अपने बेटे को लेकर स्कूल गए। स्कूल में इंटरव्यू शुरू हुआ। प्रिंसिपल अँगरेज़ थी, उसने अंग्रेज़ी में सवाल किये, पिता और बेटे – दोनों को अंग्रेज़ी नहीं आती थी। बाप-बेटा दोनों सवाल नहीं समझ पाए और दोनों ने जवाब भी नहीं दिया। प्रिंसिपल ने लड़के को स्कूल में दाखिल करने से मना कर दिया। पिता के पास खूब धन-दौलत थी, शहर में खूब रुतबा भी था, कई सारे लोगों को उन्होंने नौकरी पर भी रखा हुआ था, ऐसे में उन्हें लगता था कि शहर के किसी भी स्कूल में उनके बेटे का दाखिला आसानी से हो जाएगा। लेकिन, जब उस इंग्लिश मीडियम स्कूल की प्रिंसिपल ने उनके लड़के को दाखिला देने से मना कर दिया तब उन्हें बहुत दुःख हुआ, उन्हें गहरे ठेंस पहुँची। तभी उन्होंने फैसला कर लिया कि वे अपना खुद का स्कूल खोलेंगे। पिता स्कूल खोलने की जिद पर आ गए थे, वे चाहते थे कि जो पीड़ा उन्हें हुई है वैसी पीड़ा दूसरे अभिभावकों को न हो । लड़के के पिता अमीर थे, रसूकदार थे, इस वजह से अपने बच्चों का दाखिला किसी दूसरे स्कूल में करवा सकते थे। लेकिन, लड़के के पिता के मन में ख़याल आया कि गरीब बच्चों का क्या होगा? वे कहाँ पर अच्छी शिक्षा ले पायेंगे ? इन्हीं ख्यालों ने उन्हें ऐसा स्कूल खोलने ने लिए प्रेरित किया जहाँ ये न देखा जाता है कि बच्चों के माता-पिता अमीर हैं या गरीब, उन्हें पढ़ना-लिखना आता है या नहीं, वे अंग्रेजी में बोलना जानते है या नहीं। चूँकि इरादा पक्का था पिता ने अपना खुद का स्कूल खोलने की कोशिश शुरू की। इसी कोशिश के दौरान उन्हें पता चला कि निजी तौर पर स्कूल शुरू करने की इज़ाज़त सरकार नहीं देती है। ये जानकारी के बाद पिता ने अपना ये फैसला टाल दिया। लेकिन, अपने लड़के को अंग्रेज़ी सिखवाने के लिए एक ट्यूशन टीचर रखवा ली। फिर भी लड़के का मन पढ़ाई में नहीं लगा। लड़का बड़ा हुआ तो पिता ने उसे गाय-भैंस और दूध के कारोबार में उतार दिया। और इस तरह से लड़के ने पिता की विरासत को संभालना शुरू किया। कुछ सालों बाद पिता को अपना पुराना फैसला याद आया। उन्होंने अपने बड़े बेटे से ये जानने को कहा कि क्या सरकार ने लोगों को स्कूल खोलने की परमिशन देनी शुरू कर दी है? बेटे को अपनी तहकीकात में पता चला कि सरकार ने निजी क्षेत्र में स्कूल खोलने की परमिशन देनी नहीं शुरू की है लेकिन आईटीआई कॉलेज खोलने की परमिशन देनी शुरू कर दी है। ये जानकारी मिलते ही पिता ने अपने बेटे से कॉलेज खोलने की कोशिश करने का आदेश दिया। पिता के आदेश का पालन हुआ। बेटा कॉलेज का मुखिया बना। पहला कॉलेज खोलने के बाद पिता के निर्देश पर बेटे ने दूसरा कॉलेज खोला और फिर ऐसा करते-करते 25 शिक्षा संस्थान खोल लिए। इन शिक्षा संस्थानों में मेडिकल कॉलेज, डेंटल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, बिज़नेस स्कूल शामिल हैं। आगे चलकर जब सरकार ने निजी स्कूल खोलने की परमिशन देनी शुरू कर दी तब पिता-बेटे की जोड़ी के अपने स्कूल भी खोल लिए। कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद बेटे ने अपनी पिता की ख्वाहिश और सपनों को पूरा किया और 25 शिक्षा संस्थान खोले। बेटे ने न सिर्फ 25 शिक्षा संस्थान शुरू किये बल्कि उन्हें कारगर, लोकप्रिय और कामयाब बनाया। बेटा अब भी नए-नए शिक्षा संस्थान शुरू करने के कोशिश में है।