करोड़ों लोगों के जीवन पर अपना सकारात्मक और क्रांतिकारी प्रभाव छोड़ना चाहते हैं हनमंतराव गायकवाड
2027 तक 10 लाख लोगों को रोज़गार देने का भी लक्ष्य रखा है भारत विकास ग्रुप के संस्थापक ने ...अब तक 65,000 से ज्यादा लोगों को नौकरी दे चुके हनमंत ने बचपन में रेलवे स्टेशन पर आम बेचे थे ... गरीबी का आलम ये था कि पूरा परिवार 10*10 फीट के कमरे में रहने को मजबूर था ... बीमार पिता के इलाज के लिए माँ ने अपना मंगलसूत्र तक गिरवी रख दिया था ... रुपये बचाने के मकसद से हनमंत हर दिन 40 किलोमीटर साइकिल चलाकर इंजीनियरिंग कॉलेज आया-जाया करते थे ... कॉलेज के दिनों में ही रंगाई-पुताई के ठेके लेकर उद्यमी बन गए थे हनमंत ... परिवार की सात पीढ़ियों में किसी ने नहीं किया था कारोबार, लेकिन कुछ बड़ा, हटके और नया करने के जुनून ने हनुमंत को बनाया कामयाब कारोबारी ... स्वामी विवेकानंद और छत्रपति शिवाजी महाराज को अपना आदर्श मानने वाले हनमंत खुद को कारोबारी कम और समाज-सेवी ज्यादा मानते हैं
स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “खुद पर विश्वास करने वाले 100 युवा मुझे दो मैं भारत को दुनिया का सबसे श्रेष्ट राष्ट्र बनाकर दूंगा।” भारत विकास ग्रुप के संस्थापक और अध्यक्ष हनमंत रामदास गायकवाड अपने आप को मौजूदा समय के इन्हीं 100 युवाओं में से एक मानते हैं। उनका विश्वास वाकई गज़ब का है। इसी विश्वास के बल पर उन्होंने संस्थाओं का एक ऐसा समूह बनाया है जिसने 65,000 से ज्यादा लोगों को रोज़गार दिया है। 1997 में महज़ आठ कर्मचारियों से शुरू की अपनी कंपनी को हनमंत राव ने इतना बड़ा बनाया है कि वो आज देश के बीस राज्यों में अपनी सेवाएँ दे रही है। कंपनी के 700 से ज्यादा क्लाइंट हैं और उसके ग्राहकों की सूची में देश-विदेश की नामचीन कंपनियां शामिल हैं। भारत विकास ग्रुप अलग-अलग तरह की सेवाएँ देने वाली कंपनियों का देश में सबसे बड़ा समूह भी हैं। एशिया महाद्वीप में आपातकालीन चिकित्सा सेवाएं प्रदान करने वाली सबसे बड़ी कंपनी भी यही है। राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, प्रधानमंत्री निवास, दिल्ली उच्च न्यायालय जैसे देश के अत्यंत महत्वपूर्ण स्थानों की देखरेख और साफ़-सफाई की ज़िम्मेदारी भी भारत विकास ग्रुप के पास ही है। देश में 100 से ज्यादा रेल गाड़ियों के रख-रखाव का काम भी हनमंत गायकवाड की कंपनी ही बखूबी निभा रही है।
हनमंत को खुद की काबिलियत, ताकत, विचारों और योजनाओं पर कितना भरोसा है उसका अंदाजा उनके भविष्य के लक्ष्यों को देख-समझकर आसानी से लगाया जा सकता है। गर्व और विश्वास से भरी आवाज़ में वे बताते हैं कि 2027 तक उनकी कंपनी में 10 लाख कर्मचारी होंगे। यानी वे 10 लाख लोगों को रोज़गार के अवसर देकर उनकी ज़िंदगी को खुशनुमा बनाने का काम करेंगे। हनमंत सिर्फ 2027 तक का ही सपना नहीं देख रहे हैं। उनका सपना और भी बड़ा है। सपना सिर्फ बड़ा ही नहीं, बल्कि नायाब भी हैं। हनमंत चाहते हैं कि वे अपने जीवन-काल में 10 करोड़ लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा उठाने में उनकी मदद करें। उनका सपना है कि वे अपनी बनाई अलग-अलग संस्थाओं के ज़रिये लोगों की मदद करें ताकि उनका जीवन भी सुखमय, शांतिमय, कांतिमय और प्रगतिशील बने। यानी हनमंत राव 10 करोड़ लोगों के जीवन पर अपना सीधा, सकारात्मक और क्रांतिकारी प्रभाव छोड़ना चाहते हैं।
हनमंत के ‘विश्वास’ पर इस वजह से भी यकीन करना आसान हो जाता है क्योंकि उनकी अब तक की कहानी भी कई मायनों में कईयों के लिए अविश्वसनीय ही है। उन्होंने वो सब हासिल किया है जिसकी कल्पना भी कई लोग नहीं कर सकते हैं। उनकी कहानी शून्य से शिखर तक पहुँचने की कहानी है। कहानी फर्श से अर्श तक की है, कौड़ियों से करोड़पति बनने की है। इस बेमिसाल कहानी में गरीबी के थपेड़े हैं, मेहनत, लगन और संघर्ष से कामयाबी हासिल करने के कई सारे प्रेरक प्रसंग हैं। हार न मानने का ज़ज्बा हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं, इस बात को साबित करने वाले कहानी भी है हनमंत की। उनकी विकास-गाथा में कामयाबी के कई मंत्र भी छिपे हैं।
