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कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत कवि 'गोपाल सिंह नेपाली'

कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत कवि 'गोपाल सिंह नेपाली'

Friday August 11, 2017 , 6 min Read

शुरू में नेपालीजी, गोपालसिंह 'नेपाली' के नाम से नहीं जाने जाते थे। उन्होंने अपना उपनाम 'मगन' रखा था। 'बिजली' के एक अंक में 'प्रभात' शीर्षक कविता के नीचे कवि के रूप में उनका नाम छपा था- बंबहादुर सिंह नेपाली मगन।' अपनी प्रारम्भिक रचनाओं से नेपालीजी कविता में अनूठे रंग भरने लगे थे। नेपालीजी के जन्मस्थान को लेकर सरकार से ज्यादा दुःखद रवैया तो आम लोगों का है।

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नेपालीजी की पहली कविता 'भारत गगन के जगमग सितारे', वर्ष 1930 में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 

"राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन क़लम

सुनहरी सुबह नेपाल की, ढलती शाम बंगाल की

कर दे फीका रंग चुनरी का, दोपहरी नैनीताल की

क्या दरस परस की बात यहां, जहां पत्थर में भगवान है

यह मेरा हिन्दुस्तान है, यह मेरा हिन्दुस्तान है।"

एक कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर प्रसिद्ध कवि गोपाल सिंह नेपाली की यह पंक्तियां सुनकर स्तंभित से हो उठे थे। आज उन्हीं नेपाली जी का जन्मदिन है। कहते हैं कि कवि जयशंकर प्रसाद स्नान करते समय अक्सर नेपालीजी की ये पंक्तियां गुनगुनाया करते थे - 'पीपल के पत्ते गोल-गोल। कुछ कहते रहते डोल-डोल।' पहली बार गोपाल सिंह नेपाली की कविता सुनने के बाद मुंशी प्रेमचंद ने कहा था- 'बरखुर्दार क्या पेट से ही कविता सीखकर पैदा हुए हो?' जानकी वल्लभ शास्त्री ने कभी कहा था- ‘मिल्टन, कीट्स और शेली जैसे त्रय कवियों की प्रतिभा नेपाली में त्रिवेणी संगम की तरह उपस्थित है।’ कविवर सुमित्रा नंदन पंत ने उनकी कविताओं पर कहा था- ‘आपकी सरस्वती, स्नेह, सह्रदयता और सौंदर्य की सजीव प्रतिमा है।’ निरालाजी ने नेपाली जी की रचनाओं को पढ़कर उन्हें ‘काव्याकाश का दैदीप्यमान’ सितारा कहा था।

शुरू में नेपालीजी, गोपालसिंह 'नेपाली' के नाम से नहीं जाने जाते थे। उन्होंने अपना उपनाम 'मगन' रखा था। 'बिजली' के एक अंक में 'प्रभात' शीर्षक कविता के नीचे कवि के रूप में उनका नाम छपा था- बहादुर सिंह नेपाली मगन।' अपनी प्रारम्भिक रचनाओं से नेपालीजी कविता में अनूठे रंग भरने लगे थे। नेपालीजी के जन्मस्थान को लेकर सरकार से ज्यादा दुःखद रवैया तो आम लोगों का है। अब वह प्रायः लोग यह पूछते मिल जाते हैं कि नेपाली कौन थे। नेपालीजी की पहली कविता 'भारत गगन के जगमग सितारे', वर्ष 1930 में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उन्होंने जिस वक्त होश संभाला, चंपारण में महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन चरम पर था। बाद में उन्होंने हिन्दी गीतों को न केवल नयी अर्थवत्ता दी बल्कि उसे आम आदमी से भी जोड़ा। कालांतर में उनकी जनकवि की छवि बनी। देश स्वतंत्र होने के बाद उन्होंने अपने शब्दों में जनगण का दुख-दर्द साझा किया- 'हम धरती क्या आकाश बदलने वाले हैं, हम तो कवि हैं, इतिहास बदलने वाले हैं।' वह कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे। उनके गीत इस तरह लोकप्रिय होने लगे कि उन्हें कवि सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा। यद्यपि उनकी पत्नी वीणारानी नेपाल के राजपुरोहित के परिवार से ताल्लुक रखती थीं, लाख अर्थाभाव के बावजूद स्वाभिमान से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।

