सस्ते हास्य-व्यंग्य ने कवि-सम्मेलन के मंचों को बिगाड़ा
गीत-कवि माहेश्वर तिवारी के जन्मदिन पर विशेष...
एक जमाने में कवि-सम्मेलन के मंचों से पूरे देश में लाखों श्रोताओं को झूमने के लिए विवश करते रहे देश के प्रतिष्ठित गीत-कवि माहेश्वर तिवारी का सृजन-कर्म आज बुजुर्गावस्था में भी थमा नहीं है। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान सहित शताधिक संस्थाओं से सम्मानित देश के प्रतिष्ठित गीत-कवि माहेश्वर तिवारी का 22 जुलाई को जन्मदिन होता है।
माहेश्वर तिवारी कहते हैं कि गीत में जो राग चेतना थी, उसमें भी परिवर्तन हुआ। परंपरावादी में या तो हम रहस्यवादी हो जाते थे या परकीया प्रेम का ज्यादा संकेत मिलता है। नवगीत में पहली बार दांपत्य प्रेम का विषय बना।
एक जमाने में कवि-सम्मेलन के मंचों से पूरे देश में लाखों श्रोताओं को झूमने के लिए विवश करते रहे देश के प्रतिष्ठित गीत कवि माहेश्वर तिवारी का सृजन-कर्म आज बुजुर्गावस्था में भी थमा नहीं है। 'हरसिंगार कोई तो हो', 'नदी का अकेलापन', 'सच की कोई शर्त नहीं', 'फूल आए हैं कनेरों में' आदि उनके प्रमुख नवगीत-संग्रह हैं। कविसम्मेलन के मंचों की गिरावट पर विक्षुब्ध होते हुए कवि तिवारी कहते हैं कि एक समय में कविसम्मेलन सुपठनीय पत्रिका जैसे होते थे। मंचों पर साहित्य के शिक्षक जैसे महाकवि होते थे। वे जो लिखते थे, वही मंचों पर सुनाते थे। अलग से कुछ नहीं लिखते थे। श्रोता सिर्फ कविता सुनने आता था। इससे कविता का संवाद बनता था। हास्य के नाम पर भी भड़ैती नहीं होती थी। जब से टीवी पर रियलिटी शो आने लगे, मंचों पर भांड़ आ गए हैं। विचित्र स्थिति है कि कई महत्वपूर्ण रचनाकार भी वैसे मंचों पर जाकर चुप बैठ जाते हैं।
'आज गीत गाने का मन है।
अपने को पाने का मन है।
अपनी छाया है फूलों में,
जीना चाह रहा शूलों में,
मौसम पर छाने का मन है।
नदी झील झरनों सा बहना,
चाह रहा कुछ पल यों रहना,
चिड़िया हो जाने का मन है।'
वह बताते हैं कि कविसम्मेलन की परंपरा बाद में शुरू हुई। श्रीनारायण चतुर्वेदी, गया प्रसाद शुक्ल सनेही, गोपाल प्रसाद व्यास आदि ने आधार दिया, जिससे हिंदी के विकास को गति मिली। उस समय के मंच कवियों के लिए अलग मन-मिजाज के माध्यम नहीं थे। मंचों के लिए वह अलग से कुछ नहीं लिखते थे। मैंने कभी दो तरह की कविताएं नहीं लिखीं कि मंच के लिए अलग, साहित्य के लिए अलग। हमारा धर्म यही है, साहित्य की संरक्षा का प्रयास करें। अब वैसा नहीं है। मंचों पर गिरावट तो आई है। क्रिस्टॉफर कॉडवेल ने कहा था कि पैसा सबसे पहले व्यक्ति को अनैतिक बनाता है। पैसे ने मंच पर भी वही काम किया है। रचनाकरों को सृजनधर्म के स्थान पर धनोपार्जन का माध्यम बना दिया।
कविसम्मेलन थ्री-टायर होते हैं- मंच, कवि और श्रोता। पहले आयोजक भी साहित्य मर्मज्ञ होते थे। आश्चर्य होगा कि हंसकुमार तिवारी जैसे लोग किसी जमाने में कविसम्मेलनों का आयोजन किया करते थे। इसी तरह सनेहीजी, श्रीनारायण चतुर्वेदी जैसे विद्वानों का मंचों को संबल था। बाद में भी गंभीर साहित्य की अभिरुचि के लोग जुड़े रहे। दूसरी चीज ये थी कि कवि अपनी साहित्यिक रचनाओं का ही पाठ करते थे। श्रोता मंचों से सिर्फ कविता ही सुनने जाता था, मनोरंजन करने नहीं। वह माध्यम समझता था। उससे कविता का संवाद बनता था। ये कविता का काम था। वह हमको संस्कारित करती थी, मनोरंजन नहीं, अनुरंजन करती थी, आनंद देती थी।' माहेश्वर तिवारी के 'टूटे खपरैल-सी' शीर्षक एक नवगीत में कविता के ठाट देखिए -
गर्दन पर, कुहनी पर जमी हुई मैल-सी।
मन की सारी यादें टूटे खपरैल-सी।
आलों पर जमे हुए मकड़ी के जाले,
ढिबरी से निकले धब्बे काले-काले,
उखड़ी-उखड़ी साँसे हैं बूढ़े बैल-सी।
हम हुए अंधेरों से भरी हुई खानें,
कोयल का दर्द यह पहाड़ी क्या जाने,
