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क्या सरकार को नए नोट छापने चाहिए? ये है अर्थशास्त्रियों की राय

क्या सरकार को नए नोट छापने चाहिए? ये है अर्थशास्त्रियों की राय

Monday May 11, 2020 , 4 min Read

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इस समय अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिये व्यय बढ़ाने की जरूरत है और यह नहीं किया गया तो ऐसा नुकसान होगा

क्या सरकार को नए नोट छापने पड़ जाएंगे?

क्या सरकार को नए नोट छापने पड़ जाएंगे?



मुंबई, कोरोना वायरस महामारी के मद्देनजर सरकार द्वारा बाजार से कर्ज जुटाने की सीमा में 54 प्रतिशत की वृद्धि किए जाने के बाद विशेषज्ञ सरकार के घाटे को पूरा करने के लिए एक सीमा तक नये नोट छापे जाने के पक्ष में दिखते हैं। उनका मानना है कि इस समय अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिये व्यय बढ़ाने की जरूरत है और यह नहीं किया गया तो ऐसा नुकसान होगा, जिसकी भरपाई संभव नहीं।


भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कर्ज के लिए रिजर्व बैंक से नोट निकाले जाने के विचार का समर्थन किया था। उन्होंने इस असाधारण समय में गरीबों व प्रभावितों तथा अर्थव्यवस्था की सुरक्षा के लिये सरकारी कर्ज के लिए रिजर्व बैंक द्वारा अतिरिक्त नोट जारी किए जाने और राजकोषीय घाटे की सीमा बढ़ाने की वकालत की।


इस तरह की पहली मांग अप्रैल की शुरुआत में आयी थी। उस समय केरल के वित्त मंत्री थॉमस इसाक ने राज्य को महामारी की परिस्थितियों से निपटने के लिये 6,000 करोड़ रुपये के बांड बेचने के लिये करीब नौ प्रतिशत की कूपन (ब्याज दर) की पेशकश करने की मजबूरी पर रोष जाहिर किया था।


कोरोना वायरस महामारी के कारण देश भर में अब तक 2,100 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है तथा 63 हजार से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं। वैश्विक स्तर पर, इससे मरने वालों की संख्या 2.79 लाख से अधिक हो चुकी है और 40 लाख से अधिक लोग इससे संक्रमित हैं।


इसाक ने उस समय सुझाव दिया था कि केंद्र सरकार पांच प्रतिशत कूपन पर कोविड बांड जारी कर पैसा जुटाए और उसमें से राज्यों को मदद दे।


इसाक ने कहा था कि आरबीआई को खुद केंद्र सरकार से ऐसे बांड खरीदने चाहिए। कई अन्य अर्थशास्त्रियों ने भी गरीबों की मदद करने और अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिये लीक से हट कर संसाधनों का प्रबंध करने का सुझाव दिया है।


मौद्रीकरण के तहत आमतौर पर केंद्रीय बैंक अधिक मुद्रा की छपायी कर अपनी बैलेंस शीट (सम्त्ति और देनदारी) का विस्तार करते हैं।


राजन ने कहा कि सार्वजनिक खर्च की राह में मौद्रीकरण कोई अड़चन नहीं होना चाहिये। उन्होंने कहा, "सरकार को अर्थव्यवस्था की रक्षा के बारे में चिंतित होना चाहिये और जहां आवश्यक है वहां उसे खर्च करना चाहिये।


इंडिया रेटिंग्स के मुख्य अर्थशास्त्री देवेंद्र कुमार पंत ने भी सरकार के द्वारा अधिक उधार लेने और राजकोषीय घाटे की कीमत पर अर्थव्यवस्था का समर्थन करने के विचार का पक्ष लिया। उन्होंने कहा कि गरीबों और अर्थव्यवस्था का समर्थन करने के लिये इस समय खर्च नहीं करने के नतीजे बहुत गंभीर और अपूरणीय होंगे।





पंत ने नये नोट छापकर पैसे जुटाने का सीधा पक्ष लिये बिना पीटीआई-भाषा से कहा, "इस समय आवश्यकता धन की है। केंद्र सरकार को सबसे अच्छा और सबसे बड़ा कर्जदार होने के नाते, इस असाधारण समय में भारी कर्ज उठाने की जरूरत है और राजकोषीय घाटे व अन्य चीजों को लेकर चिंतित नहीं होना चाहिये। अभी सिर्फ पैसे की जरूरत है।’’


उनके अनुसार, केंद्र को जहां से भी संभव हो, वहां से पैसा लाना चाहिये और राज्यों को उस दर से कम ब्याज दर पर ऋण देना चाहिये, जिस दर पर वे अभी पैसे उठाने के लिये मजबूर हो रहे हैं।


पंत ने कहा कि केरल को कोविड-19 की लड़ाई में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला बड़ा राज्य होने के बावजूद 8.96 प्रतिशत की दर से ब्याज का भुगतान करना पड़ा है। यह ऐसा मुद्दा है, जिसकी अनदेखी केंद्र सरकार को नहीं करना चाहिये।


उन्होंने कहा कि राजकोषीय विवेक के बारे में बात करना अब आत्मघाती हो जायेगा क्योंकि "अब खर्च नहीं करने के नतीजे इतने गंभीर होंगे कि सामान्य स्थिति में लौटने में वर्षों लग जायेंगे"।


सिंगापुर के डीबीएस बैंक की अर्थशास्त्री राधिका राव भी अधिक खर्च और एफआरबीएम (राजकोषीय जिम्मेदारी और बजट प्रबंधन अधिनियम) के लक्ष्य को टालने के पक्ष में हैं। उन्होंने कहा कि अभी 1.7 लाख करोड़ रुपये का राहत पैकेज दिया गया है, जो जीडीपी का महज 0.8 प्रतिशत है। उन्होंने इसे अपर्याप्त बताते हुए दूसरे राहत पैकेज की उम्मीद जाहिर की।