अब तक की कामयाबी की अद्भुत और अद्वितीय कहानी के आधार पर ही हनमंत गायकवाड ये कहते हैं कि देश को दुनिया का सबसे समृद्ध और श्रेष्ट राष्ट्र बनाने के लिए स्वामी विवेकनद ने जिन 100 युवाओं की बात कही थी वे खुद को उनमें से एक मानते हैं। हनमंत के लिए स्वामी विवेकानंद और छत्रपति शिवाजी महाराज जीवन के आदर्श हैं। वे एक तरफ जहाँ स्वामी विवेकानंद के आध्यात्म, धर्म और राष्ट्र-निर्माण से जुड़े विचारों को लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं तो वहीं छत्रपति शिवाजी के आदर्शों को मानते हुए ‘महाराजा’ की तरह काम करने और जीवन जीने में विश्वास रखते हैं।
कामयाबी की एक अनुपम कहानी के नायक हनुमंत रामदास गायकवाड का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के कोरेगाँव में हुआ। उनका पैतृक गाँव रहिमतपुर है। उनके पिता कोर्ट में क्लर्क थे। माता गृहिणी थीं। हनुमंत बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज़ थे। गणित पर उनकी अच्छी पकड़ थी। जब पिता ने देखा कि उनका लड़का होनहार है तब वे परिवार के साथ सतारा चले आये ताकि बच्चे को अच्छी शिक्षा मिल सके। हनुमंत का दाखिला सतारा के नवीन मराठी स्कूल में कराया गया। हनुमंत पढ़ाई में इतने तेज़ थे कि उन्हें चौथी कक्षा में ही महाराष्ट्र सरकार से छात्रवृत्ति मिल गयी। छात्रवृत्ति के तौर पर हनुमंत को हर महीने 10 रुपये मिलने लगे थे। हनुमंत के लिए ये रकम काफी मायने रखती थी। छोटी-सी उम्र में छात्रवृत्ति ने हनुमंत के बाल-मन पर गहरा प्रभाव डाला था। हनुमंत जान गए कि छात्रवृत्ति अमीर घर-परिवार के बच्चों को नहीं मिली है, बल्कि उन्हें मिली है यानी उनका दिमाग दूसरे बच्चों से तेज़ हैं। इस छात्रवृत्ति ने हनुमंत का आत्म-विश्वास बढ़ाया था और उन्हें इस बात का अहसास दिलाया था कि वे कुछ अलग कर सकते हैं जिससे समाज में उनका मान-सम्मान हो सके।
छात्रवृत्ति मिलने से पहले हनुमंत के बाल-मन पर अपने आसपास के माहौल का असर पड़ा था। हनुमंत का परिवार गरीब था और पिता की तनख्वाह पर भी सारा घर-परिवार चलता था। हनुमंत और उनका परिवार सतारा में एक छोटे से मकान में रहता था। 10*12 फीट वाले उस मकान में बिजली भी नहीं थी। बालक हनुमंत को लगता था कि जिन लोगों के घर में बिजली है वे अमीर हैं और जिनके पास बिजली नहीं है वे गरीब हैं। गरीब होने का अहसास उन्हें दूसरे बच्चों और खुद के जन्म-दिन पर भी होता था। जब दूसरे बच्चों का जन्म-दिन होता तब वे अपने दोस्तों में चॉक्लट बांटते थे, लेकिन परिवार की हालत इतनी मजबूत नहीं थी कि हनुमंत को भी जन्म-दिन पर दोस्तों में बांटने के लिए चॉक्लट दिए जा सकें। हनुमंत का बर्थ डे अमीर बच्चों के बर्थ डे की तरह नहीं होता था। भले ही चॉक्लट न बांटे जाते हों, केक न काटा जाता हो, लेकिन घर पर अपने अंदाज़ में जन्म-दिन मनाया जाता। उन दिनों की यादें ताज़ा करते हुए हनुमंत ने हमें बताया, “चपाती - गेहूं की रोटी सिर्फ बर्थ डे के दिन ही बनती थी। स्वीट डिश के रूप में 'सुधा रस' बनाया जाता था। शक्कर के पानी में नीम्बू निचोड़कर ये 'सुधा रस' बनाया जाता था।”
गरीबी का आलम कुछ ऐसा था कि बचपन में हनमंत को रुपये कमाने के किये काम करने पर भी मजबूर होना पड़ा था। हनमंत ने बचपन में रहिमतपुर रेलवे स्टेशन पर आम बेचे थे। उनके परिवार के 7-8 पेड़ थे और आमों के मौसम में उन्होंने रेलवे स्टेशन जाकर आम बेचे। हनमंत ने बताया, “आम बेचने के लिए मैं लोगों के पीछे भागता था। उन दिनों मैंने पच्चीस पैसे में एक आम बेचा था, तीन रुपये दज़न के हिसाब से भी आम बेचे थे।” हनमंत के घर में लकड़ी का चूल्हा जलता था। खेत से सूखी लकड़ियाँ और भूसा लाने की ज़िम्मेदारी भी हनमंत की ही थी। संघर्ष भरे दिन थे और हनमंत को बचपन में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। हनमंत कहते हैं, “मेहनत बहुत होती थी। दिन जैसे भी थे, हँसते-खेलते मैं काम करता था।” लेकिन, छात्रवृत्ति ने हनमंत ने मन में गज़ब के आत्म-विश्वास और उत्साह का संचार किया था। इसी उत्साह की वजह से उन्होंने किताबों को अपना सबसे अच्छा और पक्का साथी बना लिया। हनमंत की प्रतिभा जैसे-जैसे निखर रही थी, पिता की उम्मीदें भी बढ़ रही थीं। पिता को लगा कि हनमंत के लिए पुणे शहर सबसे अच्छी जगह होगी। हनमंत की बेहतर पढ़ाई-लिखाई के लिए पिता परिवार समेत पुणे चले आये। पुणे में हनमंत के मामा किरलोस्कर कंपनी में काम करते थे। उन्हीं की मदद के परिवार को पुणे के करीब फूगेवाड़ी इलाके में रहने को एक मकान मिला था। ये मकान सतारा वाले मकान से भी छोटा था। हनमंत बताते हैं, “एक छोटा-सा 10* 10 का कमरा था। हाथ फैलाते ही कोना लगता था। कमरे में डबल डेकर काट थी, दो लोग नीचे और दो लोग ऊपर सोते थे।”
