क्या कोविड-19 लॉकडाउन ने बदल दिया हमारे पढ़ने का तरीका? जानें लॉकडाउन में लोगों ने सबसे ज्यादा क्या पढ़ा
गुलाम मुहम्मद क़ासिर का एक शेर है:
‘बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो,
ऐ काश हमारी आंखों का इक्कीसवां ख्वाब तो अच्छा हो’
हाथ में किताब हो- ख्वाब तो अच्छा है, लेकिन किताबें क्यों पढी जानी चाहिए का एक जवाब होते भी कई जवाब होते हैं. कुछ कहते हैं किताब पढने का मुख्य कारण जिज्ञासा होती है, कुछ दानिशमंदी और दूसरों से ज्यादा जानकार दिखने के लिए आपसी बातचीत में बड़े-बड़े देसी-विदेशी साहित्यकारों और पुस्तकों के नाम तो उछाल सकें सो पढ़ते हैं, कुछ महज करियर बनाने के लिए किताबें पढ़ते हैं, और एक पूरी की पूरी नई ‘मैगी’ और ‘इन्स्टा’ खेप है जिनके लिए किताबें महज़ एसथेटिक्स बढाने का सामान होती हैं.
सूचना क्रांति के इस दौर में एक नई बहस हमारे बीच अपनी पैठ बना चुकी है कि क्या ई-बुक मुद्रित किताबों की जगह ले पाएंगी. हालांकि बहुत लोगों का अब भी मानना है कि मुद्रित किताब को पढ़ने और उसके पन्नों को स्पर्श करने और पन्ना पलटने में जो मज़ा आता है, वे डिजिटल किताब पढ़ने में नहीं आता है. वहीँ, प्रकाशकों का कहना है कि पुस्तक-मेले ऐसे आयोजनों को प्रतिक्रिया तो अच्छी मिल रही है, लेकिन किताबों की बिक्री ज्यादा नहीं हो रही. उनके मुताबिक, लोग या तो डिजिटल किताबें पढ़ रहे हैं या ऑनलाइन माध्यम से मुद्रित पुस्तकों को खरीद रहे हैं, क्योंकि वहां पर अच्छी छूट मिलती है. किंडल और गूगल ई बुक पाठकों को इन्हें इंटरनेट पर खरीदने पर 20 प्रतिशत की छूट देते हैं. ई बुक रखने के लिए खास जगह बनाने की जरूरत नहीं होते है. किंडल ई बुक रीडर एक साधारण किताब जितना बड़ा होता है और इसमें औसतन 1,000 किताबें समा जाती हैं.
सबके पास इंटरनेट होने के कारण हम डिजिटल माध्यम करीब आ गए हैं. एक बड़ा बदलाव कोविड-19 से जुड़े लॉकडाउन से भी आया, तकनीक पर हम खूब आश्रित हुए. कोरोना वायरस के कारण लगाए गए करीब दो साल के लॉकडाउन ने लोगों के किताबें पढ़ने और खरीदने के तरीके में खासा बदलाव किया है. यही वजह है अब बड़े और नामी पब्लिशर्स ई-पब्लिशिंग को गंभीरता से ले रहे हैं.
लॉकडाउन और फिजिकल डिस्टेंसिंग का मनोवैज्ञानिक प्रभाव खतरनाक हो सकता था. अपने कमरों में बंद एक तरह से आत्म केंद्रित होने का भय था. कोविड-19 के लॉकडाउन ने घरों के दरवाजों को बंद किया था, लेकिन विचार के दरवाजे बंद नहीं होते. साहित्यकार यह जानते थे कि इस भयावह दौर में इस महामारी के शारीरिक इलाज जितना ही महत्त्वपूर्ण है, उतना ही इसके प्रभाव से जूझ रहे लोगों के मानसिक स्वास्थ्य की संरक्षा भी. साहित्यकारों के पास शब्द है और शब्दों से जुड़ा एक व्यापक संसार, वे उसी का सहारा लेकर जीवन के पक्ष में खड़े दिखे. लोग नकारात्मकता में न जाएं, अवसाद के शिकार न हों, इसके लिए साहित्य जगत पुरजोर कोशिश कर रहा था. सैंकड़ों लाइव कार्यक्रम हुए, रचनाओं पर संवाद हुए. देश के कोने-कोने से, विदेश डिजिटल माध्यम के जरिए एक दूसरे से तो जुड़ ही रहे थे, अपने कथाकारों से से भी रूबरू हो रहे थे. किताबें, लेखन सुकून का माध्यम बने. लॉक डाउन में किताबों की बिक्री पर असर पड़ा, लेकिन लोगों ने पढना-लिखना कम नहीं किया.
