हाशिए पर पड़ी सैकड़ों घरेलू स्त्रियों को आत्मनिर्भर बना रहा है 24 साल की अनामिका का यह स्टार्टअप
नारियो ने बिजनेस संभालने के लिए एमबीए वालों को नहीं खोजा. घरेलू औरतों को अपने समूह से जोड़ा है. उन्हें जिम्मेदारी दी है और वो औरतें आज बखूबी उस जिम्मेदारी को निभा रही हैं.
20 साल की उम्र में पहली नौकरी की पहली सैलरी से ही अनामिका पांडेय ने पैसे बचाने शुरू कर दिए. एक ही सपना था. ये कॉरपोरेट की नौकरी नहीं करनी. जल्दी ही अपना बिजनेस शुरू करना है. गोरखपुर में रहने वाले माता-पिता को ये बेवकूफी लगी. इतने पैसे खर्च करके इतना पढ़ाया कि लड़की विदेश में नौकरी करेगी, ऊंची तंख्वाहें पाएगी.
इसलिए तो नहीं कि सबकुछ दांव पर लगाकर 24 साल की उम्र में अपना बिजनेस शुरू करने का खतरा उठाए. मुंह के बल गिरी तो. बिजनेस नहीं चला तो. लड़कियों को वैसे भी ज्यादा रिस्क वाले काम नहीं करने चाहिए. ठीक-ठाक नौकरी चलती रहे, महीने की बंधी-बंधाई तंख्वाह आती रहे. इतना वक्त भी बचे कि नौकरी के बाद अच्छी पत्नी, अच्छी बहू, अच्छी मां होने की सारी जिम्मेदारियां भी संभाल ले.
लेकिन वो कहावत है न, अच्छी लड़कियां स्वर्ग जाती हैं और बुरी लड़कियां सब जगह. अनामिका हंसकर कहती हैं, “हां, मैं वही बुरी लड़की हूं. मैं अपनी मां की तरह समर्पित बहू, आज्ञकारी पत्नी और त्याग करने वाली मां बनने के लिए पैदा नहीं हुई. मैं अपने मन की होने के लिए हुई और मेरा मन था कि मैं अपना खुद का काम करूं, सो मैंने किया. खतरे उठाकर, घरवालों की नाराजगी झेलकर, सबकुछ दांव पर लगाकर.”
मां के हाथों का हुनर सिर्फ त्याग-तपस्या क्यों रहे
एक साल पहले अपनी सैलरी से बचाए 14 लाख रुपए लगाकर 24 की उम्र में अनामिका ने अपना स्टार्टअप शुरू किया- नारियो (Naario). जैसाकि नाम ही से जाहिर है, यह स्टार्टअप अनामिका के आंत्रप्रेन्योर बनने के साथ-साथ घरों की चारदीवारी में बंद महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की एक कोशिश भी है. औरतों के हाथों का वो हुनर, जो हमारे जीवन और खाने में स्वाद रचता है, लेकिन जिस काम की कई बार घर में ही कोई कद्र नहीं होती. मुफ्त का श्रम, जिसका कोई मूल्य नहीं, आदर नहीं.
नारियो शुरू करने के पीछे भी एक खास कारण था. वरना शिकागो से एमबीए कर लौटी लड़की बिजनेस तो कोई और भी कर सकती थी.
26 दिसंबर, 1996 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में एक मध्यवर्गीय परिवार में अनामिका का जन्म हुआ. पिता सहारा में आर्किटेक्ट थे. फिर उन्होंने नौकरी छोड़कर गोरखपुर लौटने का फैसला किया, जहां उनका पुश्तैनी घर था. गोरखपुर में पिता ने अपना खुद का बिजनेस शुरू किया था.
शुरू से घर में बेटी की पढ़ाई पर काफी जोर रहा. लेकिन बचपन से अनामिका को महसूस होने लगा था कि जो सपने अनामिका को दिखाए जा रहे थे, वही सपने उसकी मां को देखने की इजाजत नहीं थी. वो गोरखपुर के इज्जतदार पांडेय परिवार की बहू थीं और उनके यहां बहुएं काम नहीं करतीं.
