खजुराहो की दीवार पर अन्ना ने लिखा- चलो दिल्ली!
क्या यही जगह मिली अन्ना को अपना संदेश देने के लिए, आखिर क्यों? दीवार पर शब्द बैठाने के बाद अन्ना ने साफ संकेत दिया कि यह आंदोलन किसी दल के खिलाफ और किसी के समर्थन में नहीं है। यह जनता के हित में किया जा रहा है।
अन्ना यानी किसन बाबूराव हजारे। लोग उन्हें अन्ना हजारे के ही नाम से जानते हैं। वह महाराष्ट्र के अहमदनगर के रालेगण सिद्धि गाँव के एक मराठा किसान परिवार से हैं।
जब खजुराहो से ही आंदोलन की शुरुआत होनी है तो फिर 1981 में आई फ़िल्म 'उमराव जान' की ये लाइनें भी क्यों न मन में अनायास गूंज जातीं ....'ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है।' खजुराहो को दुनिया जानती है, मध्यप्रदेश का वह पर्यटन स्थल, जहां इतिहास-सुख कम, मनोरंजन की ललक ज्यादा मन में लिए देश-दुनिया के छैल-छबीले उमड़ते रहते हैं। जब यहां की दीवारों पर प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे ने अपने हाथों से लिखा कि '23 मार्च को चलो दिल्ली', फिर तो इसे हल्के में नहीं ही लिया जाना चाहिए। बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी, तो बात निकल चुकी है खजुराओं की दीवारों से और अब दूर-दूर तक जा भी चुकी है।
खजुराहो की दीवार पर चलो दिल्ली का संदेश, कुछ हजम नहीं हुआ जैसे। क्या यही जगह मिली अन्ना को अपना संदेश देने के लिए, आखिर क्यों? दीवार पर शब्द बैठाने के बाद अन्ना ने साफ संकेत दिया कि यह आंदोलन किसी दल के खिलाफ और किसी के समर्थन में नहीं है। यह जनता के हित में किया जा रहा है। निर्धारित कानून के खिलाफ किसानों से कर्ज पर चक्रवृद्धि ब्याज वसूला जाता है। सरकार यह जानती है, फिर भी इस पर ध्यान नहीं दे रही है। लिहाजा आंदोलन का सहारा लेना पड़ रहा है।
अन्ना यानी किसन बाबूराव हजारे। लोग उन्हें अन्ना हजारे के ही नाम से जानते हैं। वह महाराष्ट्र के अहमदनगर के रालेगण सिद्धि गाँव के एक मराठा किसान परिवार से हैं। वह सेना में भी रहे हैं। पद्मभूषण से सम्मानित हैं। सूचना के अधिकार के लिए लड़ने वाले उन लोगों में एक हैं, जिनके एक आह्वान पर वर्ष 2011 में पूरे देश की हुकूमत हिल उठी थी। वह दिल्ली में आमरण अनशन पर बैठ गए थे। इससे पहले 1991 में अन्ना महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की सरकार के कुछ 'भ्रष्ट' मंत्रियों को हटाए जाने की माँग को लेकर भूख हड़ताल पर बैठे थे। अन्ना ने उन पर आय से अधिक संपत्ति रखने का आरोप लगाया था। सरकार ने उन्हें मनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन अंतत: उन्हें दागी मंत्रियों शशिकांत सुतर और महादेव शिवांकर को हटाना ही पड़ा।
घोलाप ने अन्ना के खिलाफ़ मानहानि का मुकदमा दायर दिया। अन्ना अपने आरोप के समर्थन में न्यायालय में कोई साक्ष्य पेश नहीं कर पाए और उन्हें तीन महीने की जेल हो गई थी। सन 1997 में अन्ना हजारे ने सूचना का अधिकार अधिनियम के समर्थन में मुंबई के आजाद मैदान से अपना अभियान शुरु किया। 9 अगस्त 2003 को मुंबई के आजाद मैदान में ही अन्ना हजारे आमरण अनशन पर बैठ गए। बारह दिन चले आमरण अनशन के दौरान उनको देशव्यापी समर्थन मिला। 5 अप्रैल 2011 को अन्ना ने दिल्ली में जंतर-मंतर पर अनशन शुरू किया। 25 मई 2012 को अन्ना ने पुनः जंतर मंतर पर जन लोकपाल विधेयक और विसल ब्लोअर विधेयक को लेकर एक दिन का सांकेतिक अनशन किया था।
