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बापू से भी बेशकीमती, बापू के बताए कठिन रास्ते

2 अक्टूबर पर विशेष...

बापू से भी बेशकीमती, बापू के बताए कठिन रास्ते

Tuesday October 02, 2018 , 5 min Read

राष्ट्रपिता को सिर्फ रस्म निभाने के लिए याद नहीं किया जाता। उनकी यादें देश की मिट्टी में बसी हैं, जिससे पूरा हिंदुस्तान सुगंधित हैं, भविष्य में भी सुवासित होता रहेगा क्योंकि उनके सुवास को झुठलाने का मतलब है, मुल्क की अस्मिता को झुठलाना।

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'अंग्रेजों के जाने के बाद आज तक मेरे भाई-बहन पराधीन ही हैं, मुट्ठी भर लोग उन्हें बरगला कर अपनी विचारधारा के पराधीन कर रहे हैं और सत्य की हालत तो बस, क्या है सत्य की हालत? वह बूढ़ा आदमी अपने अंदर ही खोया हुआ था।' 

हर साल दो अक्तूबर को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को याद किया जाता है। उनकी शिक्षा लोगों को उनका अनुकरणीय बनाती है। दो बापू की शिक्षा को जानने के लिए आए सबसे पहले ललित साहू की इस प्रस्तुति पर नजर डालते हैं - 'एक बूढ़ा आदमी जिसने सिर्फ धोती पहनी हुई थी, धीरे-धीरे चलता हुआ महात्मा गांधी की प्रतिमा के पास पहुंचा। वहां उसने अपनी धोती में बंधा एक सिक्का निकाला और जिस तरफ ‘सत्यमेव जयते’ लिखा था, उसे ऊपर कर सिक्के को महात्मा गांधी के पैरों में रख दिया। अब उसने मूर्ति के चेहरे को देखा। उसकी आँखों में धूप चुभने लगी, लेकिन उसने नज़र हटाये बिना दर्द भरे स्वर में कहा- गांधीजी, तुम तो जीत कर चले गये, लेकिन अब यहाँ दो समुदाय बन गये हैं, एक तुम्हारे नाम की जय-जयकार करता है तो दूसरा तुम्हें दुष्ट मानता है। तुम वास्तव में कौन हो, यह पीढ़ी भूल ही गयी। कहते-कहते उसकी गर्दन नीचे झुकती जा रही थी। उसी समय उसके हृदय में जाना-पहचाना स्वर सुनाई दिया- मैं जीता कब था? अंग्रेजों के जाने के बाद आज तक मेरे भाई-बहन पराधीन ही हैं, मुट्ठी भर लोग उन्हें बरगला कर अपनी विचारधारा के पराधीन कर रहे हैं और सत्य की हालत तो बस, क्या है सत्य की हालत? वह बूढ़ा आदमी अपने अंदर ही खोया हुआ था। उसके हृदय में स्वर फिर गूंजा- सत्य तो यह है कि दोनों एक ही काम कर रहे हैं – मेरे नाम को बेच रहे हैं। और उसी समय हवा के तेज़ झोंके से मूर्ति पर रखा हुआ सिक्का नीचे गिर गया।'

किसी वक्त इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने महात्मा गांधी को ‘आधा नंगा फ़कीर’ कहा था। गांधी ने इस तल्ख़ टिप्पणी को बहुत सहजता से लिया था। शायद इसलिए कि चर्चिल वही देख और बोल रहे थे, जो गांधी चाहते थे। एक भारतीय बहुत ही कम खादी के कपड़े पहने पानी के जहाज से इंग्लैण्ड की धरती पर उतरा था, यह ऐलान करने के लिए कि अब हर भारतीय के मन में पूरे आत्मसम्मान के साथ अपने दम पर जीने की चाह परवान चढ़ने लगी है। इतना ही नहीं, एक बार महात्मा गांधी ने चरखा चलानेवालों के लिए दो उदाहरण सामने रखे थे। पहला उदाहरण उन्होंने रखा था मुग़ल बादशाह औरंगजेब का जो अपनी टोपियां खुद ही बनाता था और दूसरा उदाहरण था कबीर का, जिन्होंने गांधी के मुताबिक इस कला को अमर बना दिया था। झीनी-झीनी चदरिया बुनने वाले कबीर को तो गांधी ने बादशाहों का बादशाह कहकर अपनी भावना को प्रमाणित किया था। सच कहा जाए तो गांधी ने खादी को आज़ादी की लड़ाई में एक अचूक अस्त्र के रूप में अपनाया। आज कितने लोग हैं, जो उनके आदर्शों से शिक्षा लेते हैं।