अनामिका ने बचपन से अपने आसपास ऐसी बहुत सारी महिलाओं को देखा था, जिनका जीवन पितृसत्ता की चारदीवारी में कैद था. उन्हें लगा कि इस कैद से थोड़ी मुक्ति की राह आर्थिक आत्मनिर्भरता के जरिए ही मुमकिन है. हुनर उनके हाथों में था ही. हर स्त्री घर में मसाले, अचार, पापड़, चटनी, मुरब्बे बनाती ही है. जरूरत थी तो उस हुनर को बाजार में लेकर जाने की ताकि वह आमदनी का जरिया बन सके.
तो इस तरह खड़ा हुआ अनामिका का बिजनेस मॉडल.
लाखों रुपए के पैकेज वाली नौकरी छोड़ नारियो की शुरुआत
2017 में NIT वारंगल से इंजीनियरिंग करने के बाद अनामिका ने शिकागो से बिजनेस का एक डिप्लोमा कोर्स किया. 2017 में इंडिया लौटकर आईं और 20 साल की उम्र में बंगलुरू के एक स्टार्टअप में पहली नौकरी शुरू की. वहां कुछ महीने काम करने के बाद उनका अगला पड़ाव था बिग बास्केट, जहां अनामिका 21 साल की उम्र में न्यू इनीशिएटिव्स और प्रॉसेस डिपार्टमेंट को हेड कर रही थीं. चार साल बिग बास्केट में काम करने के बाद 2020 में लाखों रुपए की नौकरी छोड़कर पूरी तरह नारियो की तैयारी में जुट गईं.
बंगलुरू की जिस सोसायटी में अनामिका रहती थीं, उन्होंने वहां की महिलाओं से बात करनी शुरू की. उनका एक व्हॉट्सएप ग्रुप बनाया और यह समझने की कोशिश की कि भारत के हजारों घरों में रह रही नौकरीपेशा और हाउसवाइफ महिलाओं के लिए नारियो जैसा कोई प्लेटफॉर्म किस तरह उपयोगी हो सकता है. उन्होंने 400 से ज्यादा औरतों से बात करके अपने काम का एक ब्लूप्रिंट तैयार किया.
महिलाएं दो तरह से इसका हिस्सा हो सकती थीं. वर्किंग महिलाओं को जरूरत थी होममेड प्रोडक्ट्स की और घरेलू औरतों को अपना हुनर बेचकर वर्किंग होने की.
सिर्फ बंगलुरू की उस सोसायटी की औरतें ही नहीं, बल्कि गोरखपुर में मम्मी, बुआ, चाची, ताई से लेकर मुहल्ले की औरतों तक सबको अनामिका ने अपने इस बिजनेस में शामिल करने की कोशिश की. धीरे-धीरे लोग जुड़ते गए और कारवां बनता गया.
नारियो का बिजनेस मॉडल
अनामिका एक स्मार्ट मॉर्डन लड़की हैं. बिजनेस के बुनियादी गणित को समझती हैं. बिजनेस मॉडल कैसे खड़ा होता है, प्रोडक्ट की ब्रांडिंग और मार्केटिंग कैसे करते हैं, डिमांड और सप्लाय क्या चीज है. फंडिंग कहां से आएगी. पिछले दो साल से अनामिका बिना नागा, बिना छुट्टी हफ्ते में सातों दिन काम करती हैं. इस वक्त उनके पास 4 बड़े इन्वेस्टर हैं. शीरोज की फाउंडर साइरी चाहल, टाइम्स प्राइम की हर्षिता सिंह, Dineout के फाउंडर अंकित मेहरोत्रा और Onecode के फाउंडर यश देसाई ने नारियो में इंवेस्टमेंट किया है.
नारियो के प्रोडक्ट नारियो की अपनी वेबसाइट के अलावा अमेजन, फ्लिपकार्ट पर भी उपलब्ध हैं. अगला लक्ष्य हरेक स्टोर तक पहुंचना है. फिलहाल इंदौर, लखनऊ और गोरखपुर के स्थानीय स्टोर्स में नारियो प्रोडक्ट मौजूद हैं. नारियो के पास इस वक्त 9 प्रोडक्ट हैं, जिसमें आटे से लेकर कई तरह के मसाले, कॉफी, अचार, जूस, गुड़, काला नमक, मुसली और नट्स शामिल हैं.