हनमंत ने बचपन में गरीबी की मार कई बार खाई है। घर-परिवार पर उस समय मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा जब हनमंत के पिता बीमार पड़ गए। हनमंत के पिता का तबादला मुंबई हो गया था। मुंबई की हवा और वहां का दाना-पानी उन्हें रास नहीं आया और उन्हें मधुमेह हो गया। मधुमेह की वजह से उनकी हालत बिगड़ती चली गयी। हालत इतनी खराब हो गयी कि उन्हें साल में दो से तीन महीने अस्पताल में रहने के लिए मजबूर होना पड़ता था। बड़े और निजी अस्पताल में इलाज के लिए रुपये जुटाना कल्पना से भी परे था इसी वजह से पिता का इलाज सरकारी अस्पताल में कराया जाने लगा।
अपने पति के इलाज के लिए हनमंत की माँ को गहने भी बेचने पड़े थे। दुःख, पीड़ा और संघर्ष से भरे उन दिनों की घटनाएं हनमंत के मन-मस्तिष्क में अब भी ताज़ा हैं। उन्हें याद हैं कि उनकी माँ ने अपने कान की बाली सुनार के पास गिरवी रखी थी। कान की बाली को गिरवी रखने पर माँ को दो सौ रुपये मिले थे और सुनार ने ब्याज की रकम 5 टका तय की थी। हालत इतनी खराब हुई थी कि माँ को अपना मंगलसूत्र भी गिरवी रखना पड़ा था। साहूकार ने मंगलसूत्र अपने पास रखकर 500 रुपये दिए थे। ब्याज इस बार छह टका हो गयी।
हालत इतनी खराब हुई कि घर-परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए हनमंत की माँ को भी काम करना पड़ा। माँ ने सिलाई का काम शुरू किया। हनमंत को वे दिन अच्छी तरह से याद हैं जब उनकी माँ कपड़े सिलवाने के लिए उनके पास आने वाली महिलाओं से हनमंत के स्कूल आने-जाने के लिए होने वाले खर्च की रकम देने का अनुरोध करती थीं। हनमंत उन दिनों पुणे के मॉडर्न स्कूल में पढ़ते थे और स्कूल घर से दूर था। बस से आने-जाने के लिए हर दिन एक रुपये का खर्च होता था। यही रकम देने की गुज़ारिश माँ दूसरी महिलाओं से करती थीं। हनमंत की माँ नज़दीक के एक म्युनिसिपल स्कूल में पढ़ाने भी जाती थीं ताकि घर-परिवार की ज़रूरतें पूरी हो सकें।
कठिनाइयों के दौर, संघर्ष के दिनों, गरीबी की थपेड़ों के बीच हनमंत की पढ़ाई जारी रही थी। पिता का सपना था कि हनमंत आईएएस अफसर बने। हनमंत जब नवीं कक्षा में थे तभी से वे भी कलेक्टर बनने के सपने संजोने लगे थे। हनमंत जानते थे कि कलेक्टर बनने के लिए एग्जाम में अच्छे नंबर लाने ज़रूरी हैं। दिमाग तेज़ था और मेहनत भी खूब करते थे और इसी का नतीजा था कि दसवीं में उन्हें 88 फीसदी अंक मिले।
हनमंत ने दसवीं पास कर ली थी लेकिन उन्हें और उनके परिवारवालों को ये नहीं पता था कि आगे क्या करने और पढ़ने से कामयाबी की राह पकड़ी जा सकती है। जिस स्कूल में माँ पढ़ाती थीं उस स्कूल के हेड मास्टर से सलाह ली गयी। हेड मास्टर ने अपने अनुभव के आधार पर ये सलाह दी कि हनमंत का दाखिला पॉलिटेक्निक कॉलेज में कराया जाना चाहिए। हनमंत के दसवीं में अंक अच्छे थे और उन दिनों पॉलिटेक्निक कॉलेज से पढ़कर निकलने वाले छात्रों को आसानी से नौकरियाँ मिल जाती थीं, इसी वजह से हेड मास्टर ने पॉलिटेक्निक की सलाह दी थी। चूँकि उन दिनों अच्छे नंबर लाने वाले ज्यादातर छात्रों की पहली पसंद इलेक्ट्रॉनिक्स होती थी हनमंत ने भी पॉलिटेक्निक कोर्स में इलेक्ट्रॉनिक्स हो ही अपना मुख्य विषय चुना।
पुणे के गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक कॉलेज के दिनों की भी कई सारी यादें हनमंत के मन को अब भी टटोलती रहती हैं। जब पॉलिटेक्निक कॉलेज के दिनों की बात हुई तो वे ये बताना नहीं भूले कि उन्हें किस साल कितने अंक मिले थे। गणित में तेज़ होने का एक और नमूना पेश करते हुए हनमंत ने बताया कि उन्हें पहले साल 72 फीसदी, दूसरे साल 74 फीसदी और तीसरे साल 72 फीसदी अंक मिले थे। पॉलिटेक्निक के वे दिन हनमंत इस वजह से भी नहीं भूल सकते हैं क्योंकि जब वे दूसरे साल में थे तब उनके पिता का निधन हो गया था। परिवार के लिए ये बहुत बड़ा सदमा था। इस दुखद घटना के बाद हनमंत ने आईएएस अफसर बनने के अपने पिता के सपने को साकार करने की कोशिश तेज़ कर दी थी।
