देश की पहली हार्ट सर्जन डॉ पद्मावती नहीं, बल्कि बिहार के डॉ श्रीनिवास
"समस्तीपुर (बिहार) के गांव गढ़सिसई में सन् 1919 में जनमे डॉ श्रीनिवास ही देश के पहले कार्डियोलॉजिस्ट रहे हैं, न कि आज भी जीवित 102 वर्षीय डॉ शिवरामकृष्णन अय्यर पद्मावती। डॉ श्रीनिवास से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पटना मेडिकल कॉलेज के कॉर्डियोलॉजी विभाग के लिए एक झटके में 10 करोड़ रुपए दे दिए थे।"
कम ही लोगों को मालूम है कि समस्तीपुर (बिहार) के गांव गढ़सिसई में सन् 1919 में जनमे डॉक्टर श्रीनिवास के रूप में बिहार ने देश को पहला कार्डियेलॉजिस्ट दिया था। यद्यपि अब तक दावा किया जाता रहा है कि आज भी जीवित 102 वर्षीय डॉ शिवारामाकृष्णा अय्यर (डॉ पद्मावती) भारत की पहली कार्डियोलास्टि हैं लेकिन इस समय अमरीका के मिसीसिपी मेडिकल सेंटर कार्डियोलॉजी विभाग में कार्यरत डॉ श्रीनिवास के पुत्र तांडव आइंस्टीन समदर्शी का कहना है कि डॉ श्रीनिवास का मेडिकल करियर 1950 से पहले और डॉ शिवारामाकृष्णा अय्यर का 1953 में शुरू हुआ था। उनके पिता 1950 में ही भारत आकर डॉक्टरी करने लगे थे। दो साल पहले भारत सरकार डॉ श्रीनिवास पर पोस्टल इनवेलेप भी जारी कर चुकी है। इसलिए डॉ शिवारामाकृष्णा अय्यर भारत की पहली कार्डियोलॉजिस्ट नहीं, बल्कि पहली 'महिला कार्डियोलॉजिस्ट' हैं।
कार्डियोलॉजिस्ट डॉ श्रीनिवास के अपने पेशे के प्रति समर्पण, ईमानदारी सहित जीवन के कई और महत्वपूर्ण प्रसंगों से मौजूदा पीढ़ी पूरी तरह अनभिज्ञ है। सन् 1919 के दशक में, बचपन के दिनो में डॉ श्रीनिवास के गांव गढ़सिसई में कोई स्कूल नहीं था। पढ़ाई-लिखाई के लिए वह अपने ननिहाल वीरसिंहपुर ड्योढ़ी चले गए। आठवीं क्लास तक पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद उन्होंने समस्तीपुर के किंग एडवर्ड हाई स्कूल से 1936 में मैट्रिक पास किया और आगे शिक्षा के लिए उन्होंने पटना साइंस कॉलेज में दाखिला ले लिया। उसके बाद प्रिंस ऑफ़ वेल्स मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (आज के पटना मेडिकल कॉलेज) में उन्होंने चिकित्सा की बाकी पढ़ाई-लिखाई पूरी की। वह सन् 1938 का दशक था। उसके बाद उनको सरकारी नौकरी तो मिल गई लेकिन उनकी शिक्षा का सफर थमा नहीं और वह फ़ादर ऑफ़ मॉर्डन कॉर्डियोलॉज़ी एवं अमरीकन हर्ट एसोसिएशन के संस्थापक पॉल डडले व्हाइट से ट्रेनिंग लेने के लिए अमेरिका चले गए। ट्रेनिंग पूरी हो जाने के बाद अमरीका में नौकरी करने की बजाए वह पटना मेडिकल कॉलेज लौट आए। उनके पेशेवर समर्पण और त्याग की दास्तान इतनी ही नहीं। उनके दो पुत्र हुए, बोकारो स्टील में इंजीनियर बड़े बेटे भैरव उस्मान प्रियदर्शी और अमेरिका में डॉक्टरी कर रहे डॉ तांडव आइंस्टीन समदर्शी।
डॉ श्रीनिवास ने एक दिन अचानक बिना प्रबंधन से अनुमति लिए पटना के अपने हॉस्पिटल परिसर में एक खाली बिल्डिंग में स्वयं हार्ट के सभी पेसेंट को ट्रांसफर्मर कर दिया। इसके पीछे उनकी खास रणनीति थी कि ऐसा कर देने से वह बिल्डिंग कार्डियोलॉजी विभाग की हो जाएगी, और अंततः थोड़ा-बहुत विरोध, उस समय के हेल्थ डाइरेक्टर बीसी नाथ की मामूली नाराजगी के बाद वह हृदय रोगियों के इलाज के लिए डॉ श्रीनिवास की सुपुर्दगी में दे दी गई। इतना ही नहीं, उस बिल्डिंग में डॉ श्रीनिवास को अलग से कार्डियोलॉजी विभाग के लिए स्टॉफ भी मुहैया करा दिया गया।
वह 1960-70 का दशक था। उन्ही दिनो जब पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी पटना पहुंचीं, कार्डियोलॉजी विभाग पर मान्यता की आखिरी मुहर लगने के साथ ही उनसे दस करोड़ रुपए भी डॉ श्रीनिवास ने मंजूर करा लिए। डॉ श्रीनिवास के साथ एक और महत्वपूर्ण-रोचक वाकया फोरेंसिक साइंस की ईसीजी मशीन का जुड़ा हुआ है। इस मशीन को पहली बार भारत लाने का श्रेय भी डॉ श्रीनिवास को ही दिया जाता है।
इतना नहीं, डॉ श्रीनिवास ने तो स्वयं के रिसर्च पर आधारित निष्कर्ष दिया था कि दो लोगों का ईसीजी एक समान नहीं होता है। यानी कि ईसीजी से भी किसी व्यक्ति की सही-सही पहचान की जा सकती है। उनके इसी सिद्धांत को आधार बनाकर ब्रिटेन की स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस ने तो यह थ्योरी अपनी कानूनी कार्रवाई में शामिल कर ली, लेकिन अपने देश भारत में ही उनकी इस खोज को कोई अहमियत नहीं दी गई। इसे 'श्रीनिवास ईवी मैथड ऑफ़ आईडेंटीफिकेशन' कहा जाता है।
डॉ श्रीनिवास की एक और बड़ी देन मेडिकल इतिहास की गर्त में खो गई। साठ-सत्तर के दशक में उन्होंने अपने रिटायरमेंट के बाद इलाज की एक कॉमन पद्धति 'पॉलीपैथी' का आविष्कार किया। इसके तहत वह एलोपैथी, होम्योपैथी, यूनानी, आयुर्वेदिक, नेचुरोपैथी आदि सभी चिकित्सा पद्धतियों को एक साथ मिलाकर लोगों का इलाज करने लगे। चिकित्सा पर उन्होंने कई किताबें भी लिखीं। उन्हे 'वैज्ञानिक अध्यात्मिकी' पर संबोधित करने के लिए अमेरिका बुलाया गया।