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तीन तलाक पर रोक यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की साजिश का हिस्सा है: जफरयाब जिलानी

समान नागरिक संहिता और तीन तलाक का मुद्दा आज भारतीय सियासत और सामाजिक दायरे में बहस का सबब बना हुआ है। कोई इसे संप्रभु राष्ट्र की बुनियादी शर्त बता रहा है, तो कोई सियासत चमकाने का जरिया। कोई कह रहा है अपने ऐश के लिए शरियत को तोड़ा-मरोड़ा गया है, तो किसी की दलील है अदालतों के जरिये शरिया कानून में हो रही है दखलंदाजी। हैरत ये है कि पक्ष और विपक्ष खुद को विधि-सम्मत भी बता रहे हैं। आइये मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य और वकील जफरयाब जिलानी से जानते हैं कि ऐसे संवेदनशीलसा मुद्दे पर उनके क्या विचार हैं...

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य, ऑल इंडिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक व बाबरी मस्जिद के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे अधिवक्ता जफरयाब जिलानी को आज किसी परिचय की दरकार नहीं है। चाहे तीन तलाक का मसला हो या समान नागरिक संहिता का, या राम मंदिर- बाबरी मस्ज़िद विवाद, हर जगह जफरयाब जिलानी कानून की दलीलों के साथ अपने पक्ष को बखूबी पेश करते दिख जायेंगे। समाज में जफरयाब जिलानी जी की मक़बूलियत कुछ यूं है, कि कुछ प्रगतिशील हम मज़हब उन्हें ख़ारिज भी करते हैं तो कुछ उनके हम कदम भी बनना चाहते हैं। कह सकते है कि जब हिंदुस्तान के प्रमुख 10 मुद्दों की बात होगी, तो उनके विस्तार में कहीं न कहीं जफरयाब जिलानी का भी ज़िक्र ज़रूर आएगा।

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तलाक...तलाक...तलाक!! इन तीन अल्फाजों के फिजाओं में गूंजते ही जिंदगी भर साथ जीनें की सभी कसमे-वादे और इरादे दम तोड़ देते हैं। एक खूबसूरत जिंदगी हमेशा के लिये आंसुओं में डूब जाती है। यहां बात हो रही है इस्लामिक व्यवस्था में दंपत्ति के मध्य प्रचलित तलाक के तरीके ट्रिपल तलाक के बारे में। सवाल ये है, क्या तीन बार तलाक! तलाक! तलाक! बोल कर औरत को अपनी जिंदगी से निकाल देने का एक तरफा अधिकार पुरुष को मिलना जायज़ है? 

क्या धर्म के नाम पर कानूनी मान्यता प्राप्त तीन तलाक जैसी कठोर प्रथा भारत जैसे गणतांत्रिक राष्ट्र में उचित है? हैरानी की बात है, कि कुछ इस्लामिक देशों में ट्रिपिल तलाक जैसी चीज़ों को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया है, जबकि खुद भारत में कुछ लोग इसका समर्थन कर रहे हैं। भारत एक सेकुलर मुल्क है। इस्लामिक कानून के कई जानकार भी साफ तौर पर कहते हैं, कि जिस तरह से आजकल एसएमएस, वाट्सएप, इंटरनेट, सोशल मीडिया या अन्य तरीकों से तलाक देने का चलन बढ़ा है वह पूरी तरह से गैर-इस्लामिक है और कहीं पर शरियत उन्हें उन तौर- तरीकों से ऐसा करने की इजाजत नहीं देती। 

फिर भी, संविधान से ऊपर अपने कानून को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिमों में प्रचलित तीन तलाक और चार शादियों के नियम को उचित ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट से पर्सनल लॉ में दखल न देते हुए इस प्रावधान को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खत्म करने की मांग की है। बोर्ड का कहना है कि ये पर्सनल लॉ पवित्र कुरान और हमारी धार्मिक स्वतंत्रता पर आधारित है, जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा सामाजिक सुधार के नाम पर नहीं बदला जा सकता। इन्हीं सबको लेकर जब जफर जिलानी से बात हुई तो उन्होंने कई महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया। 