इस बात की तस्दीक कई बड़े प्रकाशकों ने की है. प्रकाशक ‘पेंगुइन इंडिया’ के मंसूर खान ने ‘पीटीआई-भाषा’ को ऑनलाइन माध्यम से किताबों की अधिक बिक्री होने की वजह बताते हुए कहा, “ऑनलाइन माध्यम से किताब खरीदने पर जितनी अधिक छूट मिलती है, उतनी पुस्तक दुकानदार दे ही नहीं सकता है. इसलिए किताबों की ऑफलाइन बिक्री में गिरावट आई है, लेकिन कुल मिलाकर किताबों की बिक्री बढ़ी है. लोग ज्यादा तादाद में किताबें पढ़ने हैं.”
लोग पढ़ रहे थे, डिजिटल बुक्स ज्यादा पढ़ रहे थे, लेकिन क्या पढ़ रहे थे?
उपन्यास, कहानी व शायरी की किताबें तो पढी ही जा रहीं थी, प्रकाशकों का कहना है कि लॉकडाउन के बाद धार्मिक किताबों में पाठकों की रूचि काफी बढ़ी है.
कई लोगों ने कहा कि लॉकडाउन में उनके परिवार के सदस्यों ने धार्मिक किताबें ज्यादा पढ़ी, खासकर भगवत गीता. कुछ का अनुभव यह भी रह ही अमूमन किताबों से दूर, न्यूज़ चैनलों पर समय व्यतीत करने वाले, घर के बड़े-बुज़ुर्ग ने लॉकडाउन में उनसे किताबें लेकर पढ़ना शुरू किया. कुछ के दोस्तों ने उनसे अच्छी किताबों के बारे में जानकारी लेना शुरू किया, जो किताब पढने में रूचि नहीं रखते थे.
पेंगुइन इंडिया के मंसूर खान ने भी कहा कि लोग धार्मिक किताबें अधिक पढ़ने लगे हैं और हिंदू धर्म से जुड़ी सभी किताबों की बिक्री में इजाफा हुआ है.
एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार डिजिटल युग में जब युवा पीढ़ी सबकुछ लैपटाप व मोबाइल पर पढ़ लेना चाहती हैं, इंटरनेट पर सबकुछ मौजूद भी है, ऐसे में भी गीताप्रेस की पुस्तकों की मांग लगातार बढ़ रही है. गीता प्रेस प्रबंधकों के अनुसार हर साल पुस्तकों की छपाई और बिक्री का आंकड़ा लगातार अपना ही रिकार्ड तोड़ता जा रहा है. पिछले साल सितंबर में 7.60 करोड़ रुपये की पुस्तकें छपी थीं तो इस साल सितंबर में 10.55 करोड़ रुपये की पुस्तकें छापी गईं. इसके मुख्यत: तीन कारण हैं, एक तो लागत मूल्य से 30 से 60 प्रतिशत कम कीमत में पुस्तकें बेची जाती हैं. दूसरे गीताप्रेस के ज्यादातर पाठक डिजिटल के बहुत करीब नहीं हैं. हालांकि डिजिटल पर भी पाठकों की संख्या कम नहीं है. तीसरे गीताप्रेस की पुस्तकें शुद्धता व शुचिता के लिए जानी जाती हैं.
तो जब साहित्यकार कोरोना काल को साहित्य के लिहाज से फायदेमंद मानने की बात करते हैं और अक्सर यह माना जाता है कि माध्यम कोई भी हो, वक़्त कैसा भी हो; इसके बाद भी अच्छे कंटेंट वाली किताबें फिर भी बिकेंगी और उनके पाठक हमेशा बने रहेंगे. तो क्या धर्म से जुडी किताबों को उस अच्छे कंटेंट की किताब मान लेनी चाहिए?