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अतिवृष्टि वाले स्थान पर कम हो रही बारिश, क्या है वजह?

भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में 119 साल के बारिश के आंकड़ों का विश्लेषण बता रहा है कि अधिक बारिश वाले स्थानों पर बारिश में कमी आई है. वर्ष 1973 के बाद के आंकड़ों का रुझान बारिश में कमी दिखा रहा है. विश्व के सबसे अधिक बारिश वाले इलाकों में बरसात में कमी से पानी के प्रबंधन पर इसका असर पड़ सकता है.

अतिवृष्टि वाले स्थान पर कम हो रही बारिश, क्या है वजह?

Wednesday July 27, 2022 , 6 min Read

बीते दो महीने से पूर्वोत्तर भारत अत्यधिक वर्षा और बाढ़ की वजह से चर्चा में है. इसे जलवायु परिवर्तन से भी जोड़कर देखा जा रहा है. हालांकि बीते कुछ दशक के आंकड़े और चिंता बढ़ाने वाले हैं. इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि बारिश में कमी आ रही है.

ऐसा ही एक अध्ययन एनवायरनमेंटल रिसर्च लेटर्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ था जिसमें 119 वर्षों में हुई बारिश के आंकड़ों का लेखा-जोखा था. इस विश्लेषण में पाया गया कि पूर्वोत्तर भारत में बारिश में कमी आ रही है. इस अध्ययन के परिणाम चौकाने वाले हैं, क्योंकि भारत का पूर्वोत्तर अतिवृष्टि वाले क्षेत्र में शामिल है. पर वर्ष 1973 के बाद के आंकड़ों में यह दिख रहा है कि बारिश में लगातार कमी आई है. देश के पूर्वोत्तर राज्यों में ही मेघालय भी शामिल है जहां विश्व में सबसे अधिक बारिश होना बताया जाता है. बीते जुलाई 11 को भी महज 24 घंटे में 39.51 इंच वर्षा हुई. मेघालय के मौसिनराम और चेरापुंजी में क्रमशः 11,871 मिमी और 11,430 मिमी औसत बारिश सालाना दर्ज की जाती है.

पर इस अध्ययन में न सिर्फ बारिश में कमी दिखी है, बल्कि विशेषज्ञों को बारिश कम होने की वजह भी समझ आई है. जंगल काटकर खेत बनाना और समुद्र का तापमान बढ़ना वर्षा में कमी होने की बड़ी वजह मानी जा रही है.

“सबसे अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी बारिश में कमी देखी जा रही है. जल प्रबंधन के लिए बारिश का होना महत्वपूर्ण है,” कहते हैं जयनारायनन कुट्टीप्पुरत. वे आईआईटी खडगपुर की सेंटर ऑफ ओशियन्स, रिवर्स, एटमॉस्फीयर एंड लैंड्स साइंसेज (सीओआरएएल) के प्रोफेसर हैं.

“हमने मॉनसून से पहले हिंद महासागर और अरब सागर में हवा में होने वाले नमी के प्रवाह में भी कमी देखी है. यह एक वजह है कि चेरापुंजी जैसे स्थानों पर बारिश में कमी आ रही है,” वह कहते हैं. कुट्टीप्पुरत इस अध्ययन के सह लेखक भी हैं.

पूर्वोत्तर का इलाका पहाड़ी है और गंगा के मैदानी इलाके का ही विस्तार है, इसलिए यह स्थान मौसम में बदलावों के प्रति काफी संवेदनशील है. प्री-मानसून और मानसून में यहां अच्छी-खासी बारिश होती है.

गर्मियों में बारिश के लिए जिम्मेवार बंगाल की खाड़ी से निकलने वाले बादल बांग्लादेश से होते हुए मेघालय की पहाड़ियों से टकराकर बारिश लाते हैं. मेघालय की गारे, खासी और जयंतिया हिल्स इन बादलों को रास्ते में ही रोककर वहां बारिश होना सुनिश्चित करती हैं. इस वजह से भी इस इलाके में अच्छी बारिश होती है.

इस शोध में पूर्वोत्तर के 16 मौसम केंद्रों से आंकड़े लिए गए। ये केंद्र इस क्षेत्र के 7 राज्यों में फैले हुए हैं। तस्वीर साभार- अध्ययनकर्ता

इस शोध में पूर्वोत्तर के 16 मौसम केंद्रों से आंकड़े लिए गए। ये केंद्र इस क्षेत्र के 7 राज्यों में फैले हुए हैं. तस्वीर साभार - अध्ययनकर्ता

मेघालय को अधिक बारिश के लिए जाना जाता है, लेकिन बावजूद इसके राज्य में पानी की कमी बनी रहती है. इससे निपटने के लिए यहां वर्ष 2019 में जल नीति लाई गई थी.

हालांकि, बारिश में आई कमी को प्रभावी तौर से मापने के लिए विशेषज्ञों को और आंकड़ों की जरूरत है.

आंकड़ा जुटाना सबसे बड़ी चुनौती है. इस अध्ययन में आंकड़ों की पुष्टि के लिए सैटेलाइट तस्वीरों की मदद ली गयी.