अपनी आत्मकथा में बापू लिखते हैं- 'मुझे याद नहीं पड़ता कि सन् 1915 में मैं दक्षिण अफ्रीका से हिन्दुस्तान वापस आया, तब भी मैंने चरखे के दर्शन नहीं किये थे। काठियावाड़ और पालनपुर से करघा मिला और एक सिखाने वाला आया। उसने अपना पूरा हुनर नहीं बताया परन्तु मगनलाल गाँधी शुरू किये हुए काम को जल्दी छोड़ने वाले न थे। उनके हाथ में कारीगरी तो थी ही, इसलिए उन्होंने बुनने की कला पूरी तरह समझ ली और फिर आश्रम में एक के बाद एक नये-नये बुनने वाले तैयार हुए। हमें तो अब अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे। इसलिए आश्रमवासियों ने मिल के कपड़े पहनना बन्द किया और यह निश्चय किया कि वे हथकरघा पर देसी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनेंगे। ऐसा करने से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। इन बुनकरों को आश्रम की तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देसी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जायेगा।' राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -

'खादी के धागे धागे में अपनेपन का अभिमान भरा,

माता का इसमें मान भरा अन्यायी का अपमान भरा।

खादी के रेशे-रेशे में अपने भाई का प्यार भरा,

माँ-बहनों का सत्कार भरा बच्चों का मधुर दुलार भरा।

खादी की रजत चंद्रिका जब आकर तन पर मुसकाती है,

तब नवजीवन की नई ज्योति अंतस्तल में जग जाती है।'

आज गांधी जयंती पर एक आम नागरिक का यह पत्र भी कुछ कम पठनीय नहीं - 'मेरे प्रिय बापू , आपको यहां से सिधारे 60-65 वर्ष हो गए हैं। वे सभी लोग जो जनता के सेवक होने का दम भरते हैं, वे आपको भुना-भुना कर खा रहे हैं। इतने वर्षों से खाते-चबाते हुए भी उनका पेट नहीं भरा। मेरे माथे पर जनता का सेवक होने का दाग अभी तक नहीं लगा है। मैंने काफी कोशिश की कि यह कलंक मेरे माथे पर भी लग जाए लेकिन इसको लगाने के लिए जितने पापड़ बेले, वे सब कम पड़ गए। एक बार यार दोस्तों को बुलाकर मैं पापड़ बेलने की कोशिश कर रहा था। तभी वे लोग जिन पर पहले से ही कलंक लगा हुआ था, मुझे ऐसा करते देख भौचक्के रह गए। आपस में कहने लगे- जब यह छदाम जनता का सेवक बन जाएगा तो हमें कौन पूछेगा? इसे पता नहीं कि पापड़ कैसे और किसके साथ बेलने होते हैं। इस प्रकार बात करते हुए वे मेरे पास आए और हमारे बेले थोड़े बहुत पापड़ों सहित हमें वहाँ से दूर फेंक दिया। उसके बाद मैंने बापू के नाम को भुनाकर सेवक बनने की जुर्रत नहीं की। जनता के सेवकों ने आज तक गाँधी का मार्ग नहीं छोड़ा। उन्हें जो-जो मार्ग पसंद हैं, उन्होंने उन सबका नाम गांधी मार्ग रख दिया। इसी मार्ग पर शराब की दुकानें हैं, अन्य जुए-सट्टे का कारोबार भी इसी मार्ग पर अच्छे से हो रहा है।'

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