ग़रीबी नहीं रोक पायी उनकी सोच की परवाज़
तेलंगाना के बुनकर मल्लेशम ने पोचमपल्ली साड़ियों पर डिज़ाइनिंग के लिए अपनी मां को चार फुट लंबे आसु फ्रेम पर एक दिन में हजारों बार धागे घुमाते हुए देखा था। छठी कक्षा में ही पढ़ाई छोड़ चुके मल्लेशम के पास किताबी ज्ञान की जरूर कमी थी लेकिन धागे घुमाने के कारण अपनी मां के कंधों और हाथों में रहने वाले दर्द के प्रति उसकी ‘संवेदना’ कम नहीं थी।दूसरों की परेशानी को महसूस कर सकने वाली उसकी इस ‘संवेदना’ ने उसमें एक खास ‘सृजनशीलता’ को जन्म दे दिया। तभी अपनी मां के इस दर्द को कम करने और इस उद्योग में लगे दूसरे लोगों के लिए इस काम को आसान बनाने के लिए उसने इस पूरी प्रक्रिया को ऑटोमेटिक बनाने का निश्चय कर लिया। पढ़ाई-लिखाई के लिहाज से लगभग शून्य इस व्यक्ति ने ड्रमों पर एक तय स्थान पर तार बांधने वाली मशीन की प्रणाली को समझकर एक ऐसी आसु मशीन बना दी, जो किसी महिला बुनकर द्वारा पांच घंटे में अंजाम दिए जाने वाले काम को डेढ़ घंटे में कर देती थी।
इतना ही नहीं वर्ष 2002 में जब स्टील के दाम बढ़ने पर उसकी मशीन की कीमत भी बढ़ गई तो स्थानीय बुनकरों की विवशता को भांपकर उसने इलेक्ट्रॉनिक्स, माइक्रो कंट्रोल सिस्टम और प्रोग्रामिंग की तेलुगू में छपी किताबों पढ़कर अपनी इलेक्ट्रॉनिक मशीन को पूरी तरह मैकेनिकल बना दिया। इससे मशीन की कीमत वापस कम हो गई।
तेलंगाना के बुनकर की यह कहानी आपको इस बात पर दोबारा सोचने के लिए मजबूर कर सकती है कि क्या बड़ी-बड़ी खोजें सिर्फ बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेने के बाद ही की जा सकती हैं? हो सकता है कि आप यह भी मानते हों कि तमाम समस्याओं के समाधान स्थापित प्रयोगशालाओं में ही जन्म लेते हैं।आपको यह सोच भी बदलनी पड़ सकती है, क्योंकि ऐसे कई नवोन्मेष हैं, जिनका जन्म तो सुदूर गांवों में हुआ है लेकिन उन्हें बेहतर बनाने के लिए अब शहरी प्रयोगशालाओं में उनपर काम चल रहा है।
देश के दूर-दराज के इलाकों में शोधयात्राओं के ज़रिए ज़मीनी स्तर के नवोन्मेषकों तक पहुंचने वाले हनी बी नेटवर्क के संस्थापक और आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर डॉ अनिल के गुप्ता की नई किताब ‘‘ग्रासरूट्स इनोवेशन:माइंड्स ऑन मार्जिन आर नॉट मार्जिनल माइंड्स’’ में ऐसे बहुत से नवोन्मेषों का जिक्र है, जो उपर बताई गई दोनों धारणाओं से इतर के पहलू दिखाकर एक व्यापक तस्वीर पेश करते हैं।इस किताब में लेखक ने गांव-देहातों में संसाधनों की कमी झेलने वाले लोगों के नवोन्मेषों के किस्से बताते हुए इस बात को दृढ़ता से स्थापित किया है कि ग़रीब लोगों के पास सिर्फहाथ, पैर और पेट ही नहीं है..उनके पास एक दिमाग भी है, एक ऐसा दिमाग, जो तमाम अभावों के बावजूद अपने और दूसरों के सामने पेश आने वाली समस्याओं के हल खोजने में लगा रहता है।गुप्ता देश के कोने-कोने में फैले इस असंगठित बौद्धिक श्रम बल के कौशल के लाभ को प्रसारित करने की बात तो करते हैं, लेकिन साथ ही साथ वह आर्थिक रूप से ग़रीब, लेकिन जानकारी के आधार पर संपन्न इन नवोन्मेषकों के बौद्धिक अधिकारों की भी वकालत करते हैं। वह समुदायों के बीच इस जानकारी के आदान-प्रदान का समर्थन जरूर करते हैं लेकिन कंपनियों के साथ इसे साझा करने से पहले लाइसेंस और पेटेंट पर ज़ोर देते हैं।
इसके पीछे की मूल भावना यह है कि इन नवोन्मेषकों को भी अर्थव्यवस्था में उनकी हिस्सेदारी और पहचान मिलनी चाहिए।देश के शीर्ष प्रबंधन संस्थानों में से एक संस्थान आईआईएम-अहमदाबाद में पढ़ाने वाले गुप्ता वर्ष से पढ़ाए जा रहे उस ‘मास्लो हायरार्की नीड मॉडल’ के विपरीत भी उदाहरण पेश करते हुए कहते हैं कि ऐसा जरूरी नहीं है कि तमाम मूलभूत ज़रूरतें पूरी होने के बाद ही कोई काम को अंजाम दे सकता है।ऐसे कितने ही लोग हैं, जिनके अगले दिन के भोजन का ठिकाना नहीं था लेकिन उन्होंने कुछ बेहद रचनात्मक खोज कर डाली।
विभिन्न परंपराओं के वैज्ञानिक आधार ढूंढने पर ज़ोर देने वाले गुप्ता किताब में दार्शनिक अंदाज़ में कहते हैं कि लंबे समय से चली आ रही समस्याओं को दूर करना तभी संभव है, जब हम अपने अंदर की जड़ता को खत्म करें।समस्याओं के साथ जीना सीख लेने के बजाय इन्हें दूर करने की प्रतिबद्धता खुद में जगाएं। वह कहते हैं कि हमें कुछ नया और बड़ा करने से रोकने वाली जड़ता को खत्म करने के लिए बच्चों से सीख लेनी चाहिए क्योंकि बच्चे इस जड़ता को लेकर बिल्कुल सहनशील नहीं होते। उन्हें समाधान से मतलब होता है, चाहे समस्याएं कितनी भी बड़ी हों।
इसके लिए वह दिवंगत राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा पुरस्कृत किए जाते रहे ‘इग्नाइट’ विजेताओं का जिक्र करते हैं। जिनमें स्कूल के उंचे नल तक छोटे बच्चों की पहुंच बनाने के लिए नल के पाइप से झुकाव वाला पाइप निकालकर उसमें कई नल लगवाने का सुझाव देने वाली छाया भी है और अपने घर के बुजुर्ग को सीढ़ियां चढ़ने में होती तकलीफ को देख दो छोटे और दो बड़े पैरों वाली वॉकर बनाने वाली शालिनी भी।लेखक के अनुसार, यह किताब स्वयंसेवियों, वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, छात्रों समेत उन तमाम लोगों के लिए है, जो समाज में अपनी क्षमताओं को पहचानकर समाज की बेहतरी में कुछ योगदान करना चाहते हैं।