नहीं रहे 'उर्दू शायरी में गीता' के रचनाकार अनवर जलालपुरी
कौन जानता था कि उनके ज्यादा न जीने की ख्वाहिश इस खबर के साथ लोगों को सन्न कर देगी कि 'देश के मशहूर शायर अनवर जलालपुरी (71) का मंगलवार को लखनऊ में इंतकाल हो गया।' उन्हें ब्रेन स्ट्रोक के बाद किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के ट्रॉमा सेंटर में गंभीर हालत में भर्ती कराया गया था। मंगलवार सुबह करीब सवा नौ बजे उन्होंने अंतिम सांस ली।
गीता से प्रभावित होने की वजह उन्होंने बताई कि गीता के संदेशों और उपदेशों में बेहद सादगी है। गीता ख्वाहिश और फल के बगैर अमल करते रहने की तरगीब देती है। यह किताब में ख्वाहिशात के बगैर ईश्वर की राह चलने का संदेश है।
ख्वाहिश मुझे जीने की ज़ियादा भी नहीं है
वैसे अभी मरने का इरादा भी नहीं है
हर चेहरा किसी नक्श के मानिन्द उभर जाए
ये दिल का वरक़ इतना तो सादा भी नहीं है
वह शख़्स मेरा साथ न दे पाऐगा जिसका
दिल साफ नहीं ज़ेहन कुशादा भी नहीं है
जलता है चेरागों में लहू उनकी रगों का
जिस्मों पे कोई जिनके लेबादा भी नहीं है
घबरा के नहीं इस लिए मैं लौट पड़ा हूँ
आगे कोई मंज़िल कोई जादा भी नहीं
श्रीमदभागवत गीता का उर्दू में अनुवाद करने वाले जलालपुरी की कृति 'उर्दू शायरी में गीता' जिसे जितनी बार पढ़ा जाए, रूह को सुकून और ताजगी मिलती है। अनवर जलालपुरी ने श्रीमद्भगवद्गीता को उर्दू शायरी का लिबास पहना दिया था। गीता के 701 श्लोकों को 1761 उर्दू अशआर में ढाल कर एक नए पाठक वर्ग को गीता की गहराइयों से रूबरू होने का मौका दिया। लखनऊ की गंगा-जमुनी तहजीब को दर्शाती 'उर्दू शायरी में गीता' नाम की इस किताब, इसके मकसद और प्रयोग के बारे में अनवर जलालपुरी ने कहा था कि हजारों साल पहले शकों-शुबहात में घिरे अर्जुन यह फैसला नहीं कर पा रहे थे कि हक क्या है और बातिल क्या। तब श्रीकृष्ण ने बेहद साफ लहजे में जिंदगी के राज समझा कर उन्हें मंजिले मकसूद तक पहुंचा दिया। इंसान को इंसान बनाने की उनकी इस कामयाब कोशिश से मैं शुरुआत से ही बहुत प्रभावित था।
सन 2014 में शायर अनवर जलालपुरी ने हिंदू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवद गीता और उर्दू भाषा के मेल का अनोखा कारनामा कर दिखाया था। उनकी किताब 'उर्दू शायरी में गीता' का लोकार्पण मुरारी बापू और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने किया था। उन्होंने बताया था कि वह चूंकि शायर हैं, इसलिए उन्होंने सोचा कि अगर वह पूरी गीता को शायरी का लिबास पहना दें, तो यह ज़्यादा अहम काम होगा। उनकी शायरी उनकी अपनी भाषा उर्दू में रही लेकिन यह किताब उन्होंने अरबी-फ़ारसी लिपि के साथ ही देवनागरी लिपि में भी छपवाई। (कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।)
सतो गुन सदा तेरी पहचान हो
कि रूहानियत तेरा ईमान हो
कुआं तू न बन बल्कि सैलाब बन
जिसे लोग देखें वही ख्वाब बन
तुझे वेद की कोई हाजत न हो
किसी को तुझ से कोई चाहत न हो
अनवर कहते थे कि आज के दौर में जब इंसान-इंसान के खून का प्यासा हो रहा है, समाज में संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है तब गीता की शिक्षा बेहद प्रासंगिक है। मुझे लगता था कि अगर शायरी के तौर पर इसे आवाम के सामने पेश करूं तो एक नया पाठक वर्ग इसकी तालीम से फायदा उठा सकेगा। धर्म के बजाए कर्म का उपदेश देने वाली भगवत गीता के संस्कृत श्लोकों को शायरी में ढाल कर श्लोक को लोक तक पहुंचाने का करिश्मा कुछ इस तरह सामने आता है -
हां, धृतराष्ट्र आखों से महरूम थे
मगर ये न समझो कि मासूम थे
इधर कृष्ण अर्जुन से हैं हमकलाम
सुनाते हैं इंसानियत का पैगाम
अजब हाल अर्जुन की आखों का था
था सैलाब अश्कों का रुकता भी क्या
बढ़ी उलझनें और बेचैनियां
लगा उनको घेरे हैं दुश्वारियां
तो फिर कृष्ण ने उससे पूछा यही
