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नवाबों की सरजमीं पर खत्म होते गांव

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में खेत-खलिहान की जगह लेते कंक्रीट के जंगल...

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के समीप स्थित सैकड़ों गांवों का वर्तमान इतना डरावना है कि भविष्य में गांवों की संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज और पूर्वजों की धरोहर की कल्पना भी करना मुश्किल है। इस अंधे विकास की राह में खेत-खलिहान, तालाब, कुंआ, चकरोड या फिर हरे-भरे पेड़-पौधे ही क्यों न हों, जो कुछ भी आया उसका वजूद समाप्त कर दिया गया। बड़े पैमाने पर कृषि भूमि सरकारी तथा प्राइवेट आवासीय कालोनियों के लिए अधिग्रहित कर ली गई हैं। वहीं निजी क्षेत्र के लोग भी पीछे नहीं हैं। यह एग्रीमेन्ट के सहारे कृषि भूमि पर आवासीय भूखण्डों की खरीद-फरोख्त में लगे हैं।

सांकेतिक तस्वीर (साभार- शटरस्टॉक)

सांकेतिक तस्वीर (साभार- शटरस्टॉक)


कुछ अरसे पहले तक जिन खेतों में फसले लहलहाती थी, अब इनमें कभी हल नहीं जोता जायेगा, न बीज बोये जायेंगे और न ही पानी लगाया जाएगा। अब यहां बुलडोजर, पुकलैंड और जेसीबी मशीनों का शोर सुनायी देता है। अब यहां की हरियाली का स्थान कंक्रीट के जंगल लेने को उत्सुक हैं, तो वहीं गांव, खेत और खलिहान अपना अस्तित्व खोने पर व्याकुल हैं। 

भारत को गांवों का देश कहा जाता है । गांव हमारी संस्कृति के जाग्रत द्वीप हैं। ग्राम, ग्राम्य देवता, ग्राम्य संस्कृति, ग्राम्य संस्कार सम्मलित होकर उस भारत का निर्माण करते हैं, जहां से गांधी का अहिंसक आंदोलन जन्मा, जिसने शहीद-ए –आज़म भगत सिंह को बंदूकों की खेती का भाव दिया, जिसने मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में वंचना की अथाह पीड़ा के साथ-साथ सहजीवन और सह अस्तित्व के संस्कारों का रस भरा। सुपर हिट फिल्म उपकार का गाना, मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती भी इसी का प्रशस्ति गान है।

कभी इन्ही गांवों के बारे में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत की आत्मा यहीं बसती है। विडंबना है कि भारत की आत्मा का शरीर सिकुड़ने लगा है, कम से कम यह बात मुल्क की सबसे बड़ी रियासत उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के विषय सही साबित होती है। यहां के गांव, खेत और खलिहान अब कहानी बनने की कगार पर खड़े हैं। राजधानी के समीप स्थित गांवों के अस्तित्व पर खतरे के बादल कुछ इस तरह से मंडरा रहे हैं कि जनपद की पांच तहसीलों में कृषि भूमि सहित ग्राम समाज की बंजर, चारागाह, तालाब, पोखर और चकरोड आदि भूमि पर गगनचुम्बी इमारतों की फसलें लहलहा रही हैं।

कुछ अरसे पहले तक जिन खेतों में फसले लहलहाती थी, अब इनमें कभी हल नहीं जोता जायेगा, न बीज बोये जायेंगे और न ही पानी लगाया जाएगा। अब यहां बुलडोजर, पुकलैंड और जेसीबी मशीनों का शोर सुनायी देता है। अब यहां की हरियाली का स्थान कंक्रीट के जंगल लेने को उत्सुक हैं, तो वहीं गांव, खेत और खलिहान अपना अस्तित्व खोने पर व्याकुल हैं। एक पूर्व किसान ने बताया कि 'कुछ वर्षों पहले जिन खेतों में फसलें होती थी, वहां ऊंची-ऊंची इमारतें खड़ी हैं। आने वाले कुछ वर्षों में खेत-खलिहान हियां दिखायी न देहे। बस नाम के बचिहय गांव। अब जिनके पास खेती के लिए जमीन ही नहीं रही, तो ऐसे लोग यहां रहकर क्या करें?

उत्तर प्रदेश की राजधानी के समीप स्थित सैकड़ों गांवों का वर्तमान इतना डरावना है कि भविष्य में गांवों की संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज और पूर्वजों की धरोहर की कल्पना भी करना मुश्किल है। इस अंधे विकास की राह में खेत-खलिहान, तालाब, कुंआ, चकरोड या फिर हरे-भरे पेड़-पौधे ही क्यों न हों, जो कुछ भी आया उसका वजूद समाप्त कर दिया गया। बड़े पैमाने पर कृषि भूमि सरकारी तथा प्राइवेट आवासीय कालोनियों के लिए अधिग्रहित कर ली गई हैं। वहीं निजी क्षेत्र के लोग भी पीछे नहीं हैं। यह एग्रीमेन्ट के सहारे कृषि भूमि पर आवासीय भूखण्डों की खरीद-फरोख्त में लगे हैं।