शिक्षा और हुनर के प्रसार के लिये पिता के इस लाड़ले बेटे का नाम अब पूरे भारत में बड़े आदर के साथ लिया जाने लगा है। भैसों के तबेले और दूध के कारोबार से शुरुआत करने वाले पिता के इस लाड़ले बेटे की गिनती देश में शिक्षा क्षेत्र की सबसे नामचीन हस्तियों में होने लगी है। बचपन में जो शख्स किताबों से दूर भागता था उसी ने आगे चलकर ऐसे स्कूल-कॉलेज बनाये जहाँ से हर साल हजारों विद्यार्थी बड़े-बड़े अच्छे काम करने के काबिल बनकर निकल रहे हैं। जो शख्स अपने बचपान में सुबह से शाम तक सिर्फ खेलता-कूदता था आज-कल उसका सारा समय शिक्षा संस्थाओं के संचालन में गुज़र रहा है। जिस लाड़ले बेटे की यहाँ बात हुई है वे जोध इंदरजीत सिंह ग्रुप यानी जेआईएस ग्रुप के प्रबंध निदेशक तरनजीत सिंह हैं। तरनजीत सिंह की कामयाबी की कहानी भी अनोखी बेहद दिलचस्प है। तरनजीत सिंह की अनुवाई में जेआईएस ग्रुप पश्चिम बंगाल में 25 शिक्षण संस्थान चला रहा है और इन संस्थानों में मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, डेंटल कॉलेज, बिज़नेस स्कूल भी शामिल हैं। पच्चीस हज़ार से ज्यादा छात्र इन 25 शिक्षा संस्थाओं में अलग-अलग कोर्स की पढ़ाई कर रहे हैं। बड़ी बात ये है कि इन सभी शिक्षा संस्थानों को शुरू करवाने, उन्हें लोकप्रिय, कारगर और कामयाब बनाने में तरनजीत सिंह की बहुत बड़ी भूमिका है। इससे भी बड़ी बात ये है कि तरनजीत सिंह ज्यादा पढ़े नहीं हैं, उनकी पास बड़ी-बड़ी डिग्रियां भी नहीं हैं, लेकिन अपनी नेतृत्व-श्रमता और प्रबंधन-कौशाल के ज़रिये वे इन शिक्षा संस्थाओं को बड़े ही उम्दा तरीके से चला रहे हैं।
तरनजीत सिंह, मशहूर कारोबारी और उद्यमी सरदार जोध सिंह के बड़े बेटे हैं। नेतृत्व-श्रमता, प्रबंधन-कौशाल और समाज-सेवा के गुण तरनजीत सिंह को अपनी पिता से विरासत में मिले हैं। तरनजीत सिंह के पिता जोध सिंह ने आज़ादी के समय भारत के विभाजन की त्रासदी को झेला है। जोध सिंह को पाकिस्तान में अपना सब कुछ छोड़कर हिंदुस्तान आने पर मजबूर होना पड़ा था। घर-मकान, ज़मीन-जायजाद, खेत-गाँव सब कुछ पाकिस्तान में छोड़कर जोध सिंह खाली हाथ अपने परिजनों के साथ हिंदुस्तान आये थे। विपरीत और बेहद कठोर परिस्थियों में हिन्दुस्तान आये जोध सिंह को कई तकलीफों और चुनौतियों का सामना करना पड़ा था।
जोध सिंह ने हालात के सामने अभी हार नहीं मानी। मेहनत की और आगे बढ़े। हिंदुस्तान में शरणार्थी बनकर आने वाले जोध सिंह ने कारोबार शुरू करने के लिए अपनी बहन के कान की बाली बेच दी थी। कान की बाली बेचने पर जो 102 रुपये की रकम मिली थी उसमें से 40 रुपये निकालकर जोध सिंह ने एक भैंस खरीदी थी और बाद में इसी भैंस को 235 रुपये में बेचकर अपने कारोबारी जीवन की शुरूआत की थी। जोध सिंह में कारोबारी सूझ-बूझ थी और वे दूरदर्शी भी थे, इसी वजह से उन्होंने 1948 में ही भांप लिया था कि उनके लिए गाय-भैंसों और दूध का कारोबार करने के लिये बंगाल की राजधानी कोलकाता सबसे बेहतर और मुफ़ीद जगह रहेगी। उनका आंकलन सही भी निकला था और उन्होंने कोलकाता में कारोबारी साम्राज्य खड़ा किया। मेहनती