पॉलिटेक्निक कोर्स पूरा करने के बाद हनमंत बीटेक की डिग्री हासिल करना चाहते थे। इसी दो बड़ी वजह थी - आईएएस अफसर बनने के लिए ग्रेजुएशन की डिग्री का होना ज़रूरी था और उन दिनों डिप्लोमा करने वाले कई विद्यार्थियों का अगला काम इंजीनीयरिंग कॉलेज में दाखिला लेना ही होता था। हनमंत को औरंगाबाद के गवर्नमेंट इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिल रहा था। लेकिन, माँ ने हनमंत से परिवार से दूर जाकर पढ़ाई न करने का अनुरोध किया था। इस अनुरोध के पीछे कई बड़े कारण थे- हनमंत के पिता उनके माता-पिता के एकलौते बेटे थे। पिता के निधन के बाद बूढ़े और बीमार दादा-दादी की ज़िम्मेदारी भी माँ पर आ गयी थी। हनमंत भी अपने माँ-बाप के बड़े लड़के थे और माँ उन्हें ही अपना सबसे बड़ा सहारा और ताकत मानती थीं। माँ को लगता था कि अगर हनमंत उनसे दूर चले जाएंगे तो वे अकेली पड़ जायेंगी। माँ के अनुरोध पर हनमंत ने पुणे में ही रहकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने का फैसला किया। उन दिनों निजी इंजीनियरिंग कालेजों की फीस इतनी ज्यादा थी कि हनमंत की माँ के लिए उसे जुटा पाना बेहद मुश्किल था, एक मायने में नामुमकिन।आसपास के इंजीनियरिंग कॉलेज वाले एडमिशन के लिए एक लाख रुपये की डोनेशन मांग रहे थे। डोनेशन से बचने के लिए हनमंत के शहर से कुछ दूर बने एक इंजीनियरिंग कॉलेज को चुना। माँ ने बेटे की इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पुणे म्युनिसिपल कोआपरेटिव बैंक के कर्ज लिया। हनमंत का दाखिला विश्वकर्मा इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी में हुआ, जोकि उनके मकान से करीब 20-21 किलोमीटर दूर था। रुपये बचाने के मकसद से हनमंत साइकिल पर कॉलेज जाते थे।
इंजीनियरिंग कॉलेज के दिनों में ही हनमंत ने घर-परिवार चलाने में माँ की मदद करने के मकसद से कमाने का फैसला भी लिया। हनमंत पढ़ाई में पहले से ही तेज़ थे और पॉलिटेक्निक डिप्लोमा के पाठ्यक्रम पर उनकी ज़बरदस्त पकड़ थी। उन्होंने डिप्लोमा कोर्स के छात्रों को टूइशन देनी शुरू की। हनमंत को उनके दोस्त योगेश आत्रे का साथ मिला था। दोनों मिलकर टूइशन पढ़ाते थे। इतना ही नहीं हनमंत ने एक एजेंसी ली और जैम, सौस भी बेचा।
हनमंत ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दिनों में ही मकानों की पेंटिंग करवाने का भी काम शुरू कर दिया था। पेंटिंग का काम शुरू करने के पीछे भी एक घटना थी। पिता के निधन के बाद उनके ग्रटूइटी की रकम माँ को मिली थी। इसी रकम के एक बड़े हिस्से से माँ ने पुणे में दो हज़ार स्क्वायर फीट का एक प्लाट खरीद लिया था और फिर इसी प्लाट पर दो कमरों का मकान बनवाया। मकान बनवाने के समय पेंटिंग के किये कारीगार और मजदूर हनमंत के गाँव से मंगवाए गए थे। जब मजदूर काम करने लगे तब हनमंत ने उनसे पेंटिंग से जुड़ीं सारी बातें जाननी और समझनी शुरू कीं। उन्होंने पेंटिंग से जुड़े हर पहलु को समझा। इससे जुडी मेहनत और इससे होने वाले कारोबार को भी जाना। गणित में तेज़ थे इसी वजह से हनमंत को जल्द एहसास हो गया कि मकानों और भवनों की रंगाई और पुताई के काम में मुनाफा ज्यादा है। अब उनका दिलो-दिमाग कारोबार की ओर बढ़ने लगा। हनमंत के मन में कारोबार के विचार ने बड़ी मजबूती से अपनी जगह बना ली। हनमंत ने अपने गाँव और आसपास के इलाकों के मजदूर मंगवाए। लोगों से उनके मकानों की पेंटिंग का ठेका लेकर उन्हें पूरा करवाने लगे। इससे उनकी आमदनी भी बढ़ने लगी। एक मायने में पेंटिंग के इसी काम से हनमंत एक उद्यमी बन गए थे। हनमंत ने कहा, “कोई भी चीज़ डीप में जाकर समझने का मुझे शौक है। जब तक मैं समझता नहीं तब तक मैं उसका फॉलो-अप करता हूँ। अगर चूना लगते हैं तो उस पर कितना खर्च आता है ? पांच किलो चूना लेकर आयेंगे या एक किलो, तो उसमें कितना एरिया कवर होता है? आयल बांड लगते हैं तो कैसे होता है? अगर आयल पेंट लगते हैं तो कितना खर्चा आता हैं? लस्टर लगाते हैं, प्लास्टिक लगाते हैं, वेलवेट पेंट लगाते हैं तो कितना खर्चा आता है? वो सब मैंने अपने से बराबर से समझ लिया था, हर एक चीज़ को। पहले वाल को घिसना है, उसके बाद प्राइमर लगाना है, उसके बाद दो पुट्टी के पेंट लगाने हैं, उसके बाद फिर घिसना है, फिर प्राइमर लगाना है, फिर उसको आयल पेंट या फिर कोई और पेंट से एक,दो,तीन हाथ देने हैं। और फिर रोलर फिनिश देना है। मुझे इस बात का भी अहसास हो गया कि पेंटिंग में 40 टका प्रॉफिट है। मैंने 20 से 30 टका एडवांस लेना शुरू किया और इसी रकम से मैं मटेरियल खरीदता था। जहाँ पेंटर को 100 रुपये मिलते थे मैं उन्हें सवा सौ या डेढ़ सौ रुपये देता था। अगर आपके पास तीन से चार पेंटर हैं तो आप हर महीने बीस से तीस हज़ार का काम करवा सकते हैं। इतने काम से आपको पांच से छह हज़ार का मुनाफा हो सकता है। मैंने ये काम शुरू किया और इससे मेरी साइड बिज़नेस होने लगी।”