राजधानी के रायबरेली रोड, सुल्तानपुर रोड, कानपुर रोड, फैजाबाद रोड, देवा रोड, हरदोई रोड, सीतापुर रोड और मोहान रोड पर आवास विकास परिषद, लखनऊ विकास प्राधिकरण सहित अन्य प्राइवेट बिल्डरों की दर्जनों आवासीय परियोजनायें प्रस्तावित हैं। प्लाटिंग के धंधे में लगे निजी क्षेत्र के लोग सरकार के भूमि अधिग्रहण से भी दो कदम आगे जाकर तालाब, पोखर, कृषि भूमि, चारागाह और आम के बागों के वजूद को मिटाकर कंक्रीट के जंगल को विस्तार देने वाली प्लाटिंग कर रहे हैं। बीते वर्ष जनपद की पांचो तहसीलों में सरकारी स्वामित्व वाली ऐसी ही लगभग 2,226 हेक्टेयर जमीन चिन्हित की गयी, जिस पर अवैध कब्जेदार काबिज थे।

ग्राम समाज की यह भूमि अभिलेखों में चारागाह, पशुचर, तालाब, कब्रिस्तान और बंजर के नाम दर्ज है। बीते दिनों इस जमीन को चिन्हित कर अवैध कब्जे से मुक्त कराने के लिए चलाये गये अभियान में जिला प्रशासन ने लगभग 552 हेक्टेयर अर्थात 2,200 बीघे जमीन को कब्जामुक्त कराया है। बाजार में इस भूमि की कीमत 1,720 करोड़ रुपये आंकी गयी है। लेकिन मोहनलालगंज, बीकेटी, सरोजनीनगर, सदर और महिलाबाद तहसील में अब भी बड़े पैमाने पर ग्राम समाज तथा कृषि योग्य भूमि पर अवैध कब्जे बरकरार हैं।

खाली पड़ी सरकारी भूमि पर फिर से कब्जा न हो, इसके लिए अब जिला प्रशासन सख्त मोड में आने का दावा कर रहा है। अब योजना बनायी गयी है कि सम्बन्धित तहसीलदार अपने-अपने क्षेत्रों में कब्जा मुक्त कराई गई भूमि के आधार पर टॉप-20 अवैध कब्जेदारों की सूची तैयार करेंगे और इनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज करवायेंगे। जिला प्रशासन ने गांवों और खेत-खलिहान का वजूद मिटाने वाले अवैध कब्जों को हटाकर अपने होने का एहसास जरुर कराया है, लेकिन यह प्रयास 'ऊंट के मुंह में जीरा जैसा ही साबित हुआ है, क्योंकि अभी कई गांवों के खेत-खलिहान शहरीकरण की बलि बेदी पर कुर्बान हो रहे हैं।

अंधी विकास की इस आंधी में राजधानी को अन्य जनपदों से जोडऩे वाले राजमार्गों के सैकड़ों गांवों के हजारों किसानों का वजूद जमीन से ऐसे उखाड़ा गया कि चाहते या न चाहते हुए भी इन्हें अपने खेत-खलिहानों से हाथ धोना पड़ा है। नतीजतन, बड़ी तादाद में किसान भूमिहीन हो गये हैं। भूमिहीन होने का दर्द लगातार इन्हें सता रहा है। छोटे काश्तकार भविष्य को लेकर अधिक चिन्तित हैं। इनके चेहरों पर चिन्ता की लकीरे गहरी हो चली हैं। ऐसे में जीवन-यापन के लिए यह कृषि मजदूर बनने को मजबूर हैं या फिर दिहाड़ी के लिए शहरों की ओर पलायन करने का दंश झेलने को विवश हैं।

वहीं ऐसे भी ग्रामीणों की संख्या कम नहीं है जो मुआवजे की रकम से राजधानी के समीपवर्ती जनपदों में कृषि भूमि तलाश रहे हैं। शहीद पथ से नगराम रोड पर स्थित गांव सेमई के स्थानीय निवासियों की जमीनें आवास विकास परिषद ने अपनी आवासीय परियोजनाओं के लिए अधिग्रहित की, लेकिन कई किसान ऐसे भी हैं जिन्हें लम्बे समय बाद भी मुआवजा नसीब हो सका है। वहीं कुछ ऐसे भी हैं जिनके मुआवजे की फाइल अभी भी परिषद के बाबुओं की मेजों पर धूल फांक रही हैं। कुछ ऐसा ही हाल कल्ली पश्चिम क्षेत्र के अमोल ग्रामवासियों का भी है। इन्हें भी अपनी जमीन, गांव और पूर्वजों की धरोहर समाप्त होने का खौफ लगातार सता रहा है।

निकट भविष्य में राजधानी के सीमावर्ती क्षेत्रों के शायद ही किसी गांव का वजूद शेष रहे ? ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जब कृषि भूमि ही नहीं होगी तो इन परिस्थितियों में बेचारा किसान क्या करेगा? कहां बसेंगे ग्राम्य देवता ? बेघर हो जाएगी भारत की आत्मा!

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