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अमोल पालेकर का सिनेमा में आना एक इत्तेफाक था, तो ऐसे इत्तेफाक बार-बार होने चाहिए

खास फिल्मों का वो आम-सा चेहरा जो अब भी लोगों का फेवरेट है...

1970 के दशक में अमोल पालेकर की बॉलीवुड में अपनी एक अलग पहचान थी। शायद इसलिए कि वह काफी सोच-समझ कर फिल्‍में करते थे। उन्‍होंने अपने एक इंटरव्‍यू में कहा भी है, कि वह दस में से नौ फिल्‍में रिजेक्‍ट कर देते थे...

फिल्म- बातों-बातों में अमोल पालेकर और टीना मुनीम

फिल्म- बातों-बातों में अमोल पालेकर और टीना मुनीम


 निर्देशक सत्यदेव दुबे के साथ उन्होंने मराठी थिएटर में कई नए प्रयोग किए। बाद में 1972 में उन्होंने अपना थिएटर ग्रुप अनिकेत शुरू किया। 

वे ज्यादातर फिल्मों में मध्यवर्गीय समाज के नायक का प्रतिनिधित्व करते दिखे। उनकी हास्य फिल्मों को दर्शक आज भी याद करते हैं।

अमोल पालेकर ही एक मात्र भारत के ऐसे अभिनेता है, जिनकी पहली तीन फिल्मों ने सिल्वर जुबली का रिकार्ड बनाया। अमोल पालेकर की सिल्वर जुली मनाने वाली फिल्में हैं रजनीगंधा (1974), छोटी सी बात (1975), और चितचोर (1976)। उनके संवाद कहने का एक अलग ही अंदाज है। साधारण सी वेशभूषा में रहने वाला यह अभिनेता आज निर्देशक के रूप में भी हिंदी सिनेमा जगत में सक्रिय है। उन्होंने उत्कृष्ट आलोचनात्मक फिल्मों का सफल निर्देशन किया। आकृत, थोड़ा सा रूमानी हो जाए, दायरा, कैरी, पहेली आदि फिल्‍मों और कच्‍ची धूप, नकाब, मृगनयनी जैसे टीवी सीरियलों के डायरेक्‍शन में अपना कमाल दिखाया।

ग्रेजुएशन के बाद अमोल ने बैंक ऑफ इंडिया में आठ साल तक नौकरी की। उन्‍होंने एक इंटरव्‍यू में कहा था, 'जब मेरी शुरुआती तीन फिल्‍में सिल्‍वर जुबली हिट हो गई थीं, तब मेरे लिए नौकरी छोड़ना एकदम आसान हो गया था।' अभी वह एक पेंटर की जिंदगी गुजार रहे हैं। उनका कहना है कि पेंटिंग उनका पहला प्‍यार था। उन्‍होंने जेजे स्‍कूल ऑफ फाइन आर्ट्स से पोस्‍ट ग्रेजुएशन करने के बाद करियर की शुरुआत बतौर पेंटर ही की थी। वह अक्‍सर कहते रहे हैं, 'मैं प्रशिक्षण पाकर पेंटर बना, दुर्घटनावश एक्‍टर बन गया, मजबूरी में प्रोड्यूसर बना और अपनी पसंद से डायरेक्‍टर बना।' 1970 के दशक में अमोल पालेकर की बॉलीवुड में अपनी पहचान थी। शायद इसलिए कि वह काफी सोच-समझ कर फिल्‍में करते थे। उन्‍होंने इंटरव्‍यू में कहा है कि वह दस में से नौ फिल्‍में रिजेक्‍ट कर देते थे।

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वो यादगार इत्तेफाक

महाराष्‍ट्र के साधारण परिवार में जन्‍मे अमोल पालेकर ने बैंक में क्‍लर्क की नौकरी भी की थी। उनकी दो बड़ी और एक छोटी बहन थी। परिवार का फिल्‍म से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। स्‍कूल-कॉलेज के दिनों तक अमोल ने कभी नाटक तक नहीं किया था। उनके पिता पोस्‍ट ऑफिस में काम करते थे। मां प्राइवेट कंपनी में नौकरी करती थीं। अमोल पालेकर की गर्लफ्रेंड थिएटर में दिलचस्‍पी रखती थीं। जब वह थिएटर में रिहर्सल के लिए जातीं तो अमोल वहां उनका इंतजार किया करते। इसी सिलसिले में एक दिन थिएटर में सत्‍यदेव दुबे की नजर उन पर पड़ी। दुबे ने उन्‍हें मराठी नाटक 'शांताता! कोर्ट चालू आहे' में ब्रेक दिया। इस नाटक को काफी अच्‍छा रिव्‍यू मिला। इसके बाद सत्‍यदेव दुबे ने अमोल से कहा कि अब जब लोगों ने इसे गंभीरता से लिया है तो उन्‍हें एक्टिंग की ट्रेनिंग लेनी चाहिए।

