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हिंदी सिनेमा में खांटी जनता के लिए फिल्में बनाने वाले बेहतरीन निर्देशक

भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम सौ साल से भी ज्यादा के इतिहास को अगर दशकों में विभाजित किया जाए तो हम पाएंगे हर एक दशक अपनी अलग ही तासीर के साथ आया। देश की सामाजिक, राजनीतिक उथल-पुथल सिनेमा में साफ नजर आती रही है। जिस तरह से साहित्य समाज का आईना रहा है, वैसे ही सिनेमा भी ईमानदारी से आम-खास जीवन को रुपहले पर्दे पर उतारता आया है।

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21वीं शताब्दी की शुरुआत में जब दुनिया तेजी से बदल रही थी, अपने देश में धनाढ्यों की संख्या में तेजी से उछाल आया। एक खास किस्म दर्शक पैदा हो गया जिसे सिल्वर स्क्रीन पर भी सब ग्लॉसी ग्लॉसी और सुंदर सा देखना पसंद था। इस मांग को देखते हुए करण जौहर, आदित्य चोपड़ा, सूरज बड़जात्या जैसे दिग्गज निर्देशकों ने अमीरियत से भरी फिल्में बनाना शुरू की।

लेकिन लीक-पीट सिनेमा से धीरे धीरे आम जनों की मौजूदगी खत्म होने लगी। फिर यहां से जन्म हुआ यथार्थवादी सिनेमा का। 21वीं सदी के पले दशक के खात्मा होते होते सिनेमा में एक नई बहार बहने लगी। यहां भव्यता भी थी, इतिहास भी था, वर्तमान भी था और एकदम खांटी समस्याएं। और ये धारा समय के साथ और विशाल होती जा रही है। 

भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम सौ साल से भी ज्यादा के इतिहास को अगर दशकों में विभाजित किया जाए तो हम पाएंगे हर एक दशक अपनी अलग ही तासीर के साथ आया। देश की सामाजिक, राजनीतिक उथल-पुथल सिनेमा में साफ नजर आती रही है। जिस तरह से साहित्य समाज का आईना रहा है, वैसे ही सिनेमा भी ईमानदारी से आम-खास जीवन को रुपहले पर्दे पर उतारता आया है। 21वीं शताब्दी की शुरुआत में जब दुनिया तेजी से बदल रही थी, अपने देश में धनाढ्यों की संख्या में तेजी से उछाल आया। एक खास किस्म दर्शक पैदा हो गया जिसे सिल्वर स्क्रीन पर भी सब ग्लॉसी ग्लॉसी और सुंदर सा देखना पसंद था। इस मांग को देखते हुए करण जौहर, आदित्य चोपड़ा, सूरज बड़जात्या जैसे दिग्गज निर्देशकों ने अमीरियत से भरी फिल्में बनाना शुरू की। बिल्कुल लार्जर दैन लाइफ टाइप की। जिसके मुख्यपात्र करोड़पति होते थे। विदेशों में बसते थे या एनआरआई होते थे। मंहगे-मंहगे सेट होते थे, ब्रांडेड कपड़े होते थे। फिल्मांकन ऐसा कि दर्शक बस आंख फाड़े देखते रह जाते थे। 

लेकिन लीक-पीट सिनेमा से धीरे धीरे आम जनों की मौजूदगी खत्म होने लगी। फिर यहां से जन्म हुआ यथार्थवादी सिनेमा का। 21वीं सदी के पले दशक के खात्मा होते होते सिनेमा में एक नई बहार बहने लगी। यहां भव्यता भी थी, इतिहास भी था, वर्तमान भी था और एकदम खांटी समस्याएं। और ये धारा समय के साथ और विशाल होती जा रही है। आज हम बताएंगे उन निर्देशकों के बारे में, जिनकी पहल ने हिंदी सिनेमा को केवल धनाढ्य लोगों के लिए बनाए जा रहे सिनेमा वाली लीक से बाहर निकाला है।

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अनुराग बसु

भट्ट परिवार की खास धारावाहिको से शुरूआत करने वाले अनुराग बसु ने गैंगस्टर और 'लाइफ इन ए मेट्रो' से बॉलीवुड में कदम रखा। लेकिन दिल छू लेने वाली कॉमेडी और ड्रामा फिल्म बर्फी ने उनका नाम बेहतरीन समकालीन फिल्म निर्माताओं में शुमार कर दिया। उन्होंने बिना भावनात्मक गहराईयों के खोये कई मनोरंजक फिल्में बनाने में कामयाबी हासिल की है। और बॉलीवुड में एक अलग जगह बनाई।

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सुधीर मिश्रा

सुधीर मिश्रा ने ऐसे दौर में आर्ट फिल्म बनाई जब हिन्दी सिनेमा से आर्ट फिल्में गायब हो गईं थीं। उन्होंने नासमझी दिखाये बगैर कुछ अनजान कहानियां बखूबी लोगों के सामने रखी। सुधीर मिश्रा 80 और 90 दशक के कुछ एक ऐसे फिल्म निर्माताओं में से एक हैं जिनके ऊपर कोई दाग नहीं लगा। यहां तक कि बेहतरीन राजनीतिक नाटक 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' में भी उनकी बेहतर कहानी की झलक दिख जाती है।