बता किससे सीखी है यह बुजदिली।
जलालपुरी ने कहा था कि तकरीबन पैंतीस बरस पहले मैंने इसका ख्वाब संजोया था। 1982 में अवध यूनिवर्सिटी फैजाबाद में इस विषय पर पीएचडी का रजिस्ट्रेशन करवा लिया। व्यस्तता के चलते हालांकि इस काम को वक्त नहीं दे पा रहा था जिसका बेहद रंज था। मगर गीता की फिक्र और फलसफा मेरे दिलो दिमाग पर तारी रहे। करीब पांच बरस पहले अपनी जिम्मेदारियों से थोड़ी फुर्सत पाकर सारा समय इस काम में लगा दिया। गीता से प्रभावित होने की वजह उन्होंने बताई कि गीता के संदेशों और उपदेशों में बेहद सादगी है। गीता ख्वाहिश और फल के बगैर अमल करते रहने की तरगीब देती है। यह किताब में ख्वाहिशात के बगैर ईश्वर की राह चलने का संदेश है। (य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय: । अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥)
वह जाहिल हैं ऐसा समझते हैं जो
वह अहमक भी हैं ऐसा कहते हैं जो
न यह आत्मा कत्ल करती कभी
न यह आत्मा कत्ल होती कभी
जनम और मरन से है यह बालातर
यही इस की तरीफ है मुख्तसर
हमेशा से है और हमेशा रहे
चिराग ऐसा जिस की न लौ बुझ सके
बदन कत्ल होता है हो जाने दो
सदा के लिए इस को सो जाने दो
मगर आत्मा है अजर और अमर
यह ब्राह्मांड सारा ही है उस का घर
अपनी कृति दुनिया के सामने आने के बाद वह बताया करते थे कि "मैंने संस्कृत का श्लोक पढ़ा. ज़ाहिर है श्लोक तो सौ फ़ीसदी मेरी समझ नहीं आया, लेकिन उसका नीचे जो हिंदी अनुवाद था उसको मैंने पढ़ा। फिर मैंने उसी श्लोक का उर्दू और अंग्रेजी में अनुवाद भी पढ़ा।" (वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥)
बदन रूह की सिर्फ पोशाक है
वगरना यह तन तो फकत खाक है
लिबासे कुहन तो बदलना ही है
नया पैरहन फिर पहनना ही है
बदन त्याग कर जाने जाती कहां
नया ढूंढ लेती है कोई मकां
न हथियार करते हैं जख्मी इसे
न तो आग ही है जलाती इसे
भिगोने की ताकत न पानी में है
अजब बात इस की कहानी में है
हवा भी इसे खुश्क करती नहीं
अजल से अबद तक यह मरती नहीं
अनुवाद पढ़ने के बाद उन्होंने गीता के श्लोकों की पूरी व्याख्या पढ़ी। उन्होंने जिन लोगों की टीका पढ़ी, उनमें ओशो रजनीश, महात्मा गांधी, विनोवा भावे और बाल गंगाधर तिलक शामिल हैं। अनवर बताते थे कि इसके बाद उनके मन में गीता के हर श्लोक का सारांश बना, जिसे उन्होंने कविता का रूप दिया। वह कहते थे कि पिछले 200 सालों के दौरान कविता के रूप में गीता के करीब दो दर्जन अनुवाद हुए, पर पुराने ज़माने की उर्दू में फ़ारसी का असर ज़्यादा होता था। (यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥)
फराएज से इंसा हो बेजार जब
हो माहौल सारा गुनाहगार जब
बुरे लोगों का बोल बाला रहे
न सच बात को कहने वाला रहे
कि जब धर्म का दम भी घुटने लगे
शराफत का सरमाया लुटने लगे
तो फिर जग में होना है जाहिर मुझे
जहां भर में रहना है हाजिर मुझे
बुरे जो हैं उनका करूं खात्मा
जो अच्छे हैं उनका करूं मैं भला
धरम का जमाने में हो जाए राज
चलो नेक रास्ते पे सारा समाज
इसी वास्ते जन्म लेता हूं मैं
नया एक संदेश देता हूं मैं।
प्रोफेसर रमेश दीक्षित लिखते हैं कि 'उर्दू को मुसलमानों की जुबान बताकर साजिशन उसकी अहमियत को कमतर ठहराने की तमाम कोशिशों के बावजूद इस शीरीं जुबान की मिठास का जादू इस मुल्क की गंगा-जमुनी मुश्तरका साझी सांस्कृतिक विरासत पर फख्र करने वाले हर खासो आम शख़्स के दिलो दिमाग़ पर चढ़कर बोलता रहा है। उर्दू दरअसल अख़लाक़, शराफ़त, मोहब्बत और तहज़ीब की एक ख़ालिस और खांटी हिन्दुस्तानी जुबान है जो यहीं जन्मी, पली, बढ़ी और परवान चढ़ी। उर्दू में बाइबिल के बेहतरीन तर्जुमे मौजूद हैं और रामायण तथा गीता के भी। जनाब अनवर जलालपुरी उर्दू अदब के बहुत ही अहम किरदार रहे, जो जितना राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय अज़ीमुश्शान मुशायरों की उम्दा निज़ामत के लिए पहचाने गए, उससे कहीं ज़्यादा एक ऐसे महत्वपूर्ण शायर और दानिश्वर के रूप में जिसके कलाम में इस मुल्क की मुश्तरका संस्कृति रची बसी है और जिसकी शायरी में हिन्दुस्तान की मुख़्तलिफ़ ऋतुओं, वनस्पतियों और रीति रिवाजों के दिलकश रंगों के साथ अवध की माटी की सोंधी महक भी शामिल है।