अगले नाटक के लिए उन्‍होंने अमोल को कड़ी ट्रेनिंग दी। इस तरह नाटकों में एक्टिंग का सिलसिला काफी आगे बढ़ गया। एक्टर बनने से पहले अमोल पालेकर थिएटर जगत में निर्देशक के रूप में स्थाई पहचान बना चुके थे। निर्देशक सत्यदेव दुबे के साथ उन्होंने मराठी थिएटर में कई नए प्रयोग किए। बाद में 1972 में उन्होंने अपना थिएटर ग्रुप अनिकेत शुरू किया। बासु चटर्जी, ऋषिकेश मुखर्जी और बासु भट्टाचार्य उनके नाटक देखने आया करते थे।

आम आदमी जैसे दिखने वाले खास अभिनेता अनेल पालेकर

आम आदमी जैसे दिखने वाले खास अभिनेता अनेल पालेकर


अमोल पालेकर ने एक्टर के रूप में चितचोर, घरौंदा, मेरी बीवी की शादी, बातों-बातों में, गोलमाल, नरम-गरम, श्रीमान-श्रीमती जैसी कई यादगार फिल्में दीं।

हिंदी फिल्मों में उन्होंने सन 1974 में बासु चटर्जी की फिल्म रजनीगंधा से कदम रखा। फिल्म सफल हुई और फिर उनके अनवरत सफर का आगाज हो गया। 1970 के दशक में बासु चटर्जी-अमोल पालेकर की जोड़ी वैसी ही बन गई, जैसी उसी दौर में मनमोहन देसाई-अमिताभ बच्‍चन की बनी थी। उन्‍होंने कैमरे के पीछे भी गजब की क्रिएटिविटी दिखाई। उन्होंने एक्टर के रूप में चितचोर, घरौंदा, मेरी बीवी की शादी, बातों-बातों में, गोलमाल, नरम-गरम, श्रीमान-श्रीमती जैसी कई यादगार फिल्में दीं। वे ज्यादातर फिल्मों में मध्यवर्गीय समाज के नायक का प्रतिनिधित्व करते दिखे। उनकी हास्य फिल्मों को दर्शक आज भी याद करते हैं।

शांत, सहज और सौम्य

1970 के दशक में उनकी गिनती एक सुपरस्टार के तौर पर होती थी। अमोल पालेकर शुरू से तड़क-भड़क से दूर रहने वाले हैं। वह ऑटोग्राफ देने से भी मना कर दिया करते थे। उनकी छोटी बेटी इसके लिए उन्‍हें डांटती भी थीं। यूं तो उन्हें अधिक मीडिया हाइप नहीं मिली लेकिन उनकी फिल्मों की सफलता ही उनकी कहानी कहती है। समानांतर सिनेमा में उनका कद एक बड़े कलाकार के रूप में रहा। उनकी अभिनय की खास विशेषता यह थी कि उन्होंने अपने आप को पर्दे पर हमेशा साधारण नायक के रूप में पेश किया। यही वजह की आम आदमी खुद को उनसे जुड़ा हुआ पाता था।

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अमोल पालेकर को खुशी है कि वे अपने करियर में फिल्म इंडस्ट्री के श्रेष्ठ निर्देशक और श्रेष्ठ तकनीशियनों के साथ काम कर सके। सन 1981 में मराठी फिल्म आक्रित से अमोल ने फिल्म निर्देशन में कदम रखा। अब तक वे कुल दस हिंदी-मराठी फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं। उनकी पिछली हिंदी फिल्म पहेली को ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था जिस पर खुशी व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने निर्देशक के रूप में मनमाफिक फिल्में बनाई। बड़े पर्दे के साथ ही छोटे पर्दे के लिए 'कच्ची धूप' और 'नकाब' जैसी धारावाहिकों का निर्देशन भी किया। दायरा, अनाहत, कैरी, समांतर, पहेली , अक्स रचनात्मकता के हर रंग -रूप में ख़ास नजर आते हैं। भाषा, देश, संस्कृति किसी भी आधार पर सिनेमा के विभाजन को नहीं मानते।

बेहतरीन अभिनय और निर्देशन के लिए अमोल पालेकर को कई पुरस्कार और सम्मान मिले। इनमें शामिल है- फिल्म 'दायरा' (1996) के लिए पहला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और पारिवारिक उत्थान के क्षेत्र में निर्देशित फिल्म 'कल का आदमी' के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार। इसके अतिरिक्त 'गोलमाल' में अपने रोल के लिए अमोल को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार भी मिला। अमोल ने हिंदी,मराठी के अलावा कन्नड़, मलयालम और बंगाली सिनेमा में भी अपने सफल अभिनय का परिचय दिया।

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