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एक छोटे से रेस्टोरेंट में झाड़ू-पोछा करने वाले ने बनाया 'सरवणा भवन', आज 80 रेस्टोरेंट के मालिक...

एक छोटे से रेस्टोरेंट में झाड़ू-पोछा करने वाले ने बनाया 'सरवणा भवन', आज 80 रेस्टोरेंट के मालिक...

Thursday March 12, 2015 , 7 min Read

बेटर से 80 रेस्टोरेंट के मालिक...पी राजगोपाल ...


घर से बाहर पूरे परिवार के साथ खाना खाना हो तो सबसे पहले आपके ज़ेहन में क्या ख्याल आता है-ऐसी जगह चला जाए जहां का खाना लज़ीज़ हो, आपके बजट में हो और रेस्टोरेंट में साफ सफाई का खास ध्यान रखा जाए। इसके बाद आप नज़र दौड़ाते हैं कि आपके आसपास में ऐसी कौन सी जगह है। तभी आपको एकदम से याद आता है कि आप के घर के पास ही है सरवणा भवन। जहां आपके मन मुताबिक सबकुछ मिल जाता है। असल में ये सारे सवाल जुड़े हैं आपकी और हमारी विश्वसनीयता से। सरवणा भवन, एक ऐसा रेस्टोरेंट जिसने ग्राहकों का भरोसा जीता है।

सरवणा भवन बनाने और ग्राहकों का भरोसा जीतने के पीछे सोच है पी राजगोपाल की। हुआ यूं कि एक बार किसी ने पी राजगोपाल से कहा कि वो चेन्नई के टी नगर इलाका सिर्फ इसलिए जा रहा है क्योंकि के के नगर में कोई रेस्टोरेंट नहीं है। चेन्नई के के के नगर में ही राजगोपाल रहते थे। इस बात ने पी राजगोपाल को अंदर तक झकझोर दिया। उसी दिन राजगोपाल ने तय कि वो रेस्टोरेंट खोलेंगे और जनता का विश्वास जीतेंगे। काम मुश्किल था लेकिन असंभव नहीं। मजबूत इरादों के साथ पी राजगोपाल ने तैयारी शुरु की और नतीजा ये है कि आज देश भर के अलग अलग शहरों में सरवणा भवन की कुल 33 और विदेशों में 47 शाखाएं हैं।

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बचपन और गरीबी के दिन

आज लाखों लोगों का पेट भरने वाले पी राजगोपाल का बचपन बड़ी मुश्किल में गुज़रा। जिस साल देश आज़ाद हुआ उसी साल पी राजगोपाल का जन्म तमिलनाडु के एक छोटे से गांव पुन्नईयादी में हुआ। किसान पिता ने किसी तरह से उनका लालन पालन किया। बड़े होने पर हिम्मत करके स्कूल भी भेजा। पर जिस घर में खाने के लाले पड़े हों वहां पढ़ाई लक्ज़री ही मानी जाती है। सो पी राजगोपाल को सातवीं क्लास के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी और पेट भरने के लिए एक रेस्टोरेंट में बर्तन और झाडू पोंछा का काम करना पड़ा। कहते हैं हालात के साथ हर किसी को समय सबकुछ सीखा दे जाता है। धीरे-धीरे पी राजगोपाल ने चाय बनाना सीखा। इसके बाद खाना बनाना भी सीखा। पर वक्त ने एक इशारा किया और राजगोपाल ने उस इशारे को समझने में देर नहीं की। इसी के तुरंत बाद उन्हें एक किराना स्टोर पर साफ सफाई करने वाले सहायक की नौकरी मिल गई। इसी नौकरी ने राजगोपाल को एक दिशा दी। दिशा अपना बिजनेस करने की। राजगोपाल ने अपने पिता और दूसरे रिश्तेदारों की मदद से कम लागत में ही जल्द ही एक किराना दुकान खोल दिया। दुकान खोल तो लिया लेकिन सामने चुनौतियों का पहाड़ था। जिन योजनाओं के साथ राजगोपाल ने दुकान खोली थी वो एकदम से चरमरा गईं। एक पल के लिए ऐसा लगने लगा कि सबकुछ बेकार हो गया। पर कहते हैं दुनिया में उम्मीद से बड़ा कोई हथियार नहीं होता और सब्र से अचूक कोई दवा नहीं होती। विपरीत परिस्थितियों में लगातार टूटने के बावजूद राजगोपाल के मन के किसी कोने में विश्वास अब भी ज़िंदा था। विश्वास कुछ कर गुजरने का।

विश्वास की परीक्षा की घड़ी खत्म हुई। अब बारी थी दुनिया के सामने खुद को साबित करने की। बात 1979 की है जब एक सेल्समैन ने इनसे कहा कि के के नगर में खाने के लिए एक रेस्टोरेंट तक नहीं है। उस सेल्समैन की यह बात भले ही उपहास में कही गई थी पर यही उपहास पी राजगोपाल के लिए प्रेरणा का कारण बन गया। दो साल के अंदर यानी 1981 में राजगोपाल ने सरवणा भवन की स्थापना की। ये वो दौर था जब बाहर खाना खाना असल में चलन नहीं ज़रूरत थी। राजगोपाल ने जनता की इस मांग को पूरा किया और रेस्टोरेंट बिजनेस में अंगद का पैर जमा दिया।

