भारत की पहली महिला वकील, जिन्हें डिग्री पाकर भी वकालत करने की इजाजत नहीं थी
इंग्लैंड से कानून पढ़कर लौटी कॉर्नेलिया सोराबजी बैरिस्टर नहीं बन सकती थीं क्योंकि कानूनन महिलाओं के प्रैक्टिस करने पर प्रतिबंध था.
आज कॉर्नेलिया सोराबजी की जयंती है. 156 साल पहले 1866 में आज ही के दिन कॉर्नेलिया का जन्म हुआ था. लेकिन कोर्नेलिया सोराबजी कौन थीं? वो क्यों भारतीय उपमहाद्वीप में महिलाओ के इतिहास का एक ऐसा अध्याय हैं, जिसके जिक्र के बगैर औरतों की शिक्षा, बराबरी और आजादी की कहानी पूरी नहीं हो सकती.
कॉर्नेलिया का परिचय चंद पंक्तियों में मुमकिन नहीं.
1- कॉर्नेलिया सोराबजी भारत की पहली महिला एडवोकेट थीं.
2- वह बॉम्बे यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करने वाली पहली हिंदुस्तानी लड़की थीं.
3- वो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में कानून की पढ़ाई करने वाली पहली भारतीय महिला थीं.
4- ऑक्सफोर्ड से कानून की डिग्री लेने, कॉलेज में टॉप करने के बावजूद हिंदुस्तान लौटकर बैरिस्टर न बन पाने वाली, वकालत की प्रैक्टिस न कर पाने वाली भी वह पहली महिला थीं.
आज लड़कियों के लिए दुनिया की किसी भी यूनिवर्सिटी में दाखिला लेना और देश के सर्वोच्च न्यायालय में जज के सामने जिरह करना कोई बड़ी बात नहीं है. अब तो महिलाएं जज की कुर्सी पर भी बैठी हैं. लेकिन आज जो आजादी, बराबरी और अधिकार हम औरतों को हासिल हैं, उस तक पहुंचने की यात्रा में इतिहास की बहुत सारी स्त्रियों ने जीवन लगाया है, लड़ाइयां लड़ी हैं, कुर्बानियां दी हैं.
कॉर्नेलिया सोराबजी हमारी उन्हीं पुरखिनों में से एक हैं, जिन्हें जीवन के हरेक कदम पर लड़ना पड़ा, संघर्ष करना पड़ा, पुरुषों की दुनिया से अपना हक और हिस्सा मांगना पड़ा. एक लड़की होकर पहली बार मुंबई यूनिवर्सिटी में एडमिशन पाने से लेकर न्यायालय में बतौर वकील प्रैक्टिस करने तक. कुछ लड़ाइयां उन्होंने जीत लीं, कुछ लड़ाइयों ने भविष्य की जीत की नींव रखी.
कॉर्नेलिया सोराबजी का शुरुआती जीवन
कोर्नेलिया का जन्म 15 नवंबर, 1866 को महाराष्ट्र के देवलाली में रहने वाले एक पारसी परिवार में हुआ था. दादी के नाम पर उनका नाम रखा रखा गया- कॉर्नेलिया. पिता ईसाई मिशनरी हुआ करते थे. लेकिन घर में पढ़ने-लिखने का काफी माहौल था. पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव होने के कारण लड़कियों की शिक्षा भी टैबू नहीं थी. हालांकि समाज में तब ईसाई लड़कियों के लिए भी उच्च शिक्षा तक पहुंचने का रास्ता बहुत आसान नहीं था.
कॉर्नेलिया की मां फ्रैंसिना फोर्ड की परवरिश एक अंग्रेज कपल ने की थी, जिन्होंने 12 साल की उम्र में ही उन्हें गोद ले लिया था. इस तरह उनकी मां को भी बचपन से अच्छी शिक्षा-दीक्षा मिली. उन्होंने अपनी बेटी की पढ़ाई पर तो जोर दिया ही, साथ ही पुणे में रहते हुए उन्होंने समाज में लड़कियों की शिक्षा के लिए काफी काम किया था.
बॉम्बे यूनिवर्सिटी में दाखिला पाने वाली पहली लड़की
कोर्नेलिया सोराबजी से पहले बॉम्बे यूनिवर्सिटी लड़कियों को किसी भी प्रोग्राम में दाखिला नहीं देती थी. कोर्नेलिया पहली लड़की थी, जिसे यूनिवर्सिटी ने अपने यहां पढ़ने की इजाजत दी. उसके बाद ही उस यूनिवर्सिटी में लड़कियों की शिक्षा के दरवाजे खुले. उसके बाद कई महिलाओं ने उस यूनिवर्सिटी से शिक्षा ली, जो अपने-अपने विषयों में शिक्षा के उस ऊंचे मुकाम तक पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला बनीं. जैसे 1933 में बॉम्बे यूनिवर्सिटी से बायोकेमिस्ट्री में ग्रेजुएट होने वाली कमला सोहनी भारत की पहली महिला बायोकेमिस्ट थीं.
भारत से ऑक्सफोर्ड तक का सफर
कोर्नेलिया बॉम्बे यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर चुकी थीं. इसके बाद आगे पढ़ने के लिए वो लंदन जाना चाहती थीं, लेकिन सामान्य पादरी पिता के बाद इतने पैसे और संसाधन नहीं थे कि वे बेटी को पढ़ने के लिए ऑक्सफोर्ड भेज पाएं.
ऐसे में कॉर्नेलिया ने नेशनल इंडियन एसोसिएशन को एक चिट्ठी लिखी और उनसे आगे की उच्च शिक्षा के लिए आर्थिक मदद मांगी. चूंकि उनके नाना-नानी खुद ब्रिटिश थे और बहुत सारे प्रभावशाली अंग्रेजों को निजी तौर पर जानते थे तो कॉर्नेलिया को आसानी से ऑक्सफोर्ड में एडमिशन मिल गया.
1892 में उन्होंने ऑक्सफोर्ड के समरविल कॉलेज में सिविल लॉ में दाखिला लिया और इस तरह वहां से कानून की पढ़ाई करने वाली पहली भारतीय महिला बनीं. वह न सिर्फ समरविल कॉलेज में कानून पढ़ने वाली भारतीय महिला थीं, वह वहां टॉप करने वाली भी पहली भारतीय महिला थीं. भारत लौटने के बाद उन्होंने फिर 1897 में बॉम्बे यूनिवर्सिटी से एल.एल.बी किया.
डिग्री पाने के बाद भी नहीं बन सकीं बैरिस्टर
कोर्नेलिया के पास सारी डिग्री और योग्यता थी, फिर भी वो एडवोकेट नहीं बन पाईं क्योंकि उस वक्त के ब्रिटिश कानून में महिलाओं को वकालत करने की इजाजत नहीं थी. 1923 में जब ये कानून बदला, तब कहीं जाकर कॉर्नेलिया के लिए वकालत के दरवाजे खुले और 1924 में उन्होंने कोलकाता में बतौर एडवोकेट अपनी प्रैक्टिस शुरू की. तब तक वह 58 साल की हो चुकी थीं. 1929 में वो हाईकोर्ट से रिटायर हुईं.
अपनी किताब “बिटविन द ट्वाइलाइट्स” और दो भागों में लिखी अपनी आत्मकथा में कोर्नेलिया ने विस्तार से अपनी जीवन यात्रा और बतौर पहली महिला वकील अपने अनुभवों के बारे में लिखा है.
Edited by Manisha Pandey