गरीबी की वजह से नहीं बन पाए डॉक्टर, स्कूल खोलकर संवार रहे गरीबों का जीवन
भारत में गरीबी का आलम ये है कि न जाने कितने बच्चों के छोटे-छोटे सपने भी नहीं पूरे हो पाते। लेकिन ऐसे न जाने कितने बच्चे हैं जो बड़े होकर दूसरों के लिए मिसाल बन जाते हैं और अपनी पूरी जिंदगी समाज के लिए समर्पित कर देते हैं। कर्नाटक के कोलार से ताल्लुक रखने वाले नारायण स्वामी बी की कहानी कुछ ऐसी ही है। साल 1986 की बात है उस वक्त नारायण सिर्फ 19 साल में कोलार से कर्नाटक आ गए थे। उनके पास न तो रहने के लिए छत थी और न खाने के लिए पैसे, लेकिन आज वही नारायण हजारों गरीब बच्चों की जिंदगी संवार चुके हैं।
नारायण बताते हैं कि उनके माता-पिता का 33 साल पहले ही देहांत हो चुका है और वे चाहते थे कि उनका बेटा डॉक्टर बने। लेकिन असमयिक मृत्यु की वजह से नारायण का यह सपना पूरा नहीं हो सका। नारायण बचपन से ही पढ़ने में काफी तेज थे, लेकिन हालात ने उन्हें मजबूर कर दिया था। उनके पास एक ही चारा बचा था और वे कोलार छोड़कर बेंगलुरु आ गए। यहां आकर उन्होंने शुरू में कई छोटे मोटे काम किए लेकिन उनके मन में सिर्फ एक ही विजन था, बच्चों को पढ़ाना।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए वे बताते हैं, 'जब मैं अपना गाँव छोड़ रहा था, तो मेरा केवल एक ही लक्ष्य था - यह सुनिश्चित करना कि जो बच्चे पढ़ाई करना चाहते हैं, उन्हें मेरे जैसे संघर्ष करने की ज़रूरत नहीं है। मैं उन्हें वो सुविधा देना चाहता था जो मुझे नहीं हासिल हुआ था।' बेंगलुरु में होटल में काम करने से लेकर फुटपाथ पर सोना और भूखे पेट गुजारा करना नारायण की दिनचर्या बन गई थी। वे यह सब इसलिए कर रहे थे क्योंकि उनके मन में स्कूल खोलने का सपना पल रहा था।
बेंगलुरु आकर नारायण भले ही छोटे-मोटे काम कर रहे थे, लेकिन उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी थी। उन्होंने अध्यापक बनने के लिए परीक्षा पास कर ली और प्राइमरी स्कूल में अध्यापन बन गए। हालांकि उस वक्त अध्यापकों को उतनी अच्छी तनख्वाह नहीं मिलती थी। इसलिए उन्होंने स्कूल खोलने के लिए अपने गांव की सारी संपत्ती बेच दी और लोन भी लिया। 1990 में उन्होंने श्री विद्योदय हायर प्राइमरी स्कूल की शुरुआत की। कुवेंपु नगर में इस स्कूल में सिर्फ पांच बच्चों से शुरुआत हुई थी। कन्नड़ और तमिल माध्यम से चलने वाले इस स्कूल में 1 से 7वीं क्लास तक के बच्चे पढ़ सकते थे।
लेकिन स्कूल के बच्चों को तमाम सुविधाएं देने की वजह से स्कूल चलाना मुश्किल हो गया। उन्होंने अलग से आय के लिए अपने भाई के साथ मिलकर ट्रैवल एजेंसी खोल ली। इससे उन्हें जो भी पैसे मिलते थे वे इन्हें स्कूल में लगा देते थे। 2008 से सरकार ने नारायण के स्कूल में पढ़ाने वाले 12 टीचरों को तनख्वाह भी देनी शुरू कर दी।
52 वर्षीय नारायण बताते हैं, 'एक वक्त तो ऐसा था कि हमारे स्कूल में हॉस्टल में 700 से अधिक छात्रों की संख्या थी। लेकिन अब, चूंकि कन्नड़ और तमिल-माध्यम में पढ़ाई करने वाले बच्चे कम हो गए हैं इसलिए 300 छात्रों की संख्या कम हो गई है। लेकिन स्कूल अभी भी उन्हीं इरादों के साथ काम करता है, जिनके साथ इसे बनाया गया था।' इस स्कूल को शुरू हुए अब 28 साल हो चुके हैं और यहां न जाने कितने गरीब बच्चों का भविष्य संवर चुका है।
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