इसी तरह की बातों से पता चल जाता है कि हनमंत राव गणित में कितने माहिर हैं। पेंटिंग के कारोबार को समझने के लिए उन्होंने जिस तरह आकलन किया और गणना की उसी तरह का काम करते हुए हनमंत आगे बढ़े। वे अब अलग-अलग कारोबार को इसी तरह से समझने लगे थे और नए अवसरों की तलाश में जुट गए।
हनमंत जब इंजीनियरिंग कॉलेज के फाइनल ईयर में थे तब उन्हें पता चला था कि राष्ट्रीय खेल के लिए बालेवाड़ी स्टेडियम में काम चल रहा है। उन्हें बालेवाड़ी स्टेडियम के काम में अपने लिए कमाई का एक बहुत बड़ा मौका नज़र आया। हनमंत तन-मन-धन लगाकर बालेवाड़ी स्टेडियम से जुड़ा काम पाने में जुट गए। उन्हें काम मिला भी और इसे पूरा करवाकर सरकार से रुपये लेने में काफी मशक्कत भी करनी पड़ी थी। इस काम में हनमंत इतना तल्लीन हो गए थे कि वे अपने आखिरी साल के पहले सेमेस्टर में कई पेपर के एग्जाम भी नहीं दे पाए। लेकिन, बाद में सारे बचे पेपर के एग्जाम लिखकर सभी में पास हुए।
इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान हनमंत के जीवन में बहुत बड़े बदलाव आये। ज़िंदगी ने नया रास्ता पकड़ा। ज़िंदगी के मायने बदले और नया लक्ष्य तय हुआ। इसकी बड़ी वजह थी हनमंत पर छत्रपति शिवाजी महाराज और स्वामी विवेकानंद के जीवन और उनके विचारों का प्रभाव।छत्रपति शिवाजी महाराज और स्वामी विवेकानंद छात्र-जीवन में ही हनमंत के ‘आदर्श’ बन गए थे। हनमंत ने बताया कि उनके पिता उन्हें तिलक स्मारक मंदिर ले जाते थे। इसी जगह पर हनमंत ने शिवाजी राव भोंसले के व्याख्यान सुने थे। शिवाजी राव भोंसले ने जिस तरह से छत्रपति शिवाजी महाराज और स्वामी विवेकानंद के बारे में बताया था उसका हनमंत के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा और हनमंत भारत की इन दो महान हस्तियों के बताये रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित हुए।
हनमंत ने हमें कॉलेज के दिनों की वो घटना भी सुनायी जिसने उन्हें लोगों की मदद करने और जीवन में कुछ नया और बड़ा करने के लिए प्रोत्साहित किया था। हनमंत ने बताया, “ पिताजी को मेरे कपड़ों को शौक था। उन्होंने थ्री पीस सूट सिलाए थे, दो। जाने से पहले सिलाई को डाले थे। और, पिताजी के जाने के बाद मैं टेलर से वो सूट लेकर आया था। अभी भी हमारे घर में पड़े हैं वो सूट । तब मैंने देखा कि आदमी अपने साथ तो कुछ लेकर नहीं जाता है, तब मैंने सोचा अलग करेंगे ज़िन्दगी में। विवेकानंदजी की प्रेरणा से मैंने सोचा कि कुछ अलग करूँगा ज़िंदगी में। और, मैंने भारत विकास प्रतिष्ठान का निर्माण किया।” 19 साल की उम्र से ही हनमंत के लोगों की मदद करनी शुरू कर दी थी। हनमंत ने समाज-सेवा के मकसद से ‘भारत विकास प्रतिष्टान’ की स्थापना की थी। अपनी इसी संस्था के ज़रिये हनमंत ने ज़रूरतमंद और गरीब विद्यार्थियों की आर्थिक रूप से मदद करनी भी शुरू की। वे कहते हैं, “जिन लोगों के पास पढ़ने-लिखने के अवसर नहीं थे मैंने उन्हें 100 रुपये या 200 रुपये देकर मदद करना शुरू किया।”
इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होते ही हनमंत को टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी यानी टेल्को में नौकरी मिल गयी। इन दिनों टेल्को टाटा मोटर्स के नाम से लोकप्रिय है। टेल्को में काम करते हुए हनमंत की ज़िंदगी को नए आयाम मिले। उन्हें नए-नए मौके मिले जिनका उन्होंने भरपूर फायदा उठाया और तरक्की की। हनमंत ने टेल्को के कबाड़खाने में सालों से पड़े केबल वायर को दुबारा काम में लाने के तरीके ढूंढ निकाले थे। ये बड़ा काम उन्होंने कंपनी के एक दूसरे कर्मचारी गणेश लिमये की मदद से किया था। केबल के दुबारा इस्तेमाल में लाये जाने से टेल्को को करोड़ों का फायदा हुआ। नयी सोच और नए तरीके से काम करते हुए हनमंत ने जिस तरह से कंपनी को फायदा पहुँचाया था उसकी चर्चा हर तरफ होने लगी थी। एक निचले स्तर के कर्मचारी द्वारा अपनी सूझ-बूझ से कंपनी को करीब ढाई करोड़ का फायदे पहुँचाने की बात कंपनी के आला अधिकारियों तक भी पहुँची। हनमंत को खूब शाबाशी मिली, वाहवाही की गयी। टेल्को के वाइस प्रेसिडेंट ने भी हनमंत की जमकर तारीफ की और पूछा कि कंपनी उनके लिए क्या कर सकती है। हनमंत ने बताया,“वाइस प्रेसिडेंट नाड साहब ने मुझसे कहा था – बेटा तुम बहुत अच्छा कर रहे हो, तुमने कंपनी के फायदे के बारे में सोचा है, बताओ कंपनी तुम्हारे लिए क्या कर सकती है। मैंने नाड