'अनवर साहब पेशे से मुदर्रिस थे और हर मुदर्रिस अपनी पढ़ी, समझी और पसंद की किताबों और विचारों को दूसरों तक पहुंचाना उसी तरह अपना फ़र्ज़ समझता है, जिस तरह ज़ुल्म और ज़्यादती के खि़लाफ़ जंग को गीत में सबसे अहम फ़र्ज़ बताया गया है। इंसानियत के लंबे सफ़र के मुख़्तलिफ़ पड़ावों में धर्म ने समाज को अच्छाई के साथ मज़बूती के साथ खड़े रहने और बुराई के खि़लाफ़ लड़ने का हौसला और सम्बल दिया। इस्लाम में जिस तरह फ़रिश्ते को अच्छाई और इबलीस को बुराई का प्रतीक माना गया है, उसी तरह पारम्परिक हिन्दू धर्म में रामायण काल में राम और रावण तथा महाभारत के दौर में पांडवों और कौरवों के बीच जंग को भी न्याय और अन्याय और अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष की शक्ल में मान्यता मिली है।
'फ़र्ज़ अदायगी के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बान देने के लिए तैयार रहने का गीता का मूल संदेश आम फ़हम शायरी के ज़रिये अवाम तक पहुंचाने की अनवर साहब की यह अदबी कोशिश हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत और धार्मिक विश्वासों से नई पहचान कराती है। यह उत्कृष्ट अनुवाद गीता के रहस्य और मर्म को सीधी सरल बिना किसी लाग लपेट की जुबान में समझाने की बड़ी जि़म्मेदारी निभाता है। यक़ीनन यह तर्जुमा पाठकों और अगली पीढ़ी के लेखकों को गीता के अध्यात्म, निष्काम कर्मयोग और कर्तव्य की भावना को और ज़्यादा शिद्दत और गहराई से समझने और उस पर अमल करने का मौक़ा देता है।
जिस महत्वपूर्ण धार्मिक पुस्तक के तमाम तर्जुमे भारतीय समाज के मुख़्तलिफ़ इदारों के दिग्गजों - लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, विनोबा भावे, स्वामी सहजानंद, डॉ राधा कृष्णन आदि द्वारा किये जा चुके हैं, उसके निहितार्थों को कविता की शक्ल में खोलना और सम्प्रेषणीय बनाये रखना निस्सन्देह एक बड़ा चुनौतीपूर्ण काम था, जिसे अनवर साहब ने पूरी महारत के साथ अंजाम दिया। किसी भी किताब का एक जुबान से दूसरी जुबान में तर्जुमा एक जटिल प्रक्रिया है खास तौर पर जब सवाल दो मुख़्तलिफ़ मिज़ाजों की जुबानों के प्रतीकों, अहसासों और फ़लसफ़े को पूरी सम्प्रेषणीयता के साथ पाठकों तक पहुंचाने का हो। ऐसी स्थिति में ज़रूरी है कि अनुवादक किताब के मूल कथ्य की संवेदना और विषय वस्तु में फेर बदल किये बग़ैर अनुवाद/भावान्तरण में थोड़ी छूट लेने को आज़ाद रहे।
'पिछले कुछ दशकों में यह मान्तया भी सामने आई है कि किसी भी जुबान की शायरी की किताब का बेहतर अनुवाद केवल शायर ही कर सकता है। गीता संस्कृत की श्रेष्ठतम काव्य रचनाओं में एक है। भले ही अनवर साहब ने उर्दू शायरी में गीता का अनुवाद उसके हिन्दी अनुवादों के आधार पर किया है परन्तु उन्होंने संस्कृत के मूल पाठ की आत्मा को बचाए रखने की पूरी कोशिश की है। निष्काम कर्म और कर्तव्यनिष्ठा की प्रेरणा देने वाले लोकप्रिय धर्मग्रन्थ का निहायत ही पठनीय तर्जुमा गीता के दर्शन के प्रति अनुवादक के लगाव के कारण ही मुमकिन हो सका है। धार्मिक उदारता और सर्वधर्म समभाव की उदात्त चेतना ही धार्मिक, भाषाई और जातीय बहुलता तथा विविधता वाले भारत की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कर सकती है। प्रस्तुत अनुवाद दो प्रमुख धार्मिक समुदायों के बीच पारस्परिक समझ और संवाद का पुल बनाने की अहम पहल है।'
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