ग्रामीण छात्रों की तकदीर संवारना चाहते हैं उद्योगपति दिलजीत राणा
ब्रिटेन के शीर्ष कारोबारियों में एक राणा ने कृषि प्रधान राज्य पंजाब के दूर-दराज के गांवों के छात्रों को बेहतर शिक्षा मुहैया कराने के लिए चंडीगढ़ से लगभग चालीस किलोमीटर दूर फतेहगढ़ साहिब जिले के संघोल गांव में हड़प्पा खुदाई स्थल के दाहिनी तरफ स्थित 'द कोर्डिया एजुकेशन कॉम्प्लेक्स' खोला है।
दुख है कि यह शिक्षा व्यवस्था बनाने में उन्हें भी भारत की दफ्तरशाही और नौकरशाही से परेशानियों का सामना करना पड़ा है। विश्वविद्यालय परिसर स्थापित करने के लिए न्यूनतम 35 एकड़ भूमि की अनिवार्यता उनके आड़े आई। यहां कानून पुराने हैं। दुनियाभर में कई विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में इससे भी कम जमीन है। यहां नियमों में बदलाव की जरूरत है।
उत्तरी आयरलैंड में भारत के मानद महावाणिज्यदूत एवं अपनी मातृभूमि से गहरा लगाव रखने वाले दिलजीत राणा पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों का भविष्य संवारना चाहते हैं, इसके लिए उन्होंने 27 एकड़ में लॉर्ड राणा एजु-सिटी में बिजनेस मैनेजमेंट, हॉस्पिटलिटी, टूरिज्म मैनेजमेंट, कृषि, कौशल विकास आदि के कोर्स सुलभ कराएं हैं लेकिन प्रोत्साहित करने की बजाए सरकारी लालफीताशाही ही उनकी कोशिशों पर पानी फेर रही है।
एक ओर तो हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों की शिक्षा व्यवस्थाओं को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें हमेशा से उदासीन रही हैं। अच्छी शिक्षा के लिए छात्रों को भागकर शहरों की शरण लेनी पड़ती है, जिससे बड़ी संख्या में गरीब परिवारों के बच्चे बेहतर शिक्षा से वंचित रह जाते हैं, दूसरी यदि कोई यहां बेहतर शिक्षा व्यवस्था बनाने की कोशिश करे तो उसमें अफसरशाही, लालफीताशाही आड़े आने लगती है। इन दिनो ऐसी ही अड़चनों से दो चार हो रहे हैं उत्तरी आयरलैंड में भारत के मानद महावाणिज्यदूत के तौर पर नियुक्त दिलजीत राणा। वह 'ग्लोबल ऑर्गनाइजेशन ऑफ पीपुल ऑफ इंडियन ऑरिजिन' के अध्यक्ष भी हैं। मूलतः पंजाब के निवासी दिलजीत राणा 1955 में ही इंग्लैंड चले गए थे।
उत्तरी आयरलैंड में कुछ समय बिताने के बाद उन्होंने रेस्टोरेंट, होटल आदि के दूसरे कारोबारों से छह करोड़ पाउंड का साम्राज्य खड़ा कर लिया। आज वह भले 'ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस' के एक सदस्य बन चुके हों, उनको अपनी मातृभूमि से गहरा लगाव है। हिंदुस्तान का विभाजन देख चुके और खुद एक शरणार्थी परिवार से ताल्लुक रखने वाले राणा कहते हैं कि वह जब पंजाब आए थे, उनके पास कुछ नहीं था। उनका परिवार विभाजन के बाद पाकिस्तान के लायलपुर से भारत के पंजाब आकर बस गया था। 1980 के दशक में उत्तरी आयरलैंड में सांप्रदायिक हिंसा में उनके कुछ प्रतिष्ठानों पर 25 से ज्यादा बम विस्फोट हुए थे, लेकिन वह जमे रहे। इसके बाद वह यूनाइटेड किंगडम के सबसे सफल और सम्मानित व्यवसायियों में शुमार हो गए। वह उत्तरी आयरलैंड में भी समाज कल्याण के काम करते रहते हैं और ब्रिटिश सरकार उनकी सेवाओं का सम्मान करती है।
ब्रिटेन के शीर्ष कारोबारियों में एक राणा ने कृषि प्रधान राज्य पंजाब के दूर-दराज के गांवों के छात्रों को बेहतर शिक्षा मुहैया कराने के लिए चंडीगढ़ से लगभग चालीस किलोमीटर दूर फतेहगढ़ साहिब जिले के संघोल गांव में हड़प्पा खुदाई स्थल के दाहिनी तरफ स्थित 'द कोर्डिया एजुकेशन कॉम्प्लेक्स' खोला है। वह अपनी इस परियोजना की प्रगति जानने-देखने के लिए तीन-चार महीने में एक बार भारत का दौरा जरूर करते हैं। राणा बताते हैं कि अपनी मां ज्वाला देवी का जन्मस्थान होने के कारण संघोल को उन्होंने शिक्षण संस्थान स्थापित करने के लिए चुना। परियोजना में प्रतिबद्धता, समय और धन का निवेश हुआ है। यहां आने वाले ज्यादातर छात्र ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों से होते हैं, जिसके कारण उन्हें पढ़ाना एक चुनौती है।