काम और कर्मचारियों के लिए अनुशासन

रेस्टोरेंट चलाने के लिए पी राजगोपाल ने कुछ नियम बनाए। इन नियमों में ग्राहकों की विश्वसनीयता को सबसे पर रखा गया। रेस्टोरेंट में ग्राहकों की विश्वसनीयता बनती है साफ सफाई के साथ बढ़िया और शुद्ध खाने से। उनके जिन कर्मचारियों ने खाने की गुणवत्ता के साथ समझौता करने की सलाह दी उसे राजगोपाल ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। जिन रसोइयों ने खाना बनाने के दौरान घटिया मसालों का इस्तेमाल किया उनकी कई बार तनख्वाह भी काट ली गई। इन बातों का सीधा मतलब था कि खाने की गुणवत्ता सबसे ज़रूरी है क्योंकि ग्राहकों की संतुष्टि सर्वोपरि है। इसका खामियाजा ये हुआ कि सरवणा भवन घाटे में चलने लगा। उन दिनों राजगोपाल ने हर महीने दस हज़ार रुपए तक का नुकसान झेला। लेकिन कहते हैं जिसकी नियत साफ है उसका बरकत भी तय है। अकसर सफलता भले ही देर से मिलती है पर जब मिलती है तो उसका सुकून नैसर्गिक लगने लगता है। पी राजगोपाल का सरवणा भवन लोगों के लिए एक मिसाल बन गया और मुनाफे की बारिश होने लगी।

सरवणा भवन की सफलता का राज़ सिर्फ शुद्ध खाना है ऐसा नहीं है। बल्कि एक परिवार बनाने का है। राजगोपाल ने अपने कर्मचारियों को नौकर की तरह नहीं बल्कि परिवार के सदस्य की तरह रखा है। उनकी खुशी उनकी परेशानी को परिवार की परेशानी समझा है। राजगोपाल का मानना है कि कर्मचारी खुश रहेंगे तभी रेस्टोरेंट का माहौल अच्छा रहेगा। इसलिए रेस्टोरेंट के साथ-साथ कर्मचारियों की साफ सफाई का भी भरपूर ख्याल रखा जाता है। इसका एक छोटा सा उदाहरण है सरवणा भवन में खाने के लिए प्लेट्स की बजाय केले के पत्ते का इस्तेमाल। राजगोपाल का यह प्रयोग ग्राहकों को तो पसंद आया ही साथ में उनके कर्मचारियों के लिए भी काफी कारगर साबित हुआ। कर्मचारियों को न तो प्लेट्स हटाने की झंझट और न ही उसे धोने के लिए कोई हायतौबा। इसके अलावा राजगोपाल ने अपने कर्मचारियों के लिए ये नियम बनाया कि महीने में एक बार सब के सब ज़रूर बाल कटवाएंगे। इससे न तो कभी खाने में बाल गिरने की कोई शिकायत आती है और साथ में कर्मचारी अच्छे और साफ सुथरे भी दिखते हैं। कर्मचारियों को सख्त हिदायत है कि वो देर रात तक फिल्में नहीं देखें, इससे उनकी कार्यक्षमता पर असर पड़ता है। पर उनके लिए जितनी सख्ती है उतनी ही सुरक्षा का इंतज़ाम भी। सरवणा भवन के कर्मचारियों की नौकरी की सुरक्षा का भी पूरा ख्याल रखा जाता है। साथ में उनके रहने के लिए बाकायदा घर भी दिया जाता है और समय के साथ उनकी तनख्वाह भी बढ़ाई जाती है। कर्मचारियों को अपने परिवार के पास गांव जाने के लिए भी सालाना पैसे दिए जाते हैं। शादीशुदा परिवार की बेहतरी और उनके दो बच्चों की पढ़ाई का पूरा खर्चा भी सरवणा भवन ही उठाता है। अगर किसी कर्मचारी की तबीयत खराब हो गई तो उसकी देखभाल के लिए खास तौर पर दो लोगों को लगाया जाता है।

मामला दर्ज

हज़ारों कर्मचारियों की देखभाल और चिंता करने वाले पी राजगोपाल के लिए 2009 अच्छा नहीं साबित हुआ। वजह है उनके खिलाफ हत्या का मामला दर्ज होना। राजगोपाल पर आरोप लगा अपने मैनेजर की बेटी के दोस्त संथारम की हत्या का। बताया जाता है कि राजगोपाल अपने मैनेजर की बेटी जीवाज्योति से शादी करना चाहता थे लेकिन जीवाज्योति और संथारम एक दूसरे को चाहते थे। कई धमकियों के बाद भी जब जीवाज्योति और संथारम का प्यार नहीं डरा तो अचानक संथारम का अपहरण कर लिया गया और कुछ दिनों बाद उसकी लाश मिली। पुलिस ने मामला दर्ज किया और पी राजगोपाल को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। लेकिन राजगोपाल के खिलाफ पुख्ता सबूत न मिलने की वजह से उन्हें जमानत मिल गई।

एक बार किसी पत्रकार ने जब सरवणा भवन के एक अधिकारी से पूछा कि सरवणा भवन में जाकर खाना खाने का मतलब है एक हत्यारे की जेब भरना। इसके जवाब में अधिकारी ने बताया कि अपनी ज़िंदगियों में हम न जाने कितने ऐसे लोगों से मिलते हैं जिनके बारे में हमारे पास कोई जानकारी नहीं होती। उन्होंने आजतक क्या अच्छा और क्या खराब किया, फिर भी हम उनके साथ बिजनेस करते हैं। ऐसे में अगर कोई अच्छा खाना मुहैया करा रहा है तो उसके पास न जाने का कोई मतलब नहीं बनता।