सुजाता को पहली ही किताब पर अमेरिका में लाखों का सम्मान
दुनिया में दलित, भारत में अनुसूचित हो चुका है दलित साहित्य। 'दलित' शब्द पर पाबंदी से दिल्ली विश्वविद्यालय ने तीन पुस्तकों को हटा दिया है, जबकि भारतीय मूल की लेखिका सुजाता गिदला की पहली पुस्तक 'Ants Among Elephants: An Untouchable Family and the Making of Modern India' को लाखों का पुरस्कार मिला है।
डीयू की शैक्षिक मामलों की स्टैडिंग कमेटी की बैठक में राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से 'दलित' शब्द हटाने की सिफारिश की गई है। इसे नवंबर में होने वाली एकेडेमिक काउंसिल की बैठक में मंजूरी के लिए रखा जाएगा।
दलित साहित्य से तात्पर्य दलित जीवन और उसकी समस्याओं के लेखन को केन्द्र में रखकर हुए साहित्यिक आंदोलन से है, जिसका सूत्रपात दलित पैंथर से माना जा सकता है। दलितों को हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता तथा स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा जाता रहा है। उन्हें अपने ही धर्म में अछूत या अस्पृश्य माना गया। दलित साहित्य की शुरुआत मराठी से मानी जाती है, जहां दलित पैंथर आंदोलन के दौरान बड़ी संख्या में दलित जातियों से आए रचनाकारों ने आम जनता तक अपनी भावनाओं, पीड़ाओं और दुख-दर्दों को लेखों, कविताओं, निबन्धों, जीवनियों, कटाक्षों, व्यंग्यों, कथाओं आदि में लिखा। हिंदी साहित्य में दलितों के जीवन को केंद्र में रखकर अनेक किताबें लिखी गई हैं, जिनमें दलित जीवन की सच्चाई बेहद यथार्थवादी नज़रिए से अभिव्यक्त हुई है।
इसी क्रम में ‘जूठन’ को अपना एक विशिष्ट स्थान मिला। इस पुस्तक ने दलित, गैर-दलित पाठकों, आलोचकों के बीच जो लोकप्रियता अर्जित की है, वह अवर्णनीय है। इसी तरह तुलसी राम के उपन्यास ‘मुर्दहिया’, ओम प्रकाश वाल्मीकि के ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ और 'ठाकुर का कुआं', मोहन दास नैमिशराय के ‘अपना गाँव’, मलखान सिंह के ‘सुनो ब्राह्मण’, जयप्रकाश कर्दम के 'नो बार', असंगघोष के 'मैं दूंगा माकूल जवाब', कौशल्या वैसन्त्री के 'दोहरा अभिशाप', सुशीला टाकभौरे के 'शिकंजे का दर्द' आदि सृजन को व्यापक सम्मान मिला है।
हाल ही में भारतीय मूल की दलित लेखिका सुजाता गिदला को शक्ति भट्ट पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यह पुरस्कार उन्हें उनकी सद्यःप्रकाशित पहली पुस्तक 'Ants Among Elephants: An Untouchable Family and the Making of Modern India' के लिए दिया गया है। इस पुस्तक में उन्होंने अपने परिवार की चार पीढ़ियों की दास्तान लिखी है। निर्णायकों के मुताबिक सुजाता ने इस पुस्तक में ग़रीबी, पितृसत्तात्मकता और भेदभाव की सीधी, सपाट और साफ तस्वीर दिखाई है। किताब की ख़ास बात यही है कि इसकी किस्सागोई कहीं से भी पाठकों को नाटकीय नहीं लगती है। निर्णायक मंडल में संपूर्ण चटर्जी, रघु कार्नाड़ और गीता हरिहरन शामिल थीं। पुरस्कार के लिए छह किताबों को शॉर्टलिस्ट किया गया। उनमें से सुजाता की पुस्तक को पुरस्कार के लिए चुना गया। सुजाता के अलावा प्रीति तनेजा, दीपक उन्नीकृष्णन, आंचल मल्होत्रा, सनम मेहर, श्रीवत्स नेवातिया आदि की पुस्तकें भी इस प्रतिस्पर्द्धा में शामिल रहीं। 'शक्ति भट्ट फाउंडेशन' ही शक्ति भट्ट बुक प्राइज़ को फंड मुहैया कराता है। विजेता को दो लाख रुपये का कैश मिलता है। पिछले साल का शक्ति भट्ट पुरस्कार श्रीलंका के लेखक अनुक अरुद्प्रगासम को मिला था।