पिता से ही तरनजीत ने कारोबार की बारीकियां सीखी हैं। तरनजीत बताते हैं कि उनके पिता एक बेहद मेहनती, ईमानदार और मृदुभाषी व्यक्ति हैं। उनका काम और व्यवहार ऐसा है कि लोग उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते । पिता से मिली इन्हीं सीखों को तरनजीत ने गांठ बांध लिया, जो आगे चलकर उनके लिये बेहद अहम और उपयोगी साबित हुईं। तरनजीत ने ये भी बताया कि बचपन में उन्हें किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं हुई। माता-पिता ने उन्हें लाड़-प्यार पाला-पोसा और बड़ा किया। इस लाड़-प्यार की एक बड़ी वजह थी- शादी के कई सालों बाद तरनजीत सिंह का जन्म हुआ था और उनके जन्म के बाद चार और संतानें हुईं।
तरनजीत ये कहने से बिलकुल नहीं कतराए और शर्माए कि बचपन में वे बहुत शरारती थे और उनका स्वाभाव बहुत चंचल था। उनकी पढ़ाई-लिखाई में दिलचस्पी नहीं थी और उन्हें बस खेलना-कूदना पसंद था। जेआईएस ग्रुप के प्रशासनिक कार्यालय में हुई एक बेहद ख़ास मुलाक़ात में तरनजीत सिंह ने अपने जीवन की बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में हमें बताया। तरनजीत सिंह के मुताबिक, पिता उन्हें खूब पढ़ाना चाहते थे। पिता का अनुशासन थोड़ा सख्त था। जरुरत की सारी चीज़े तरनजीत और उनके भाईयों को दिलवा दी जाती थीं, लेकिन बच्चे लाड़-प्यार में बिगड़ न जायें इसका भी पिता ख्याल रखते थे। पढ़ाई में रुचि न होने के कारण तरनजीत की अंग्रेजी भी कमजोर थी। पुराने दिनों की यादें ताज़ा करते हुए तरनजीत ने हमें वो किस्सा भी सुनाया जहाँ इंग्लिश मीडियम स्कूल की प्रिंसिपल के अंग्रेजी में पूछे गए सवालों को उनके पिता और वे समझ नहीं पाए थे। पिता की उम्मीदों के बिलकुल उलट जब उनका दाखिला इंग्लिश मीडियम स्कूल में नहीं हो पाया था तब पिता जोध सिंह बहुत दुखी हुए थे। अंग्रेजी न आने की वजह से खुद को बेइज्ज़त महसूस कर रहे पिता ने अंग्रेजी सिखाने के लिए उनकी ट्यूशन टीचर भी रखवा दी थी। तरनजीत कहते हैं कि पिता के मन में शिक्षा संस्थान शुरु करने का विचार उसी ‘बेइज़्ज़ती’ के बाद आया था।
व्यवसायिक क्षेत्र में तरनजीत की शुरूआत पिता के साथ दूध के कारोबार से ही हुई। बात साल 1976 की है। इसी साल तरनजीत की मंगनी हो गई थी और उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास होने लगा था। तरनजीत, गाय-भैंसों की खरीद-फरोख्त के कारोबार की बारीकियों को सीख सकें , इस मकसद से पिता ने उन्हें उनके चाचा के पास लुधियाना भेजा दिया था। जल्द ही तरनजीत कारोबार से जुड़ी हर एक बारीकी को पहचानने लगे। इसके बाद वे कोलकाता आ गए और पूरी मेहनत और लगन के साथ पिता के कारोबार में जुट गये। मेहनती पिता के मेहनती पुत्र ने पिता के दूध व्यवसाय को पंख लगा दिये और इससे व्यवसाय काफी फलने-फूलने लगा। कोलकाता में गाय-भैंसों और दूध के कारोबार में कामयाबी हासिल करने के बाद तरनजीत ने दूसरे व्यवसाय में हाथ आजमाने की सोचने लगे थे। उनके पास वाहन के रूप में एक ट्रक पहले से मौजूद था। उनके मन में विचार आया कि क्यों न ट्रांसपोर्ट का कारोबार शुरु किया जाये। इस प्रकार 1984 में उन्होंने टांसपोर्ट के कारोबार में हाथ आजमाया