इस अध्ययन में मौसम विभाग के 16 वर्षा मापने वाले केंद्रों से प्राप्त आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है. यह 16 केंद्र पूरे पूर्वोत्तर के हैं. इस अध्ययन के लिए 1901 से लेकर 2019 तक के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है. मौसिनराम में मौसम विभाग का अपना कोई केंद्र स्थापित नहीं होने की वजह से वर्ष 1970 से लेकर 2010 तक का आंकड़ा मेघालय के योजना विभाग से लिया गया है, अध्ययनकर्ताओं ने बताया. हालांकि, यह आंकड़े वार्षिक हैं इसलिए इनसे प्रभावी विश्लेषण सामने नहीं आ सका है. अध्ययन के मुताबिक पूर्वोत्तर भारत में स्थित हर वर्षा मापने वाला केंद्र साल-दर-साल बारिश में कमी की तरफ ही इशारा कर रहा है. गर्मी और सर्दी के मौसम में बारिश की घटनाओं में साल-दर-साल काफी कमी दर्ज की जा रही है.

“इन आंकड़ों से प्राप्त परिणामों का मिलान हमने सैटेलाइट से प्राप्त आंकड़ों से किया. हमने पाया कि ये आंकड़े सही रुझान दिखा रहे हैं. पूर्वोत्तर में बारिश में कमी आ रही है, यह बात इस विश्लेषण से साफ है,” वह कहते हैं.

“आंकड़े अगर हर महीने प्राप्त हों तो स्थानीय स्तर पर मौसम में परिवर्तन की जानकारी मिलती है. इसके अलावा अगर दिन अनुसार बारिश का आंकड़ा उपलब्ध हो तो बारिश के बदलते रुझान का पता करना आसान हो जाता है. हमने आंकड़ों की कमी को पूरा करने के लिए सैटेलाइट की तस्वीरों को देखा. इससे उन इलाकों में भी बारिश की स्थिति समझ आई जहां मौसम केंद्र मौजूद नहीं थे,” कुट्टीप्पुरत कहते हैं.

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएससी) बैंगलुरु के सेंटर फॉर एटमॉस्फीयर एंड ओशियनिक साइंसेज से जुड़े विशेषज्ञ जीएस भट्ट ने मोंगाबे-हिन्दी को बारिश के आंकड़े जुटाने से पीछे की चुनौती साझा की. वह इस अध्ययन से नहीं जुड़े हैं.

“अध्ययन में मौजूद बारिश के आंकड़े जुटाना कोई आसान काम नहीं है. अध्ययन के लिए जिन आकड़ों का इस्तेमाल किया गया यह कितना सटीक है, कहना मुश्किल है,” वह कहते हैं.

चेरापूंजी में घाटियों में खड़ी ढलान उष्णकटिबंधीय वर्षावनों से आच्छादित हैं। तस्वीर- अश्विन कुमार / विकिमीडिया कॉमन्स

चेरापूंजी में घाटियों में खड़ी ढलान उष्णकटिबंधीय वर्षावनों से आच्छादित हैं. तस्वीर - अश्विन कुमार / विकिमीडिया कॉमन्स

इसकी वजह समझाते हुए उन्होंने हाल में ही किए एक अध्ययन का परिणाम साझा किया. वह कहते हैं, “आईआईएससी बैंगलुरु में मैंने बारिश का आंकड़ा जमा किया था. इसकी तुलना महज 6 किलोमीटर दूर स्थित मौसम विभाग के आंकड़े से की तो 30 प्रतिशत का अंतर आया. मौसम विभाग की गणना के मुताबिक बारिश अधिक हुई थी. पूर्वोत्तर जैसे पहाड़ी इलाके में यह अंतर और अधिक हो सकता है. इतने बड़े इलाके में मात्र 16 केंद्र के आंकड़ों से कोई सटीक रुझान समझना मुश्किल काम है.”

कॉटन कॉलेज गुवाहाटी के एसोसिएट प्रोफेसर राहुल महंता मानते हैं कि पूर्वोत्तर में बारिश के आंकड़ों में कमी की वजह से कोई सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है.

“ऐसे विश्लेषण आंकड़ों की कमी की वजह से बहुत सटीक नहीं रह जाते हैं. हालांकि यह जरूरी भी है ताकि आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन के खतरों का अनुमान लगाकर बदलावों के प्रति हम सचेत हो सकें,” वह कहते हैं.

पूर्वोत्तर भारत में आंकड़ों की कमी के पीछे कम जनसंख्या घनत्व और कई इलाकों में बीच-बीच में अशांत माहौल भी अपनी भूमिका अदा करते हैं. कई बार कुदरती हादसों की वजह से आंकड़े इकट्ठा करने वाले केंद्रों का स्थान भी बदलना पड़ता है जिससे आंकडों की गुणवत्ता प्रभावित होती है.

“यहां बारिश के कुछ हाथ से लिखे रिकॉर्ड भी हैं, जिसमें मनुष्य द्वारा गलती की आशंका हमेशा बनी रहती हैं,” महंता बताते हैं.

महंता ने ब्रिटिश राज के समय चाय बगानो से एकत्रित किए आंकड़ों को इकट्ठा किया. कुछ दस्तावेज 1800 ईस्वी के भी हैं.

“पूर्वोत्तर में एक और आंकड़ा उपलब्ध है जिसे 24 केंद्रों से इकट्ठा किया गया है. हालांकि, इस आंकड़ों का सेट अभी 90 वर्ष पुराना (1920 से 2009 तक) है. आने वाले समय में इन आंकड़ों की वजह से विश्लेषण और भी अधिक प्रभावी होने की उम्मीद है,” महंता कहते हैं.

आने वाले समय में मौसम कैसा होगा, इस सवाल का जवाब खोजने के लिए पूर्वोत्तर राज्य की स्थिति को समझना जरूरी है.

(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)

बैनर तस्वीर: उत्तर प्रदेश का एक गांव. फाइल तस्वीर – विश्वरूप गांगुली/विकिमीडिया कॉमन्स