साहब से कहा था कि गाँव के कुछ लड़के नौकरी की उम्मीद लेकर मेरे पास आये हैं, आप उन्हें नौकरी पर रख लीजिये।” उन दिनों कोरेगांव के लोगों को लगता था कि हनमंत बड़ी कंपनी में बड़े ओहदे पर काम कर रहे हैं और वे उन्हें भी कंपनी में नौकरी दिलवा सकते हैं। हनमंत से मदद की उम्मीद लिए कुछ लोग गाँव से पुणे आये हुए थे। इन्हीं युवकों को नौकरी देने का अनुरोध हनमंत ने वाइस प्रेसिडेंट से किया था। वैसे तो हनमंत अपने आला अफसर से कुछ भी मांग सकते थे लेकिन उन्होंने अपने गाँव के बेरोजगार युवकों के लिए नौकरी माँगी थी। ये पूछे जाने पर कि ये युवक क्या काम कर सकते हैं तब हनमंत ने बताया था कि उनके गाँव के लोग हेल्पर का काम कर सकते हैं। हनमंत ने पहले भी लोगों से पेंटिंग का काम करवाया था और उन्हें उम्मीद थी कि वे टेल्को भी अपने गाँव के लोगों से हेल्पर का काम करवा सकते हैं। लेकिन, कंपनी के आला अधिकारियों ने साफ़ कह दिया था कि कर्मचारी होने की वजह से हनमंत को कोई कॉन्ट्रैक्ट नहीं दिया जा सकता है। लेकिन, कंपनी के अधिकारियों ने ही हनमंत को ये सुझाव दिया कि किसी संस्था के ज़रिये उनके गाँव के लोगों को काम पर लगाया जा सकता है। जैसे ही संस्था की बात कही गयी हनमंत के दिमाग की बत्ती तुरंत जली और उन्होंने अपनी बनाई संस्था भारत विकास प्रतिष्ठान के ज़रिये गांववालों को रोज़गार दिलवाने का फैसला कर लिया। उन्हीं दिनों टेल्को में इंडिका कार का प्लांट चालू हुआ था और इसी प्लांट के लिए भारत विकास प्रतिष्ठान को उसका पहला कॉन्ट्रैक्ट मिला था।
कॉन्ट्रैक्ट को सही तरह से एक्सक्यूट करने की ज़िम्मेदारी हनमंत ने अपने पुराने साथी उमेश माने को सौंपी थी। बातचीत के दौरान हनमंत ने अपने दोस्त उमेश माने की भी जमकर तारीफ की। हनमंत ने बताया कि वे उमेश माने को बचपन से जानते थे। उमेश हनमंत से कुछ साल बड़े थे। उमेश की ‘दादागिरी’ से हनमंत बहुत प्रभावित थे। हनमंत को लगता था कि उमेश किसी से भी कुछ भी काम करवा सकते हैं। इसी वजह से हनमंत ने उमेश को भारत विकास प्रतिष्ठान से जुड़ने को कहा था। उमेश को हनमंत की काबिलियत पट इतना विश्वास था कि उन्होंने बैंक की अच्छी-खासी नौकरी छोड़ दी और भारत विकास प्रतिष्ठान से जुड़ गए। जनवरी, 1997 में उमेश ने हनमंत की संस्था के साथ खुद को जोड़ लिया था। यानी भारत विकास प्रतिष्ठान को पहला कॉन्ट्रैक्ट मिलने से पांच महीने पहले ही उमेश संस्था से जुड़ गए थे। इंडिका प्लांट में पहले दो साल तक उमेश की देख-रेख में ही भारत विकास प्रतिष्ठान का काम हुआ था।
इंडिका प्लांट के इसी कॉन्ट्रैक्ट से शुरू हुई थी हनमंत के एक कामयाब उद्यमी और कारोबारी बनने की कहानी। इस कॉन्ट्रैक्ट ने हनमंत के विकास को तेज़ रफ़्तार दी। कामयाबी की राह पर हनमंत तेज़ी से आगे बढ़ते चले गए। 22 मई, 1997 को हनमंत के भारत विकास प्रतिष्ठान को ये कॉन्ट्रैक्ट मिला था। संस्था को पहले साल 8 लाख, दूसरे साल 30 लाख और तीसरे साल करीब 60 लाख की आमदनी हुई।
इसी दौरान 1999 में हनमंत की शादी भी हुई और भारत विकास प्रतिष्ठान की आमदनी से उत्साहित हनमंत ने नौकरी छोड़ देने और अपना पूरा ध्यान कारोबार में लगाने का मन बना लिया। लेकिन, जैसे ही हनमंत ने नौकरी छोड़ने के अपने विचार को घरवालों से साझा किया माँ गुस्सा हो गयीं। माँ के विरोध के पीछे भी कई कारण थे। एक तो नौकरी अच्छी थी और पक्की भी। घर से दफ्तर भी ज्यादा दूर नहीं था। कई सारी सहूलियतें थीं। हनमंत की शादी हुए भी ज्यादा दिन नहीं हुए थे। और तो और, परिवार की सात पीढ़ियों में किसी ने भी कारोबार नहीं किया था। बेटे के नौकरी छोड़ने के ख्याल ने माँ को बड़ा झटका दिया था। माँ को मनाने के लिए हनमंत को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। हनमंत ने माँ को मनाने के लिए कुछ ‘वचन’ दिए थे। हनमंत ने बताया, “ माँ को मैंने यही बोला था कि तुमने मुझे देखा है, 1990 से मैं कमा रहा हूँ। दस साल हो गए हैं मैं कमा रहा हूँ। ये आठ घंटे की ड्यूटी करके ठीक नहीं रहेगा। मैं नौकरी और बिज़नेस दोनों के साथ जस्टिस नहीं कर पा रहा हूँ। न नौकरी में मन लगता है और न बिज़नेस ठीक से कर पा रहा हूँ। तुमने देखा है कि मैं पैसे कमा रहा हूँ और अच्छे से कमा रहा हूँ। मैंने माँ को वचन दिया - मैं कोई गलत काम नहीं करूंगा। झूठ नहीं बोलूंगा। ऐसा कोई काम नहीं करूँगा जिससे तुम्हारे और पिताजी के नाम को बट्टा लगे।” बेटे के ये भावुक वचन सुनने के बाद माँ का मन पिघल गया और उन्होंने हनमंत को नौकरी छोड़ने और कारोबार करने की इज़ाज़त दे दी।