रातें सभी हैं ठेकेदार की रखैल-सी।
माहेश्वर तिवारी कहते हैं - 'अब कवि सम्मेलन मनोरंजन के लिए होते हैं। मनोरंजन ने, सस्ते हास्य-व्यंग्य ने मंचों को बिगाड़ा है। पहले के आयोजनों में 40 -50 नहीं, आठ दस कवि मंचों पर होते थे। एक हास्य, एक वीर रस के, बाकी गंभीर रचनाकार होते थे। अब मनोरंजक हास्य कवियों पर कुछ कहने में शर्म आती है। भांड़, जो मंचों पर आ गए हैं, उनमें एकाध गंभीर रचनाकार को आयोजक बलि देने के लिए बुला लेते हैं। कविसम्मेलन आय के माध्यम हो गये हैं।
विचित्र स्थिति है कि कई महत्वपूर्ण रचनाकार भी वैसे मंचों पर जाकर चुपचाप बैठे रहते हैं, भांड़-भड़ैती पर होठ सिले रहते हैं। मंच गिरने का दुष्परिणाम है कि आज गंभीर श्रोता अनुपस्थित होने लगे हैं। एक बार मैंने मंच छोड़ने का निश्चय किया। शरद जोशीजी मेरे घर पर खाने पर आए तो बोले, एक बात का ध्यान रखना। मंच को तुम्हारे छोड़ देने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तुम्हारी जगह घटिया कवि आजाएगा लेकिन पांच हजार की भीड़ में तुम्हे सुनने के लिए जो सौ-दो-सौ लोग आते होंगे, वे भी आने बंद कर देंगे। इससे भीड़ का कविता से संवाद पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। किसी न किसी को तो बलि देनी पड़ेगी। मंच पर जाते रहो लेकिन कविता को बचाकर। कविता से समझौता नहीं करना।
माहेश्वर तिवारी नवगीत को त्रिमुखी पीड़ा का गीत कहते हैं। उनका कहना है कि गीत को विस्तार देने की चेतना को नवगीत ने स्वीकार किया। गीत में जो राग चेतना थी, उसमें भी परिवर्तन हुआ। परंपरावादी में या तो हम रहस्यवादी हो जाते थे या परकीया प्रेम का ज्यादा संकेत मिलता था। नवगीत में पहली बार दांपत्य प्रेम का विषय बना। और सिर्फ दांपत्य ही नहीं, बल्कि माता-पिता, भाई-बहन आदि जितने भी संभव रिश्ते थे, उनको नवगीत ने व्यक्त किया। ऐसा परंपरावादी गीतों में नहीं था। हमारे सामने सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का साहित्य एक मानक की तरह उपस्थित होता है। निराला एक तरफ 'बांधों न नाव इस ठांव बंधु, पूछेगा सारा गांव बंधु', जैसे गीत लिख रहे थे, दूसरी तरफ सामाजिक सरोकारों के भी गीत- 'मानव जहां बैल-घोड़ा है, कैसा तन-मन का जोड़ा है।' कालांतर में भी परिवर्तन आते गए। वीरेंद्र मिश्र के शब्दों में देखें कि उस वक्त गीत किस तरह नवगीत में करवटें ले रहा था- 'दूर होती जा रही है कल्पना, पास आती जा रही है जिंदगी। उठ रहा तूफान सागर में यहाँ, डगमगाती जा रही है ज़िंदगी।'
माहेश्वर तिवारी कहते हैं कि गीत में जो राग चेतना थी, उसमें भी परिवर्तन हुआ। परंपरावादी में या तो हम रहस्यवादी हो जाते थे या परकीया प्रेम का ज्यादा संकेत मिलता है। नवगीत में पहली बार दांपत्य प्रेम का विषय बना। और सिर्फ दांपत्य ही नहीं, बल्कि माता-पिता, भाई-बहन आदि जितने भी संभव रिश्ते थे, उनको नवगीत ने व्यक्त किया। ऐसा परंपरावादी गीतों में नहीं था। नवगीत नाम में कोई आन्दोलन जैसा भाव नहीं था। एक और मुख्य बदलाव की बात। नवगीत ने जिस भाषा का चयन किया, उसमें प्रयास किया कि वह सहज संप्रेषणीय हो; और बिंबों का सृजन किया गया। ऐसे बिंब, जो पहले गीत के प्रयोग में नहीं आ रहे थे। गीत तो हर काल खंड में लिखे जाते रहे हैं। वे पद शैली में मिलते हैं। गीत वह, जो गाया जा सके। लेकिन उन्हें गीत नहीं पद, शबद कहा गया। नवगीत ने नवीनता को रेखांकित किया। नवगीत, गीत को नकारता नहीं है। एक खानदान होता है, उसमें जनमे सभी बच्चों के गुण-धर्म एक जैसै नहीं होते हैं। खानदान वही होता है। मूल खानदान कविता का है। उसी तरह गीत की मुख्यधारा से नवगीत निकला है। नवगीत, गीत के विरोध में नहीं आया है।
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