पिछले आंदोलन के बाद अन्ना की टीम बिखर गई थी। अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, जोगेंद्र यादव आदि उनसे अलग सत्ता की राजनीति करने लगे थे। केजरीवाल आज भी दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। निकट अतीत में अन्ना एक प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राजनीति के साथ भी जोड़कर सुर्खियों में आए थे लेकिन वह बात आई, गई, हो गई। अभी हाल ही में जोगेंद्र यादव के नेतृत्व में देश भर के कई किसान संगठन दिल्ली में जमा हुए। अब अन्ना ने अगले साल 23 मार्च को दिल्ली चलने का आह्वान किया है। 23 मार्च भगत सिंह का शहीद दिवस भी है। उन्होंने पत्र लिखकर प्रधानमंत्री से पूछा है कि वह कहां पर आंदोलन शुरू करें।
अन्ना के ज्यादातर आंदोलनों की असफलता के पीछे उनके पास कोई ठोस सांगठनिक ढांचा न होना माना जाता है, साथ ही किसानों, मजदूरों के लिए ईमानदार कोशिश। इसके प्रति न जोगेंद्र यादव के नेतृत्व को ईमानदार कोशिश कहा जा सकता है, न आने वाले दिनो में अन्ना हजारे के आंदोलन को। दोनो किसान-मजदूर हिंतों की बुनियादी लड़ाई में शामिल होने की बजाय की अपनी-अपनी राजनीतिक छवि बड़ी करने के रास्ते की तलाश में हैं। जोगेंद्र यादव कहते हैं कि किसान आंदोलन एक नए युग में प्रवेश कर रहा है और अन्ना खजुराहो की दीवारों से अपना आह्वान जारी करते हैं। इसीलिए ऐसे आंदोलनों की एक हद तक आगे बढ़ने के बाद हवा निकल जाती है।
एक जमाने में यही काम महाराष्ट्र में शरद जोशी और उत्तर प्रदेश में महेंद्र सिंह टिकैत करते रहे हैं। सबसे बड़ी बात है कि ये लोग सिर्फ और सिर्फ कुलक किसानों की वकालत करते हैं, उन किसानों की नहीं, जो अपनी जड़ों से उजड़ कर महानगरों की झुग्गी-झोपड़ियों के बाशिंदे होते जा रहे हैं। सत्याग्रहों का झूठ देश देख चुका है। सन 47 की आजादी का आज क्या मतलब रह गया है। एमबीए करके देश के बच्चे भीख मांग रहे हैं। यह तो सही है कि इक्कीसवीं सदी के किसान आंदोलनों में किसान की नई परिभाषा का विस्तार हो रहा है।
इस नई परिभाषा में किसान का मतलब सिर्फ बड़ा भूस्वामी नहीं बल्कि मंझौला और छोटा किसान भी है, ठेके पर किसानी करने वाला बटाईदार और खेतिहर मजदूर भी है, लेकिन सवाल ये है कि जो लोग उन किसानों की अगुवाई कर रहे हैं, उनके बारे में क्यों न ऐसा माना जाए कि एक हद तक आगे बढ़ने, शासक वर्ग से कानाफूसी करने के बाद अपने कदम पीछे नहीं खींच लेंगे और एक बार फिर किसान पस्तहिम्मती से अपनी नियति का रोना रोने लगेगा। मौजूदा राजनीतिक ढांचे में कुल मिलाकर दुर्दशाग्रस्त किसान भी ऐसे आंदोलनों के बहाने इस्तेमाल की चीज बन कर रह गया है।
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