हनमंत ने माँ से आशीर्वाद लिया और अपना तन-मन-धन-समय सब कुछ कारोबार में लगा दिया। हनमंत ने भारत विकास प्रतिष्ठान का नाम बदलकर भारत विकास सर्विसेज कर दिया, यानी संस्था ने अलग-अलग जगह, अलग-अलग लोगों और संस्थाओं को अलग-अलग सेवाएं देना शुरू किया। समय की मांग के अनुसार हनमंत ने साफ़-सफाई करने वाली आधुनिक मशीनें खरीदनी शुरू की। इन मशीनों ने भी भारत विकास सर्विसेज के कार्य-क्षेत्र को विस्तार दिया। हनमंत के नेतृत्व में कर्मचारियों ने न सिर्फ भवन, दफ्तर और मकान चमकाए बल्कि अपने साथ-साथ कंपनी का नाम भी खूब रोशन किया। भारत विकास सर्विसेज के काम की चर्चा देश के कोने-कोने में होने लगी। संस्था की ख्याति हर तरफ फैलनी शुरू हुई।
साल 2004 में भारत विकास सर्विसेज को एक ऐसी ज़िम्मेदारी मिली जिससे उसकी लोकप्रिय को चार चाँद लगे। इसी साल भारत विकास सर्विसेज को भारतीय संसद की यांत्रिक सफाई का काम मिला। इस काम के लिए निविदाएं आमंत्रित की गयी थीं, जिसके बाद ठेका भारत विकास सर्विसेज को मिला था। आगे चलकर प्रधानमंत्री के निवास और दफ्तर में हाउस कीपिंग का काम भी हनमंत की संस्था को ही मिला। बड़े-बड़े काम मिलने का जो सिलसिला शरू हुआ वो कभी नहीं थमा। हनमंत की संस्था ने दिन दुगुनी रात चौगुनी तरक्की करनी शुरू की। ग्राहकों की संख्या लगातार बढ़ती चली गयी। देश के बड़े-बड़े संसथान हनमंत की कंपनी के क्लाइंट बने। सरकारी भवन, रेल गाड़ियां, रेलवे स्टेशन, एअरपोर्ट, कॉर्पोरेट भवन, मंदिर जैसे स्थानों की देख-रेख और साफ़-सफाई की ज़िम्मेदारी हनमंत की संस्था को सौंपी गयी। क्लाइंट जिस तरह की सेवा चाहता, हनमंत की संस्था उस तरह की सेवा देने को तैयार हो जाती। अलग-अलग सेवा देने के लिए अलग-अलग संस्था बनाई गयीं। इन्हीं संस्थाओं के समूह का नाम पड़ा भारत विकास ग्रुप।
हनमंत की बनाई संस्था भारत विकास ग्रुप ने भारत में विकास की बेमिसाल कहानी लिखी है। बड़ी बात है कि भारत विकास ग्रुप ने विदेश में भी काम करना शुरू कर दिया है। दुनिया के अलग-अलग देशों में भारत विकास ग्रुप अलग-अलग योजनाएँ और परियोजनाएं चला रहा है। अगस्त, 2016 में भारत विकास ग्रुप के कर्मचारियों की संख्या 65 000 को पार कर गयी। भारत विकास ग्रुप देश के 20 राज्यों में 800 से ज्यादा स्थानों पर अपनी सेवाएं अलग-अलग संस्थाओं को दे रहा है। बड़ी बात ये भी है कि भारत विकास ग्रुप लगातार तेज़ी से बढ़ रहा है, और उसके कार्य-क्षेत्र का विस्तार भी बड़े पैमाने पर हो रहा है। संस्था की आगे की विकास-यात्रा के मार्ग की भी पहचान कर ली गयी है, यानी रोड-मैप तैयार है।
भारत विकास ग्रुप के जनक हनमंत राव गायकवाड अपनी भविष्य की योजनाओं और लक्ष्यों के बारे में जानकारी साझा करने में कोई हिचकिचाहट नहीं करते। बचपन की तरह ही वे अब भी गणित में माहिर हैं और पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि 2027 में भारत विकास ग्रुप के लिए काम करने वाले लोगों यानी कर्मचारियों की संख्या 10 लाख को पार कर जाएगी। उनका सपना है अपने जीवनकाल में कम से कम 10 करोड़ लोगों की प्रगति में सहायक बनना। हनमंत राव गायकवाड पूरी तरह आश्वस्त हैं कि वे अपने लक्ष्य को हासिल करने और सपने को साकार करने में कामयाब होंगे।
एक सवाल के जवाब में हनमंत ने कहा, “मैं दुनिया में एक समाज-सेवी की तरह पहचान रखना चाहता हूँ। मैं कारोबार तो करता हूँ, लेकिन मेरा मकसद समाज की सेवा करना है। मैं देश के विकास में अपनी भूमिका निभाना चाहता हूं।” अपनी इस बात का वजन बढ़ाने के मकसद से हनमंत ने ये भी कहा, “मैं जब उन्नीस साल का था तब मैंने भारत विकास प्रतिष्ठान की शुरू की थी। उस समय मेरा मकसद लोगों की मदद करना था, कारोबार करना नहीं। आज भी मेरा सबसे बड़ा मकसद यही है। मेरी संस्था को लोग बीवीजी इंडिया के नाम से जानते हैं। कई लोग हैं जो ये नाम सुनकर समझते है कि 'जी' से गायकवाड है और 'बीजी' मेरा नाम है। लेकिन आप को तो मालूम ही है बीवीजी यानी बीवी गायकवाड नहीं बल्कि भारत विकास ग्रुप है। मैंने दूसरों की तरह अपने नाम पर कंपनी नहीं खोली, मेरा मकसद बस लोगों की मदद करना है।”
