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पूंजीवादी कलेवर में दम तोड़ती कलम

पूंजीपतियों, बिल्डरों, शराब सिण्डिकेटों के निवेश ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के मूल तेवर को जमकर प्रभावित किया है। कभी अखबार मालिक के खिलाफ ही लिखने का हौसला रखने वाला पत्र जगत आज विविध भारती के फरमाइशी गीतों की तरह डिमांड पर खबरें बनाता और बेंचता है। 

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सूचनाओं के सम्प्रेषण की स्वतंत्रता तात्कालीन निजाम की मानवीय एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था को प्रकट करता है, दरअसल विचारों को सहज प्रवाह लोकशाही की भूमि को उर्वरक मुहैया कराता है। देखा जाये समाज के समस्त परिवर्तनों में सूचना सम्प्रेषण ने केन्द्रीय भूमिका निर्वाहित की है। प्रत्येक जन आन्दोलन सूचना सम्प्रेषण की गतिशीलता व प्रमाणिकता का सहोदर रहा है। सूचना सम्प्रेषण की गतिशीलता और प्रमाणिकता का सयुंक्त उपक्रम पत्रकारिता कहलाता है और उत्तरदायित्व पूर्ण सूचना सम्प्रेषण की अनेक अनुषांगिक विधाओं का समुच्चय मीडिया नामक संस्था को स्वरूप प्रदान करता है।

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मिशन से प्रोफेशन की तरफ भटकन क्यों और कैसे हो गयी, इसकी लंबी दास्तां है। समाज के परिवर्तित स्वरूप के साथ ही वर्तमान में पत्रकारिता ने अपने रूप को बदल लिया। वर्तमान में पत्रकारिता के पूंजीवादी कलेवर में ढलने के कारण वह अपने उद्दात आदर्शों से विमुख हो गयी है। कभी सामाजिक परिवर्तन को आधार भूमि प्रदान करने वाली पत्रकारिता आज पूंजी के आंगन में बंदी है।

ध्यातव्य है कि पत्रकार रचनाकार का सहोदर है। वो अक्षर संधान कर सत्य का प्रसव करता है किन्तु पूंजीपति सौदागर होता है, नफे-नुकसान के आधार पर ही विषय वस्तु के संदर्भ में निर्णय करता है। लिहाजा वो अपनी बाजारू महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ही हर स्तर पर समझौते करता है।

स्वतंत्रता पूर्व से लेकर वर्तमान समय तक मीडिया की भूमिका सदैव समीक्षा के दौर से गुजरती रही है। किंतु मीडिया की उपयोगिता को दृष्टिगत रखते हुए विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र ने कार्यपालिका, न्यायपालिका व व्यवस्थापिका के पश्चात प्रेस को चौथे स्तम्भ के रूप में स्वीकार किया गया है। तीनों स्तम्भों की कार्यप्रणाली की निरपेक्ष समीक्षा की अपेक्षा से ही आम जनमानस प्रात: समाचार पत्र पढ़ता है। बेशक आजादी की जंग में प्रेस ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया किन्तु बदलते तेवरों के साथ पत्रकारिता के अंदाज भी बदलने लगे हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सत्याग्रह से प्रारम्भ हुई पत्रकारिता द्वारा सत्यशोधन का प्रयास वर्तमान तक बदस्तूर जारी है, किंतु बदलते वक्त के साथ मीडिया जगत के मूल्यों में भी तरलता परिलक्षित हो रही है। मिशन से प्रोफेशन की तरफ भटकन क्यों और कैसे हो गयी, इसकी लंबी दास्तां है। 

समाज के परिवर्तित स्वरूप के साथ ही वर्तमान में पत्रकारिता ने अपना रूप बदल लिया या फिर उसे बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। आज की पत्रकारिता पूंजीवादी कलेवर में ढलने के कारण अपने उद्दात आदर्शों से विमुख हो गयी है। कभी सामाजिक परिवर्तन को आधार भूमि प्रदान करने वाली पत्रकारिता पूंजी के आंगन में बंदी है। कैसा प्रेस और कैसी उसकी स्वतंत्रता, जब सबकुछ बाजार के द्वारा नियंत्रित हो रहा है। दरअसल पूंजीपतियों, बिल्डरों, शराब सिण्डिकेटों के निवेश ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के मूल तेवर को जमकर प्रभावित किया है। कभी अखबार मालिक के खिलाफ ही लिखने का हौसला रखने वाला पत्र जगत आज विविध भारती के फरमाइशी गीतों की तरह डिमांड पर खबरें बनाता और बेंचता है।

पत्रकार रचनाकार का सहोदर है। वो अक्षर संधान कर सत्य का प्रसव करता है किन्तु पूंजीपति सौदागर होता है, वो नफे-नुकसान के आधार पर ही विषय वस्तु के संदर्भ में निर्णय करता है। लिहाजा वो अपनी बाजारू महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ही कई स्तर पर समझौते भी करता है और उसके समझौते सत्य की पूंजी को बाजार में नीलाम कर देते हैं।