और इसमें भी कामयाबी भी हासिल की। तरनजीत सिंह की अगली मंजिल उद्योग थी। काफी सोच-विचार और बाज़ार में संभावानाओं का मुआयना करने के बाद उन्होंने एग्रो इंडस्ट्री में जाने का फैसला किया। इस प्रकार 1989-90 में एग्रो प्रोडक्ट की दुनिया से तरनजीत सिंह का परिचय हुआ। लेकिन अभी भी तरनजीत सिंह और उनके जेआईएस समूह की पहचान जिस कारण से है उस क्षेत्र में उनका काम शुरू नहीं हुआ था। तरनजीत मानते हैं कि ये उनके पिता की इच्छा और ईश्वर की मर्जी ही रही होगी कि उनके जैसा कारोबारी जो बहुत ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था उसने शिक्षा के क्षेत्र में जाने की ठानी। साल 1995 में जेआईएस समूह ने अपने पहले शिक्षण संस्थान की शुरूआत की।
ज्यादा पढ़े-लिखे न होने और बड़ी-बड़ी डिग्रियां न होने के बावजूद शिक्षा संस्थानों को शुरू करना और उन्हें सफलतापूर्वक चलाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती थी। लेकिन अपनी धुन के पक्के तरनजीत सिंह को खुद पर पूरा भरोसा था। अपने अनुभव के आधार पर तरनजीत ये बात पूरे भरोसे के साथ कहते हैं कि शिक्षा संस्थान चलाने के लिये खुद पढ़ा-लिखा होना जरुरी नहीं है। संचालक को मैनेजमेंट स्किल्स में माहिर होना चाहिए। अपनी मैनेजमेंट स्किल्स पर ही तरनजीत को पूरा भरोसा था। उन्होंने कारोबारी प्रबंधन के गुर अपने पिता से सीख रखे थे। उन्हें मालूम था कि शिक्षा संस्थान चलाने के लिये उन्हें योग्य और सक्षम व्यक्तियों का चयन करना है। तरनजीत ने अपने संस्थानों के लिये योग्य, उच्च शिक्षित और अच्छे लोगों का चयन किया औऱ एक ऐसी टीम बनाई जिसे सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है। चूँकि बचपन से ही खेल-कूद में काफी दिलचस्पी रही है तरनजीत कई बातें खेल का उदहारण देते हुए समझाने की कोशिश करते हैं। वे कहते हैं, “कोच खुद मैदान पर जाकर नहीं खेलता क्योंकि उसके खिलाड़ी उससे बेहतर खेल सकते हैं। कोच का काम मैदान के बाहर बैठकर नीति बनाने का होता है। ये कोच पर निर्भर करता है कि वह कैसे अपने श्रेष्ठ खिलाड़ियों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करता है। टीम के सही चयन से लेकर उनका सही समय पर सही इस्तेमाल ही टीम को कामयाब बनाता है और यही मैंने किया है और कर रहा हूँ।” आज जेआईएस ग्रुप देश-भर में दो दर्जन से ज्यादा बेहतरीन शिक्षा संस्थान चला रहा है। इन संस्थानों से हर साल करीब 25,000 विद्यार्थी पढ़-लिखकर बाहर निकलते हैं। ये विद्यार्थी पूरे देश और दुनिया में कामयाबी के झंडे गाढ़कर न केवल अपना बल्कि अपने संस्थान का नाम भी रोशन कर रहे हैं। लेकिन, तरनजीत इस बड़ी कामयाबी का श्रेय खुद नहीं लेते। खुले मन से वे इस कामयाबी का श्रेय ईश्वर की कृपा और पिता की बनाई नींव को देते हैं। उनका कहना है कि आज भी उनकी पहचान उनके पिता सरदार जोध सिंह के कारण ही है। तरनजीत के शब्दों में, “मेरे पिता अपने आप में एक इंडस्ट्री हैं। पिता से मिला सादगी का पाठ, हर काम को दिल लगाकर करने की शिक्षा की वजह से मैं इतनी तरक्की कर पाया हूँ। पिता की सीख के मुताबिक ही मैं हर काम करता हूँ। मेरे पिताजी ने हर काम रुपयों के लिए नहीं किया। वे