कला और संस्कृति भारतीय जीवन का अभिन्न अंग हैं
मुलाकात : शेखर सेन, अध्यक्ष संगीत नाटक अकादमी
संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष शेखर सेन ने कला एवं संस्कृति को भारतीय जीवन का अभिन्न अंग करार देते हुए कहते हैं, कि इसके पुस्तकालय को जल्द ही अॉनलाइन कर दिया जायेगा। इसके अलावा हाल ही में कलाकारों को चिकित्सीय सुविधा देने की जिम्मेदारी भी संस्थान ने ली है। प्रस्तुत है दीपक सेन से उनकी बातचीत के कुछ खास अंश...
सेन ने खास बातचीत में बताया, ‘‘राष्ट्रीय अकादमी का चरित्र भी राष्ट्रीय होना चाहिए। इसलिए संगीत नाटक अकादमी को डिजिटल कर आम जनता के लिए सुलभ बना दिया जायेगा। कलाकोष का गठन किया गया है जिससे कला के दस्तावेजीकरण का कार्य किया जा रहा है। इससे मंचीय कला से जुड़े कलाकारों को चिकित्सीय सुविधा मुहैया करायी जा रही है। अकादेमी के हर कार्यक्रम का वेबकास्ट किया जा रहा है, ताकि डिजिटल के युग में अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचा जा सके।’’ उन्होंने बताया, हम ‘अकादमी मृतप्राय कुटीयट्टम (केरल की संस्कृत नाट्य परंपरा) की 21 सौ साल पुरानी परंपरा को बचाने के लिए काम कर रहे हैं, छाउ, सतरिया और पूरब अंग जैसी लोक गायन कलाओं की समृद्ध परंपरा के लिए भी काम हो रहा है।
"मैं अल्प समय की फसल में विश्वास नहीं करता और इसके लिए दीर्घकालीन नीति होनी चाहिए।’’
लोक कला के बारे में उन्होंने कहा, ‘‘लोक संगीत और लोक साहित्य आहिस्ता आहिस्ता लोक जीवन से पीछे छूट रहा है। हम नौटंकी को लेकर अभियान चलाकर देशज परंपराओं को बचाने के लिए काम कर रहे हैं, ताकि लोककला सामने आये। अकादमी आजमगढ़, ठठिया (कन्नौज), कानपुर, जम्मू, जमशेदपुर और गुवाहाटी में नौटंकी के कार्यक्रम आयोजित किए।’’
"जब कला की मुख्यधारा सूखने लगती है तब लोक कला से ही सहारा मिलता है। इसलिए जड़ों का स्वस्थ होना बेहद जरूरी है। दिल्ली के कलाकार को देश के किसी अन्य स्थान के कलाकार से अधिक महत्व मिलता है। मगर देशज कलाकार की अपनी अहमियत है और रहेगी।"
‘सांस्कृतिक नीति’ के बारे में सेन ने कहा, ‘‘सांस्कृतिक नीति होनी चाहिए ताकि हम भारतीय शास्त्रीय संगीत के रागों को बरकरार रख सके। हमारे यहां आठों प्रहर के राग हैं और वर्तमान दौर में कुछ दुर्लभ राग विलुप्त होते जा रहे हैं जिनको बचाने की जरूरत है। संस्कृति मुखापेक्षी नहीं हो सकती है और संस्कृति जीवन के हर हिस्से में है। हम भरत मुनि के नाट्यशास्त्र को पंचम ग्रंथ कहते हैं।’’
कला को भारतीय जीवन का अभिन्न अंग बताते हुए उन्होंने कहा, ‘‘आतंकवाद वहां पनपा है जहां कला और संस्कृति का हृास हुआ है। खरपतवार तभी उगेगी जब बीज सही नहीं होगा। टाक्सिक मन को विष मुक्त नहीं कर सकता है। हमें किसान, जवान के साथ ही कलाकारों का भी शुक्रगुजार होना चाहिए जो हमारी आत्मा को खुराक देते हैं।’’
"पहले किसान आत्महत्या नहीं करता था, क्योंकि लोककला से जुड़ाव होने के कारण गीत संगीत से उसका मन हलका हो जाता था, लेकिन अब के समय में ग्रामीण परिवेश भी बदल रहा है। इस वक्त में हमें अपने आपको मांजना होगा।"
अकादमी की स्वायत्तता संबंधी सवाल पर उन्होंने कहा, ‘‘संस्कृति से जुड़े संस्थानों की स्वायत्तता जरूरी हैं, क्योंकि कलाकर्मी पिंजरे के पक्षी नहीं होते। लेकिन आकाश का होना भी जरूरी है यानी सरकारी संरक्षण और तंत्र के साथ कार्य करने से जबावदेही बढ़ जाती हैं। हमारे संस्थापकों ने जानबूझकर ऐसे संस्थानों को स्वायत्त बनाया था और अभी भी कार्यकारिणी के 72 सदस्यों में आधे से अधिक कला बिरादरी से होते हैं।’’
तुलसी, सूर, कबीर और विवेकानंद पर शेखर सेन गीत नाट्य की प्रस्तुति देते हैं।
पसंदीदा कवि के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, ‘‘किसी की तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि सभी अलग अलग कालखंड में आये। तुलसी ने विपरीत परिस्थियों में राम को घर-घर में पहुंचा दिया। वहीं, सूर ने बालकृष्ण को सखा बनाकर भक्ति की धारा जनमानस तक पहुंचायी। कबीर ने अपने दौर में पाखंड को लेकर जैसा प्रहार किया उस तरह आज तक किसी ने नहीं की।’’
विवेकानंद को याद करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘इसके अलावा एक नाम विवेकानंद का भी है जिन्होंने वेदांत परंपरा को जन-जन तक पहुंचाया।’’