यूनिफार्म सिविल कोड और भारत में उसके लागू होने पर जिलानी कहते हैं,

यूनिफार्म सिविल कोड एक सियासी मुद्दा है, जो चुनाव के आस-पास तेजी पकड़ लेता है। भारत एक ऐसा देश है जहां कई समुदाय और समूहों के अपने पर्सनल लॉ हैं। ऐसे में समान आचार संहिता को लागू कर पाना असंभव है। किसी को इसे हिन्दू बनाम मुस्लिम के मुद्दे के तौर पर नहीं लेना चाहिए। देश में 200-300 पर्सनल लॉ हैं। संविधान में लिखा है, वी द पीपल और हमें अलग-अलग तरीके से, अपने तरीके से रहने का अधिकार है। अमेरिका में जितने राज्य हैं उनका अलग-अलग पर्सनल लॉ है, वहां कोई विवाद नहीं है। लेकिन हमारी हुकूमत हर बात में अमेरिका की पिछलग्गू बनती है। लेकिन इस मामले में नहीं देख रही है कि वहां क्या हो रहा है? ये सोच मुल्क को तोडऩे वाली, गैरवाजिब और नामुनासिब है। 

तीन तलाक को लेकर मुस्लिम महिलाओं में होने वाले विरोध पर जिलानी का कहना है

तलाक के मामले में कभी-कभी ज्यादती हो जाती है, लेकिन उसका प्रतिशत बहुत कम है और उसके खिलाफ शरियत में दण्ड का भी प्रावधान है 1400 वर्षों से। शरियत में तब्दीली चाहने वाली महिलायें एक प्रतिशत भी नहीं है। मैं दावे से कह रहा हूं, कि 90 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं शरिया कानून का समर्थन करती हैं। केन्द्र सरकार तीन तलाक पर जनमत संग्रह करा सकती है। मुसलमान मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल को बर्दाश्त नहीं करेंगे।

तीन तलाक की व्यवस्था शरियत के मुताबिक होने वाली बात पर जिलानी कहते हैं,

एक साथ तीन बार कहे गये तलाक को एक तलाक ही मानने की केन्द्र की दलील और इससे जुड़ा हलफनामा दायर किया जाना शरियत में सीधा दखल होगा, जो कबूल नहीं किया जायेगा। कुरान और हदीस के मुताबिक तीन तलाक सैद्धान्तिक रूप से दुरुस्त है, लेकिन एक सांस में तीन बार तलाक बोलने को इस्लाम में कभी अच्छा नहीं माना गया है। इसी धारणा पर शरिया अदालत में मुसलमानों के फैसले होते रहे हैं। लोकसभा में विधेयक लाकर या सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल करके तीन तलाक को एक तलाक मानना मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप होने के साथ-साथ संविधान में अल्पसंख्यकों को दिए गए अधिकारों का हनन भी है। 

शिया धर्मगुरु और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष डॉ. कल्बे सादिक का कहना है कि तीन बार क्या तीन लाख बार कहने से भी तलाक नहीं हो सकता, इस पर जिलानी कहते हैं, 

बोर्ड में अलग-अलग मसलक और फिरके (समुदाय) के लोग हैं। सबकी अपने-अपने मसलक के हिसाब से शरई कानून और कायदे हैं। अहले हदीस और शिया फिरका तीन तलाक नहीं मानता। फिर भी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में कोई विरोधाभास नहीं है। सब अपने-अपने मसलक को लेकर अपनी राय रखते हैं कोई किसी का विरोध नहीं करता।


जिस तरह ट्रिपल तलाक के मुद्दे पर शरियत का हवाला दिया जा रहा है, तो मुस्लिम समुदाय के लिए भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता को अमान्य करते हुए समग्रता में शरई कानून को मान्य कर देने की बात पर जिलानी कहते हैं, 

मुसलमानों को कतई ऐतराज नहीं होगा गर उनके लिए इस्लामी पिनल कोड लागू कर दिया जाए। अगर भारत का संविधान इस बात की अनुमति देता है तो हमें सहर्ष स्वीकार होगा। लेकिन हम इसकी मांग नहीं कर सकते क्योंकि हमें संविधान इसकी अनुमति नहीं देता है।

अब देखना ये है, कि आने वाले समय में ट्रिपल तलाक किस करवट बैठता है। सबकुछ ऐसे ही चलेगा या फिर कोई फैसला औरत के हक में भी जायेगा!