4800 औरतों की कम्युनिटी है नारियो
सिर्फ एक साल के भीतर 10 लोगों से शुरू हुई नारियो कम्युनिटी में आज 4800 औरतें जुड़ चुकी हैं. नारियो से जुड़ी महिलाएं आज हर महीने 25-26 हजार रुपए कमा रही हैं. ये वह महिलाएं हैं, जो अभी तक हाउसवाइफ थीं और उन्होंने कभी घर से बाहर निकलकर नौकरी नहीं की थी.
नारियो कुछ घरेलू महिलाओं को अपना प्रोडक्ट बनाने और नारियो के जरिए बेचने के लिए शॉर्ट टर्म लोन भी देता है. महिला बैंक नाम की एक संस्था नारियो से जुड़ी है, जो 5 हजार से लेकर 2 लाख तक का लोन देती है. ये लोन इंटरेस्ट फ्री होता है.
नारियो ने बदली जिन औरतों की जिंदगी
नारियो की कम्युनिटी हेड वंदना कहती हैं, “मैं उन लोगों में से हूं, जिन्हें बहुत फर्क पड़ता है कि उनके आसपास समाज में क्या हो रहा है. अगर मुझे अपने काम से खुद को और बाकी औरतों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने का मौका मिल रहा है तो इससे ज्यादा खुशी देने वाली नौकरी और कोई नहीं हो सकती.”
लखनऊ की रहने वाली 39 वर्षीय कंचन हमेशा से हाउस वाइफ थीं. अचानक पति की मृत्यु के बाद जब घर और बच्चों की जिम्मेदारी सिर पर आ पड़ी तो मानो पहाड़ ही टूट पड़ा. फिर वो नारियो के संपर्क में आईं. आज कंचन कहती हैं, “मैं बहुत छोटे शहर से हूं. कभी घर के बाहर कदम नहीं रखा. पति की मृत्यु के बाद लगा अब आगे जिंदगी कैसे चलेगी. लेकिन नारियो से जुड़कर मेरी जिंदगी को रास्ता मिल गया. यहां मुझे सिर्फ आर्थिक आत्मनिर्भरता ही नहीं मिली, अपनी पहचान भी मिली. बहुत सारे अच्छे दोस्तों की कम्युनिटी.” कंचन नारियो के लिए चाय मसाला और गुड़ पाउडर जैसे प्रोडक्ट तैयार करती हैं और हर महीने 12 से 15 हजार रुपए कमा रही हैं.
दिल्ली में रहने वाली रीना, जो हमेशा से एक हाउस वाइफ थी, आज नारियो की रिलेशंस हेड हैं. रीना कहती हैं, “मैंने पिछले हफ्ते अपने मायके जाने की ट्रेन टिकट खुद बुक की. अपने खुद के पैसों से. जीवन में पहली बार मैंने अपने कमाए पैसों से कुछ किया है. मेरे बच्चे भी बहुत खुश थे. मुझे ये आजादी, ये आत्मनिर्भरता नारियो ने दी है. अब मुझे लगता है कि मैं सिर्फ मां, पत्नी, बहू नहीं हूं. मैं उससे ज्यादा हूं. मेरे पास अपना काम है, अपने दोस्त हैं, अपना सपोर्ट ग्रुप है. इस एहसास को शब्दों में नहीं बता सकती.”
नारियो ने यही किया है. नारियो ने अपना बिजनेस संभालने के लिए एमबीए वालों को नहीं खोजा. घरेलू औरतों को अपने समूह से जोड़ा है. उन पर भरोसा किया है, उन्हें जिम्मेदारी दी है और वो औरतें आज बखूबी उस जिम्मेदारी को निभा रही हैं. खुद भी आत्मनिर्भर हो रही हैं और अपने आसपास की अन्य औरतों को आत्मनिर्भर होने की राह दिखा रही हैं.
बिजनेस तो बहुतेरे करते हैं, लेकिन अनामिका ने एक ऐसा बिजनेस मॉडल खड़ा किया है, जो अपने साथ-साथ हाशिए पर पड़ी सैकड़ों स्त्रियों की एक पूरी कम्युनिटी को आत्मनिर्भर होने में मदद कर रहा है. यही बात नारियो को खास बनाती है.