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संजय लीला भंसाली

कोई भी फिल्म निर्माता किसी नाटक को भव्य रूप में पेश नहीं कर पाया। लेकिन भंसाली ने इसे कर दिखाया। अपनी पहली फिल्म खामोशी से लेकर बाजीराव मस्तानी तक, भंसाली ने भव्य डिजाइनों और तकनीकी कौशल के साथ शानदार रोमांटिक कहानी को सफलतापूर्वक पेश किया। भव्य सेट डिजाइन, गीत,डांस के तालमेल के साथ साथ भावनात्मक रूप से भारी कहानियों के जरिये भारतीय फिल्मों को और खूबसूरती के साथ परोसा। आप या तो उनसे प्यार करें या नफरत, लेकिन उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते।

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राकेश ओमप्रकाश मेहरा

कुछ ही फिल्म निर्माओं की फिल्म डॉयलॉग से शुरू होती है और बड़ी मजबूती से देश के लिए कोई चर्चा छेड़ देती हैं। मेहरा उनमें से एक हैं। पीढ़ीको जगाने वाली टैगलाइन के साथ आई फिल्म 'रंग दे बसंती' ने फिल्म देखने के नजरिये और उनके प्रभाव को बिल्कुल ही बदल दिया। उनकी कहानी आज के युवाओं और देश की नियति के साथ संघर्ष को दिखाती है। मेहरा आज के जमाने की उत्कृष्ट कृति बनाने में कामयाब हासिल की है। अपरंपरागत कथा संरचना और विषयगत शैली के जरिये उन्होंने अपना अलग स्टाइल बनाया है। उन्होंने देल्ही-6 जैसी फिल्म भी बनाई।

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राजकुमार हिरानी

शायद उनके बिना ये लिस्ट पूरी नहीं हो सकती थी। कॉमर्शियल फिल्मों के मास्टर, हिरानी खुद में एक ऐसी संस्था की तरह हैं, जिसने समाज की चिंताजनक मुद्दों पर बेहद हास्यास्पद अंदाज में मनोरंजन कराया। उनकी फिल्में हमेशा हंसाती हैं। और विचारशील समाजिक मुद्दों पर सवाल छोड़ते हैं। आज के दौर में राजकुमार हिरानी ऐसे फिल्मकार हैं जिनमें ईमानदारी और सादगी दिखती है। ठीक उनकी फिल्मों की तरह।

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विशाल भारद्वाज

ऐसी कौन सी चीज है जिसे भारतीय सिनेमा में विशाल भारद्वाज ने नहीं किया है। इस बहुआयामी प्रतिभा ने भारतीय सिनेमा की आयाम को बदल दिया जब सबसे पहले टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में 'मकबूल' को 2003 में दिखाया गया था। उसके बाद से तो विशाल भारद्वाज ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने अपना हूनर मौज मस्ती वाले कॉमेडी से लेकर खूंखार लव स्टोरी तक और बच्चों की कहानी तक आजमाया। मकबूल, ओंकारा और हैदर जैसी फिल्मों की तिकड़ी ने उन्हें सफल फिल्मकारों में शुमार कर दिया।

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तिग्मांशु धूलिया

बेहतरीन स्टोरी लाइन के दम भारत के दिल में उतर जाने की कला के जरिये तिग्मांशु धूलिया ने खुद को साबित किया है। उनकी पहली फिल्म हासिल शानदार रही। जिसके जरिये इरफान खान जैसे कलाकारों ने बॉलीवुड में करियर की शुरूआत की। उनकी बनाई फिल्म पान सिंह तोमर ने भी खूब वाहहाबी बटोरी। और उसे नेशनल अवॉर्ड के लिए चुना गया। वो आजाद भारत के समाजिक-आर्थिक दलदल को खोजने में दक्ष हैं। भले ही इसके लिए लोग उनकी फिल्मों को सुस्त या बिना रौनक वाली मानते हो।

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आशुतोष ग्वारिकर

आशुतोष ग्वारिकर वो शख्स थे जिन्होंने भारतीय सिनेमा को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई। उन्होंने दर्शकों की भावनाओं को सीधे फिल्मों से जोड़ दिया। 'लगान', 'वंस अपॉन अ टाइमइन मुंबई' और 'स्वदेश' जैसी फिल्मों के साथ ग्वारिकर ने हमारी पीढ़ी को चंद फिल्मों के जरिये गौरवान्वित कर दिया। उनकी फिल्में तकनीकि तौर पर उत्कृष्ट और बोलने वाली होती थी। उनके पात्र मशहूर और कहानियां स्वाभाविक होती थीं। उनकी फिल्मों हमेशा भावनात्मक रहीं और उनका प्रचार ना होने के बाद भी लोग उनकी चर्चा करने को मजबूर हो गये।

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हंसल मेहता

हंसल मेहता जैसे नेशनल फिल्म अवॉर्ड विनर डायरेक्टर बॉलीवुड के लिए अच्छे हैं। शाहिद, सिटी लाइट्स और अलीगढ़ जैसी फिल्मों के जरिये उन्होंने खुद को एक बेहतरीन फिल्म डायरेक्टर साबित किया। उनकी फिल्मों की कहानियां विरले ही भारतीय सिनेमा में देखने को मिले।

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