कभी उनकी पत्नी वीणारानी ने कवि विमल राजस्थानी को पत्र लिखा था। उन पत्रों से नेपालीजी की बदहाली का पता चला। उनकी विमल राजस्थानी से प्रगाढ़ मित्रता थी। प्रायः नेपाली जी विमलजी को पोस्ट कार्ड भेजा करते थे। एक चिट्ठी में लिखा था- बुलाया तू ने बार-बार। पर आया न तू एक बार।

नेपालीजी की कविताएं जब सहज उपलब्ध नहीं थीं, आलोचक सतीश कुमार राय ने 'प्रतिनिधि कविताएँ' (राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) तथा 'नेपाली की सत्तर कविताएँ' (अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर) संकलित-संपादित कर साहित्य-जगत का ध्यान आकृष्ट किया। 17 अप्रैल 1963 को अपने जीवन के अंतिम कवि सम्मेलन से कविता पाठ करके लौटते समय बिहार के भागलपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर नंबर दो पर उनका अचानक निधन हो गया था। हिंदी के कवि-साहित्यकारों एवं सुधीजनों के बीच अक्सर एक सवाल उछलता रहा है कि एक वक्त में गीतों के राजकुमार रहे गोपाल सिंह नेपाली को क्या कभी राष्ट्रकवि का सम्मान मिल पाएगा। यद्यपि वह हमारे बीच नहीं रहे। नेपालीजी हिंदी के छायावादोत्तर काल के कवियों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। 

नेपाली जी मूलतः बेतिया, चम्पारण (बिहार) के रहने वाले थे। उनके दादा नेपाल से आकर बिहार में बसे थे, इसलिए उन्होंने अपने साथ 'नेपाली' उपनाम जोड़ लिया। उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह था। उन्होंने बचपन के दिन देहरादून और मंसूरी के प्राकृतिक परिवेश में गुज़ारे थे। 

स्कूली शिक्षा में यद्यपि नेपाली 10वीं फेल थे, फिर भी देश के प्रख्यात कवियों की अग्रिम पंक्ति में जा पहुंचे। नेपालीजी का जीवन सदा अभावों में बीता। वह एक स्वाभिमानी रचनाकार थे। उनको मृत्यु के बाद भी अन्याय का शिकार होना पड़ा। नेपालीजी उस दौर के कवियों में से थे, जब देश के अनेक नामवर रचनाकार फ़िल्मों में काम करते थे। वर्ष 1944 में वह फिल्मी लेखन के लिए मुंबई चले गए। बंबई में एक कवि सम्मेलन के दौरान फिल्म निर्माता शशधर मुखर्जी से मुलाकात के बाद फिल्मिस्तान के मालिक सेठ तुलाराम जालान ने उन्हें दो सौ रुपए प्रतिमाह पर गीतकार के रूप में चार साल के लिए अनुबंधित कर लिया। यहां सबसे पहले उन्होंने ऐतिहासिक फिल्म 'मजदूर' के लिए गीत लिखे। इस फिल्म के गीत इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन की ओर से नेपालीजी को 1945 का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार मिला। प्रस्तुत है गोपाल सिंह नेपाली की एक कालजयी रचना-

राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन क़लम

मेरा धन है स्वाधीन क़लम

जिसने तलवार शिवा को दी

रोशनी उधार दिवा को दी

पतवार थमा दी लहरों को

खंजर की धार हवा को दी

अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन क़लम

मेरा धन है स्वाधीन क़लम

रस-गंगा लहरा देती है

मस्ती-ध्वज फहरा देती है

चालीस करोड़ों की भोली

किस्मत पर पहरा देती है

संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन क़लम

मेरा धन है स्वाधीन क़लम

कोई जनता को क्या लूटे

कोई दुखियों पर क्या टूटे

कोई भी लाख प्रचार करे

सच्चा बनकर झूठे-झूठे

अनमोल सत्य का रत्‍नहार, लाती चोरों से छीन क़लम

मेरा धन है स्वाधीन क़लम

बस मेरे पास हृदय-भर है

यह भी जग को न्योछावर है

लिखता हूँ तो मेरे आगे

सारा ब्रह्मांड विषय-भर है

रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन क़लम

मेरा धन है स्वाधीन कलम

लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से

बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से

आदत न रही कुछ लिखने की

निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से

कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन क़लम

मेरा धन है स्वाधीन क़लम

तुझ-सा लहरों में बह लेता

तो मैं भी सत्ता गह लेता

ईमान बेचता चलता तो

मैं भी महलों में रह लेता

हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन क़लम

मेरा धन है स्वाधीन क़लम