खबरों के अन्वेषण के स्थान पर उनका निर्माण किया जा रहा है। निर्माण में सत्यशोधन न होकर मात्र प्रहसन होता है और प्रहसन कभी प्रासंगिक नही होता। वो तो समाज को सत्य से भटकाता है और सत्य से भटका हुआ समाज कभी परम वैभव को प्राप्त नही होता। कभी राज नेताओं की कृपा प्राप्ति के लिए सेना कोई बागी बनाते हैं, तो कभी जन सरोकारों को नजरअंदाज कर चटपटी खबरें परोस कर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश करते हैं। सच में कहा जाये तो ये पत्र जगत की स्वतंत्रता नहीं पूंजीपतियों की स्वतंत्रता है। जो अपने लाभ के लिए मीडिया शक्ति को दुरुपयोग करते हैं और ऐसे में बेरोजगारी और मंहगाई के दौर में बेचारा खबरनवीस सबकुछ सह कर भी काम करने को विवश है।

जब असुरक्षित हो आजीविका, तो कैसे आजाद होंगे कंठ और कलम?

सर्वविदित है कि मीडिया जगत में वेतन की विसंगतियां बड़े पैमाने पर व्याप्त हैं। पगडण्डी और खड़ंजे से खबर बटोर कर लाने वाले संवाद सूत्र से लेकर रात के अंधेरे में खबरों के जंगल में भटकता उप संपादक महंगाई के इस युग में न्यूनतम वेतन पर अपनी सेवाएं देने को मजबूर है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो खबरों के आधार पर भुगतान की प्रारम्भ से ही परंपरा रही है। जितनी ज्यादा खबरे चलेंगी उतना ज्यादा भुगतान होगा। खबरों में सनसनी का चटकारा ही उसकी गुणता का मापदंड है। किन्तु छोटे शहरों में प्रतिदिन बड़ी वारदाते नहीं होती अत: खबरें बनती नहीं, बनायी जाती हैं। सत्य शोधन के स्थान पर प्रहसन किया जाता है। ये सब कुछ मसले में सनसनी उत्पन्न करने की जुगत में होता है अन्यथा खबर का मूल्य कैसे प्राप्त होगा। यही पर सवाल उठता है कि जब आजीविका ही असुरक्षित हो, तो कंठ और कलम कैसे आजाद हो सकते हैं?

ऐसा नहीं है कि इस दारूण सच्चाई पर किसी का ध्यान नहीं गया। मजीठिया आयोग से लेकर न जाने कितने आयोग आये और चले गए किंतु नहीं बदले तो अखबार के मुलाजिम के हालात। इन्हीं दुरूह हालातों में खबरनवीस अपने कार्य को अंजाम देते हुए जीवन से हाथ धो बैठते हैं। हमेशा पत्रकारों की हत्या के मामले तो सुर्खियों में रहते हैं, लेकिन गुत्थियां अनसुलझी ही रह जाती हैं।

अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्था की ओर से बनाये गये 'माफी सूचकांक 2011' के अनुसार पत्रकारों की हत्या की गुत्थी न सुलझा सकने वाले देशों में भारत 13वें स्थान पर है। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान 10वें और बांग्लादेश 11वें स्थान पर है। प्रेस की आजादी के मामले में भारत तीन पायदान लुढ़क कर 136वें नंबर पर पहुंच गया है। इससे पहले मीडिया की आज़ादी के मामले में भारत को 133वां स्थान प्राप्त था।

कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (सीपीजे) की रिपोर्ट के अनुसार, साल में पूरी दुनिया में होने वाले कार्य संबंधी हत्याओं में 70 प्रतिशत मामले पत्रकारों के हैं। जेजे हत्याकांड, जोगिंदर सिंह हत्याकांड ने समाज में चलने वाली साजिशों, भ्रष्टाचार और गैरकानूनी धंधे उजागर करने वाले पत्रकारों के लिए बढ़ते खतरे को एक बार फिर उजागर किया है। ये घटनाएं बताती हैं, कि किसी भी ताकतवर व्यक्ति या गिरोह के कारनामों को जनता के मध्य लाना कितना जोखिम भरा होता जा रहा है।

व्यवस्था के खिलाफ क्रांति की मशाल जलाने वाले पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर कानून का मामला पिछले कई सालों से लंबित है। विडंबना है कि भिन्न-भिन्न अधिवेशनों में पत्रकार कानून बनाने की आवाज उठाते हैं और सरकारें जल्द से जल्द बनाने का अवश्वासन देती हैं। ऐसी विपरीत हालातों में परिवर्तन की मशाल को अपने रक्त और परिश्रम से रौशन करने वाले मीडिया कर्मियों के लिए न तो मीडिया केंद्रों में न्याय है और न ही समाज में कोई स्थान। खबरनवीस का जीवन गीली लकड़ी की सुलगन-सा अपने दर्द को रिस-रिस कर खबरों में जाहिर करता है। कभी-कभी कुछ खास मौकों पर मुलाजमत में आजादी के जज्बात खोजने की गुस्ताखी कर बैठता है। शायर ने पत्रकार के अंदाज को अपनी शायरी में कुछ इस तरह कैद करने की कोशिश की है,

"बड़ा महीन है अखबार का मुलाजिम भी,

खुद खबर हो के, खबर दूसरों की लिखता है!"