कामयाबी के राज़ की बाबत पूछे गए एक सवाल के जवाब में हनमंत ने कहा, “मैंने अपने आप को कभी भी किसी के साथ कम्पेर नहीं किया। न बचपन में किया न अभी करता हूँ। बस एक ही बात मन में रहती है – अपने आप को साबित करना है, अलग हूँ,हटके हूँ ये दिखाना है। स्कूल और कॉलेज में यही सोचता था कि जितनी पढ़ाई की है उतने मार्क्स आने चाहिए। मैंने ये नहीं देखा कि मैं फर्स्ट आया हूँ ,सेकंड या थर्ड। आज भी ऐसे ही सोचता हूँ। जितनी मेहनत करता हूँ उसका उतना नतीजा निकल रहा है या नहीं। बस इसी बात से प्रेरणा लेता हूँ कि अलग करना है, लोगों की मदद करनी है।” उन्होंने ये भी कहा,“मैं नहीं समझता कि दूसरों को देखकर कोई बहुत दूर जा सकता है। हर एक को अपने अन्दर झांकना चाहिए। अपनी ताकत क्या है, इसका पता लगाना चाहिए। आईडिया चुनने के बाद कैसे एक्सेल करना है यही सोचना चाहिए। मेरे पिता कहते थे कि अगर तुम्हें मिठाईवाला बनना है तो ऐसी मिठाइयों बनाओ जिससे दुनिया तुम्हारे पास आये। हल्दीराम का उदहारण हमारे सामने है। एक्सीलेंस पाने की कोशिश आपको कामयाब बना सकती है।”
ये पूछे जाने पर कि क्या वे खुद को मुक्कदर का सिकंदर मानते हैं या फिर मेहनत, लगन और संघर्ष को अपनी कामयाबी की वजह मानते हैं, हनमंत के कहा, “मैं किस्मत को मानता हूँ, किस्मत कितनी होती है ये मैं नहीं जानता। अगर आप जामुन के पेड़ के नीचे बैठेंगे और ये सोचेंगे कि जामुन का रस सीधे आपके मूंह में आकर गिरेगा तो आप गलत हैं। आपको जामुन का रस पाने के लिए पेड़ हो हिलाना पड़ेगा,यानी मेहनत करना ज़रूरी है। किस्मत का नाम लेकर बैठे रहने से कुछ नहीं होता।” इसी संदर्भ में हनमंत ने ये भी कहा, “ भगवान ने मुझे बहुत कुछ दिया है। मैं दिल साफ़ रखकर काम करता हूँ। न कभी कोई गलत काम किया है न करूंगा। दिन भर जब काम कर रात को बिस्तर पर जाता हूँ तो आराम से नींद आती है। यही मैं अपनी सबसे बड़ी कामयाबी मानता हूँ। बस सपना यही है – लाखों लोगों का फायदा करना चाहता हूँ, करोड़ों लोगों तक पहुंचना चाहता हूँ।”
हनमंत को अपने जीवन में कई बार निंदा सहनी पड़ी और अपमान के घूँट भी पीने पड़े। वे जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे तब उन्हें राष्ट्रीय खेल के लिए सज-संवर रहे बालेवाड़ी स्टेडियम में काम मिलने की उम्मीद थी। कई सारी उम्मीदें लिए, कई सारे सपने संजोये वे कलेक्टर ऑफिस जाते थे। सुबह से शाम तक वे कलेक्टर ऑफिस में ही बैठे रहते, इस उम्मीद के साथ कि कलेक्टर उन्हें बुलाएंगे। कलेक्टर जानते भी थे कि हनमंत बाहर बैठे उनके बुलावे का इंतज़ार कर रहे हैं। लेकिन, कलेक्टर ने उन्हें नहीं बुलाया। अपने दफ्तर के अन्दर-बाहर आते जाते समय कलेक्टर ने देखा था कि हनमंत इंतज़ार कर रहे हैं तब भी उन्होंने नहीं बुलाया। इसी तरह की घटनाएं हनमंत के साथ कई बार हुईं। वे उदास तो हुए, निराश भी लेकिन अपना धैर्य कभी नहीं खोया, उम्मीद जिंदा रखी, साहस बनाये रखा। मानसिक तौर पर भी मजबूर बने रहे। वे कहते हैं, “अगर कोई मेरी निंदा करे तो भी मैं उसको पाज़िटिव्ली लेता हूँ। कोई मेरा अपमान करे तो ये समझता हूँ कि उसे मेरे महत्त्व के बारे में पता नहीं है। कांच और हीरा एक जैसे दिखते हैं, दोनों में फर्क करना मुश्किल है। आपको ही ये साबित करना है कि आप हीरा हैं। कुछ लोग नहीं समझ पाते कि कौन-सा हीरा है और कौन-सा कांच। मैं ऐसे लोगों को दोष नहीं देता।”
जिस तरह से हनमंत ने कामयाबी की कहानी लिखी है उसे पढ़कर, सुनकर कई लोग प्रेरणा लेते हैं। हनमंत को अपनी कहानी और अपनी कामयाबी के मंत्र लोगों के सामने सुनने के लिए कई संस्थाएं सभाओं और समारोहों का आयोजन करती हैं। जब कभी मौका मिलता है हनमंत लोगों के बीच जाकर भाषण देते हैं, व्याख्यान देते हैं और लोगों को कुछ बड़ा, अच्छा और नया करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित भी करते हैं।
वे ये कहने से भी पीछे नहीं चूकते कि एक आदमी सब कुछ नहीं कर सकता है। अच्छा लीडर बनने के लिए अच्छी और भरोसेमंद टीम बनानी ज़रूरी होती है। ख़ास बात ये है कि जीवन में जो कोई भरोसेमंद और प्रतिभाशाली लगा हनमंत ने उन्हें भारत विकास ग्रुप से जोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मजबूत टीम बनाई और टीम के हर सदस्य को मजबूत भी किया। वे अपनी टीम को अपना परिवार कहते हैं। वे कहते हैं, “अच्छा दिमाग वाले लोग तो बहुत मिल जाएंगे, लेकिन अगर किसी संस्था को ग्लोबल बनाना है तो काम करने वाले लोग चाहिए। ऐसे लोग चाहिए जिन पर भरोसा किया जा सके। ऐसे लोग चाहिए को आपके सपने को समझते हैं, उसको पूरा करने में आपकी मदद कर सकते हैं।”