लोगों की भलाई चाहते हैं। समाज की भलाई को ध्यान में रखकर ही उन्होंने काम किये हैं और मैं भी वही कर रहा हूँ।” तरनजीत अपनी नायाब कामयाबी के पीछे अपने परिवार के सहयोग को भी बेहद अहम मानते हैं। भाईयों के सहयोग से परिवार में एकजुटता बनाये रखने को वे अपने जीवन की सबसे बड़ी कामयाबी मानते हैं। उनके चहरे पर खुशी साफ़ दिखती है जब वे कहते हैं, “ मैं बहुत खुशनसीब हूँ कि मुझे अच्छे माता-पिता मिले, अच्छे भाई मिले, अच्छा परिवार मिला। काम करने के लिए अच्छे लोग मिले।”
जीवन में अब तक की सबसे बड़ी और कठिन चुनौती के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में तरनजीत एक बड़ा सीधा और सरल रोज़मर्रा का काम और रोजमर्रा की परेशानियाँ ही सबसे बड़ी चुनौती होती हैं। जिस व्यक्ति को इन रोज़ाना की परेशानियों से निपटना आ गया उसे सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। उनका ये भी कहना है कि कठिनाईया और चुनौतियाँ कारोबार का ही नहीं बल्कि जीवन का हिस्सा है। किसी भी समस्या का समाधान भी उसी समस्या में ही छुपा होता है। परेशानी को हल करने के लिये बाहर से समाधान ढूंढने के बजाय ठंडे दिमाग से विचार किया जाये तो समाधान भी वहीं निकल आता है। आज तरनजीत कामयाबी के शिखर पर हैं, लेकिन फिर भी उनके पैर जमीन पर हैं। उनका कहना है कि बड़ा मुकाम हासिल कर लेना उतना अहम् नहीं है, बल्कि उस मुकाम पर टिके रहना बड़ी चुनौती है।
तरनजीत के मुताबिक कामयाबी का कोई तय फार्मूला नहीं होता और कामयाबी रातों-रात भी नहीं मिलती। वे नये उद्यमियों को सलाह देते हुए कहते हैं – “कामयाबी के पीछे न भागें। अपना काम पूरी मेहनत और ईमानदारी से करें। छोटे-छोटे टारगेट बनाये। ध्यान रखें की सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। मेहनत और ईमानदारी में पूरा भरोसा रखें। तभी कामयाबी मिलेगी।”
किसी शायर ने लिखा है-
नज़र-नज़र में उतरना कमाल होता है, नफ़स-नफ़स में बिखरना कमाल होता है।
बुलंदी पर पहुंचना कोई कमाल नहीं, बुलंदी पर ठहरना कमाल होता है।
तरनजीत आज बुलंदी पर हैं और उनकी कोशिश है कि बुलंदी पर बने रहें।
(सरदार तरनजीत सिंह से मिलने पर अहसास हुआ कि वे बहुत ही सरल इंसान हैं। कोई ठाठ-बाट नहीं है, कोई दिखावा नहीं है। अपने पिता की तरह ही वे भी धार्मिक प्रवृत्ति के हैं और भगवान पार उनका अटूट विश्वास है। तरनजीत के लिए उनके पिता जोध सिंह ही उनके सबसे बड़े गुरु, मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत हैं। माता-पिता की तरह तरनजीत सिंह भी समाज सेवा से जुड़े कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और ज़रूरतमंदों की हर मुमकिन मदद भी करते हैं।
पिता जोध सिंह ने अपने तीनों बेटों को उनकी-उनकी जिम्मेदारियां सौंप दी हैं और तीनों के लिए उनका-उनका कार्य-क्षेत्र और कारोबार तय कार दिया है। जोध सिंह ने करोड़ों रुपयों का जो कारोबारी साम्राज्य खड़ा किया है, उसको बड़ा करने में तीनों बेटे तन-मन लगाकर काम कर रहे हैं। हमसे एक ख़ास बातचीत के दौरान जोध सिंह ने कहा, “मैं तो बाग़ का माली हूँ। अब बस देख-रेख ही मेरा काम है, सारी जिम्मेदारियां बेटे संभाल रहे हैं।” )