उन्होंने इसलिए पंजाब के ग्रामीण इलाकों में बेहतर शिक्षा व्यवस्था बनाने का निश्चय किया, क्योंकि गांवों के ज्यादातर बच्चों के पास गांव छोड़ने और उच्च शिक्षा के संसाधन नहीं थे। उनका पहला कॉलेज वर्ष 2005 में शुरू हुआ। इस समय उनके छह कॉलेजों में ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन के कोर्स पढ़ाए जा रहे हैं। दुख है कि यह शिक्षा व्यवस्था बनाने में उन्हें भी भारत की दफ्तरशाही और नौकरशाही से परेशानियों का सामना करना पड़ा है। विश्वविद्यालय परिसर स्थापित करने के लिए न्यूनतम 35 एकड़ भूमि की अनिवार्यता उनके आड़े आई। यहां कानून पुराने हैं। दुनियाभर में कई विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में इससे भी कम जमीन है। यहां नियमों में बदलाव की जरूरत है।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों को स्कॉलरशिप देने के लिए दो करोड़ रुपये राज्य सरकार की ओर से लगभग ढाई साल से जारी नहीं हो सके हैं। इससे हमें आर्थिक समस्या हो रही है। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बेहतर टीचर ढूढ़ना भी एक मुश्किल काम है। लॉर्ड राणा एजु-सिटी 27 एकड़ के क्षेत्रफल में फैली हुई है, जिसमें बिजनेस मैनेजमेंट, हॉस्पिटलिटी और टूरिज्म मैनेजमेंट, कृषि, शिक्षा, प्रोफेशनल एजुकेशन और कौशल विकास के कोर्स पढ़ाए जाते हैं। परियोजना में प्रतिबद्धता, समय और धन का निवेश हुआ है। आज यहां तरह-तरह की कठिनाइयों के कारण छात्रों को पढ़ाना एक चुनौती सी हो गई है।
खासकर भारत सरकार की ओर से अपेक्षित मदद न मिल पाने का उन्हें गहरा मलाल है। एक ओर राणा जैसे देशप्रेमी शिक्षा व्यवस्था बनाने के लिए पंजाब में जूझ रहे हैं, दूसरी तरफ सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी शिक्षा का आधारभूत ढांचा आवश्यकता से कम होने से इंकार करते हुए कहती है कि पिछले करीब चार वर्षों में ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित कॉलेजों की संख्या में पांच प्रतिशत की वृद्धि हुई है। फिर सवाल उठता है कि पंजाब में ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों की हकीकत क्या है? तो एक मीडिया रिपोर्ट सरकारों के झूठ का कुछ इस तरह खुलासा करती है। पंजाब के श्री मुक्तसर साहिब जिले में 241 गांवों में कुल 551 सरकारी स्कूल चल रहे हैं, जिनमें 332 प्राइमरी स्कूल हैं।
सरकारी सीनियर सैकेंडरी स्कूलों की संख्या जिले में 84 है तथा सरकारी हाई स्कूल 66 चल रहे हैं। इसके अलावा एलीमैंटरी स्कूल 69 हैं। सरकारी स्कूलों में बच्चों के सामने पीने के साफ पानी तक का संकट रहता है। स्कूल प्रबंधकों ने अपने बलबूते पर पीने के पानी की व्यवस्थाएं कर रखी हैं। जिले के 90 सरकारी स्कूलों में पीने वाले पानी के सैम्पल फेल हो चुके हैं। अप्रैल से स्कूलों में कक्षाएं शुरू हुई हैं। अभी तक शिक्षा विभाग द्वारा बच्चों के लिए स्कूलों में किताबें ही नहीं भेजी गई हैं। किताबों के बिना बच्चे पढ़ेंगे कैसे। यह भी पता लगा है कि अभी तक किताबें छापने के लिए कागज ही नहीं खरीदा गया है तथा अगस्त तक किताबें आने की कोई सम्भावना नहीं है। इस जिले में 1986 में शिक्षा विभाग का दफ्तर बनाया गया था पर 31 साल बीत जाने के बावजूद इस दफ्तर में स्टाफ तथा अन्य सुविधाओं की कमी रहती है। छह शिक्षा ब्लाकों में से पांच में अफसर नहीं हैं। ऐसे हालात में राणा को किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा होगा, स्वयं जाना-समझा जा सकता है।
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