एक ओर तो दलित साहित्य विश्व पटल पर प्रतिष्ठित हो रहा है, दूसरी तरफ पिछले दिनों 'दलित' शब्द के प्रयोग को लेकर कई राज्यों में प्रतिबंध के कारण दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में अब लेखक कांचा इलैया की तीन पुस्तकें नहीं पढ़ाने का निर्णय लिया गया है। डीयू की शैक्षिक मामलों की स्टैडिंग कमेटी की बैठक में राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से 'दलित' शब्द हटाने की सिफारिश की गई है। इसे नवंबर में होने वाली एकेडेमिक काउंसिल की बैठक में मंजूरी के लिए रखा जाएगा। स्टैडिंग कमेटी की बैठक में सबसे ज्यादा बहस पॉलिटिकल साइंस के पाठ्यक्रम में शामिल रही कांचा इलैया की तीन पुस्तकों को लेकर हुई। इन पर आरोप लगने के बाद पुस्तकों को पाठ्यक्रम से हटाया गया है। इन पुस्तकों में 'वाय आई एम नॉट ए हिंदू', 'पोस्ट हिंदू इंडिया' आदि हैं। इस बीच प्रो सुमन ने राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम में दलित बहुजन पॉलिटिकल थॉट में 'दलित' शब्द पर आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा है कि इसको पाठ्यक्रम से हटाया जाना जरूरी है। जहां-जहां दलित शब्द का प्रयोग किया गया है, उनके स्थान पर 'अनुसूचित जाति' शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए। कमेटी ने उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है।
इधर कुछ वक्त से बड़ी संख्या में लीक से हटकर किताबें लिखी जा रही हैं और प्रतिष्ठित-सम्मानित भी हो रही हैं। किन्नर समाज का दर्द बयान करती एक और ऐसी ही पुस्तक टांक (राजस्थान) की नवोदित लेखिका साक्षी शर्मा की आई है। सुजाता की तरह वह भी अपनी पहली ही किताब से सुर्खियों में आ गई हैं। उन्नीस साल की उम्र में ही बीएससी द्वितीय वर्ष की छात्रा साक्षी ने अपनी 138 पेज की पुस्तक 'लेट्स लिव ए विअर्ड लाइफ' में किन्नर समाज के दर्द शिद्दत से रेखांकित करते हुए इस समुदाय से जुड़े कई नाजुक और गंभीर सवाल खड़े किए हैं। दरअसल, साक्षी ने अपनी कलम उन लोगों के जीवन को छूते हुए चलाई है, जो कभी भीड़ में तो कभी घर के आंगन में, कभी सड़क पर, तो कभी किसी महफिल में, कभी ढोलक की थाप पर, तो कभी तालियों की आवाज पर थिरकते हैं।
वह भी इंसान हैं तथा उनके भी कई अरमान होते हैं। किन्नरों की जिंदगी को छूती इस पुस्तक ने उनके कई ज़ख़्म बयान किए हैं। साक्षी शर्मा को लिखने का शौक बचपन से ही रहा है। वह कविताएं, चौपाइयां आदि भी लिखती हैं। जब वह जयपुर में पढ़ाई कर रही थीं, उन्हीं दिनो वहां की एक कच्ची बस्ती में गईं, जहां उन्होंने किन्नर समाज की जिंदगी को बहुत करीब से देखा। पुस्तक में खास तौर से किन्नरों के स्कूल नहीं जाने, नौकरी नहीं मिलने सहित कई पीड़ाओं को पुस्तक का केंद्रीय विषय बनाया गया है। वैसे तो साक्षी का सपना बॉलीवुड में नाम रोशन करने का है, वह संगीत में भी दिलचस्पी रखती हैं, लेकिन फिलहाल एक लेखिका के रूप में अपनी पहली किताब से प्रतिष्ठित हो रही हैं।
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